अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस की शुभकामनाओं के बीच कुछ तकलीफदेह सवाल
यूएन विमेन हर साल एक नई थीम लेकर आती है. इस वर्ष की थीम है- “डिजिट ऑल (DigitALL), इनोवेशन एंड टेक्नोलॉजी फॉर जेंडर इक्वैलिटी.”
1937 में अमेरिका में जन्मी फेमिनिस्ट राइटर जोआना रस की एक कविता है-
"मेरा डॉक्टर एक पुरुष है
मेरा वकील पुरुष है
मेरा टैक्स-एकाउंटेंट पुरुष है
मेरे किराने की दुकान का मालिक पुरुष है
मेरे अपार्टमेंट बिल्डिंग का चौकीदार पुरुष है
मेरे बैंक का मैनेजर पुरुष है
पड़ोस के सुपरमार्केट का मैनेजर पुरुष है
मेरा मकान मालिक पुरुष है
मेरा टैक्सी चालक पुरुष है
पुलिस वाला पुरुष है
फायरमैन पुरुष है
मेरी कार का डिजाइनर एक पुरुष है
कार बनाने वाले कारखाने के सारे कर्मचारी पुरुष है
जिस डीलर से मैंने कार खरीदी, वह भी पुरुष है
मेरे तकरीबन सारे सहकर्मी पुरुष हैं
मेरा इंप्लॉयर पुरुष है
देश की सेना में सब पुरुष हैं
नौसेना में पुरुष हैं
सरकार में सब पुरुष हैं
ऐसा लगता है मानो दुनिया में रहने वाले सब लोग पुरुष ही हैं
और यह बात एक किंवदंती ही है
कि दुनिया की आधी आबादी महिलाओं की है
पृथ्वी पर उन सबको कहाँ रख छोड़ा”
जोआना रस ने ये कविता 1975 में लिखी थी. ज्यादा पुरानी बात नहीं. सिर्फ 48 साल पहले. क्या आपको लग रहा है कि इन 48 सालों में दुनिया इतनी बदल गई है कि यह कविता अप्रासंगिक हो गई है तो एक कागज-कलम उठाई और दर्ज करना शुरू करिए. पता चलेगा कि यह आज भी उतनी ही प्रासंगिक है. चंद खानों में भले औरतों की नाम भी दर्ज हो गया हो, लेकिन आधी आबादी अब भी अदृश्य है जीवन की सारी जगहों, सारे मौकों, सारे कामों से.
आज पूरी दुनिया में अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस मनाया जा रहा है. औरतों की आजादी और बराबरी का उत्सव. यूएन विमेन हर साल एक नई थीम लेकर आती है. इस वर्ष की थीम है- “डिजिट ऑल (DigitALL), इनोवेशन एंड टेक्नोलॉजी फॉर जेंडर इक्वैलिटी.”
भारत की कुल आबादी का 48 फीसदी महिलाएं हैं, यानि तकरीबन 68.5 करोड़ महिलाएं और उसमें भी सिर्फ एक तिहाई महिलाएं इंटरनेट का इस्तेमाल करती हैं. लगभग 22 करोड़. पुरुषों के मुकाबले यह संख्या आधी से भी कम है. यह सब यूएन विमेन के आंकड़े हैं. भारत सरकार डिजिटल साक्षरता को बढ़ावा देने के लिए तरह-तरह के शैक्षणिक, प्रशिक्षण कार्यक्रम चला रही है. उसमें भी महिलाओं को ज्यादा मौके दिए जाने के लिए तमाम नीति-निर्माण भी हो रहे हैं, फिर भी पुरुषों के मुकाबले इन डिजिटल एजूकेशन ट्रेनिंग प्रोग्राम में इनरोल होने वाली महिलाओं की संख्या आधी है. यह भारत सरकार का आंकड़ा है.
इस पर अलग से एक पूरा पैराग्राफ लिखने की जरूरत नहीं कि डिजिटल साक्षरता का इस नई आधुनिक दुनिया में क्या महत्व है. हर वो व्यक्ति, स्त्री हो या पुरुष, जो घर से निकलकर काम पर जा रहा है, इंटरनेट प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से उसके काम से जुड़ा हुआ है. एक नए शहर में ऑटो रिक्शा चलाने वाला व्यक्ति भी हर नुक्कड़ पर रास्ते पूछता भटकता नहीं है. वो गूगल मैप पर नक्शा देखता है. घर पर काम के लिए आने वाली हेल्प व्हाट्सएप पर अपनी छुट्टियों और पगार का हिसाब रखती है. आंगनवाड़ी में काम कर रही महिलाएं बच्चों के टीके और पोषण का हिसाब कंप्यूटर में दर्ज कर रही हैं.
हमारी जिंदगियों का सारा हिसाब भी डिजिटल डेटा की विशालकाय दुनिया में कहीं दर्ज हो रहा है. आज डिजिटल एजूकेशन लक्जरी नहीं, जरूरत है. बुनियादी जरूरत. जैसे नॉर्वे ने ‘राइट टू इंटरनेट’ को रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा और रोजगार की तरह जीवन की बुनियादी जरूरतों में शुमार किया, वैसे ही डिजिटल एजूकेशन आज ‘राइट टू एजूकेशन’ का ही हिस्सा हो गया है.
लेकिन हर मामले में होता है, जैसा शिक्षा, रोजगार, स्वास्थ्य और पगार के मामले में हुआ है, यहां भी स्त्रियां पुरुषों के मुकाबले बहुत पिछड़ी हुई हैं. जेंडर विषयों पर लिखते हुए आप तकरीबन रोज वही आंकड़े दोहरा रहे होते हैं, जबकि साल दर साल उन आंकड़ों में कोई बहुत आश्चर्यजनक बदलाव भी नहीं होता. 18 फीसदी शिक्षा का स्तर अगले सेंसस में बढ़कर 19.3 फीसदी हो जाता है. जितनी तेज गति से समय बदल रहा है, उतनी रफ्तार से औरतों की दुनिया नहीं बदल रही. शिक्षा और रोजगार में औरतों की हिस्सेदारी में मामूली से बढ़त के साथ उनके साथ होने वाली हिंसा का ग्राफ आश्चर्यजनक रफ्तार से आगे बढ़ रहा है.
बाहर की दुनिया में थोड़ी दखल घर और बाहर दोनों जगह वॉयलेंस को बहुत सारा बढ़ा रही है. और इन सबके बीच कुछ एकेडमिक बहसें हैं, लेख हैं, जेंडर बराबरी पर हो रही कॉन्फ्रेंस है और उन जगहों पर पढ़े गए पर्चे, दिए गए भाषण, व्यक्त की गई उम्मीदें और सपने. यूएन विमेन कह रहा है कि सस्टेनेबल विकास के लिए, पर्यावरण को बचाने के लिए, युद्ध, बर्बादी और विनाश को कम करने के लिए जरूरी है कि ज्यादा से ज्यादा महिलाओं के हाथों में कमान दी जाए. वो रक्षक हैं, भक्षक नहीं.
लेकिन पन्नों और शब्दों में जितना कहा जा रहा है, जिंदगी में उसका 5 फीसदी भी उतर नहीं रहा. दक्षिणपंथ का विश्वव्यापी उभार महिलाओं को एक बार फिर घर और रसोई की चौखट में ढकेलने की असंभव सी कोशिश में लगा है. सुपीरियर रेस पैदा करने के लिए गर्भसंस्कार के उपाय सुझाए जा रहे हैं. सरकारें अबॉर्शन को प्रतिबंधित करने (अमेरिका, पोलैंड, हंगरी) और महिलाओं को पारिवारिक मूल्यों की महानता याद दिलाने (चीन, पुर्तगाल) की कोशिश में लगी हैं. और इन सबके बीच जर्मनी फेमिनिस्ट फॉरेन पॉलिसी बना रहा है.
तकरीबन सभी सरकारी, गैरसरकारी जगहों पर आज सब होली के साथ-साथ विमेंस डे मना रहे हैं. दफ्तरों में महिलाओं को गुलाब और चॉकलेट बांटे गए हैं. पुरुष सहकर्मी थोड़ा खीझकर सवाल कर रहे हैं, महिला दिवस मना रहे हो तो पुरुष दिवस क्यों नहीं.
एक मामूली गुलाब और चॉकलेट की गैरबराबरी मर्दों को सुहा नहीं रही. और औरतें ये सवाल नहीं पूछ रहीं, जो जोआना रस ने 48 साल पहले पूछा था- इस दफ्तर की सभी लीडरशिप पोजीशन पर तुम मर्द ही क्यों विराजमान हो. तुम्हारी तंख्वाहें हमसे 30 गुना ज्यादा क्यों हैं. ये गुलाब और चॉकलेट तुम रख लो, बड़ा पद और बड़ी तंख्वाह हमें दे दो.
बाकी सब ठीक है. सेलिब्रेशन ऑन है.