जानिए क्या था Y2K Bug, जिसने बेंगलुरु को बना दिया 'सिलिकॉन वैली'
बेंगलुरु आज के वक्त में आईटी हब बन चुका है. इसे भारत का सिलिकॉन वैली कहा जाता है. लेकिन क्या आप जानते हैं कि एक बग की वजह से बेंगलुरु इतना बड़ा बन गया है? जानिए बेंगलुरु के सिलिकॉन वैली बनने की कहानी.
बेंगलुरु (Bengaluru) आज के वक्त में भारत का सिलिकॉन वैली (Silicon Valley) कहा जाता है. यह ऐसी जगह है जहां पर देश के सबसे ज्यादा स्टार्टअप हैं. टेक्नोलॉजी से जुड़ी इस शहर में इतनी सारी कंपनियां हैं कि इसे आईटी हब (IT Hub) तक कहा जाता है. अब यहां सवाल ये है कि आखिर बेंगलुरु भारत का सिलिकॉन वैली कैसे बन गया? आज के वक्त में कर्नाटक की इकनॉमी में बेंगलुरु करीब 40-42 फीसदी का योगदान करता है. वहीं अगर बात भारत से सॉफ्टवेयर एक्सपोर्ट करने की करें तो पूरे देश में बेंगलुरु की हिस्सेदारी करीब 35 फीसदी है, जबकि कर्नाटक से एक्सपोर्ट में इसकी हिस्सेदारी 90 फीसदी है.
बेंगलुरु के सिलिकॉन वैली बनने के पीछे एक दिलचस्प कहानी है, जिसकी शुरुआत कई दशक पहले हुई थी. इस कहानी में सबसे बड़ा रोल रहा मिलेनियम बग (Millennium Bug) का, जिसे Y2K Bug के नाम से भी जाना जाता था. इसमें Y का मतलब है year यानी साल. वहीं K का मतलब है kilo यानी 1000. इस तरह Y2K का मतलब निकलता है 'Year 2000'. इसी की वजह से बेंगलुरु भारत का सिलिकॉन वैली बना. Y2K Bug के अलावा एक शख्स भी है, जिसने बेंगलुरू को सिलिकॉन वैली बनाने में अहम योगदान दिया.
पहले बात करते हैं Y2K Bug की
आज बेंगलुरु जो भी है, उसका सबसे बड़ा क्रेडिट जाता है Y2K Bug को. ये बात है 1993 की. Computer World नाम की एक मैगजीन ने Dooms Day 2000 नाम का एक आर्टिकल लिखा था. इस आर्टिकल में Y2K Bug का जिक्र किया गया था. 60 के दशक में कंप्यूटर स्टोरेज स्पेस बहुत महंगा पड़ता था. महज 1 kb स्पेस के लिए लगभग 7500 रुपये तक खर्च करने पड़ते है, जिसकी आज कीमत ना के बराबर है. ऐसे में उस वक्त कोड्स लिखने वालों ने एक शानदार तरीका निकाला, जिससे स्पेस की बचत की जा सके. उन्होंने वर्षों को चार अंकों के बजाय सिर्फ 2 अंकों में लिखना शुरू कर दिया. जैसे 1960 की जगह सिर्फ 60. इससे स्पेस बचने लगा.
वर्षों को 2 डिजिट में लिखे जाने के आइडिया पर अमल करते वक्त ये किसी ने नहीं सोचा कि जब साल 2000 आएगा तो कंप्यूटर उसे कैसे पढ़ेगा. कंप्यूटर में तो साल 2000 को 00 लिखा जाता, लेकिन ये समझ नहीं आ रहा था कि कंप्यूटर इसे कैसे पढ़ेगा? कहीं वह इसे 1900 या 1800 या कुछ और ना पढ़ ले. दिक्कत इसलिए बहुत बड़ी थी क्योंकि बैंकों के सारे ब्याज कैल्कुलेशन तारीख के आधार पर ही होते हैं. अन्य तमाम इंडस्ट्री में भी तारीखों के हिसाब से ट्रांजेक्शन दर्ज की जाती थीं. यानी पूरा का पूरा सिस्टम ही क्रैश होने के कगार पर पहुंच गया था.
अब आप सोच रहे होंगे कि इसमें कौन सी बड़ी बात है, 2 डिजिट के बजाय 4 डिजिट में लिखना शुरू कर सकते हैं. 2000 तक स्पेस तो किफायती हो चुका था, लेकिन असल दिक्कत थी कोडिंग की. दरअसल, सारी कोडिंग 2 डिजिट के हिसाब से की गई थी और उसे 4 डिजिट के लिए बदलना पड़ता. यहां भी आप सोच रहे होंगे कि इसमें कौन सी बड़ी बात है, कोड बदलकर इससे निपटा जा सकता था. हालांकि, ये सब जितना आसान लग रहा है, उतना आसान था नहीं. 60 के दशक में सारी कोडिंग Common Business Oriented Language (COBOL) में होती थी और 1990 तक ही ये कंप्यूटर लैंग्वेज आउटडेटेड हो चुकी थी. बहुत ही कम सॉफ्टवेयर इंजीनियर्स को वह भाषा आती थी. यहीं पर सामने आता है बेंगलुरु, जहां के सॉफ्टवेयर इंजीनियर्स को यह भाषा आती थी.
उस दौर में कहा जाता था कि अमेरिका की तुलना में भारत करीब 20-30 साल पीछे है. आज भी ये कहा जाता है कि भारत 4-5 साल पीछे है अमेरिका से. खैर, कभी-कभी पीछे होने वालों को बड़ा फायदा होता है. भारत के साथ भी ऐसा ही हुआ. जहां एक ओर 90 के दशक में अमेरिका में COBOL भाषा आउटडेटेड हो चुकी थी, वहीं भारत में तमाम सॉफ्टवेयर इंजीनियर्स इस भाषा को अच्छे से जानते थे. बेंगलुरु की सॉफ्टवेयर कंपनियां ये जानती थीं कि अगर इस समस्या का समाधान अमेरिका में किया जाएगा तो महंगा पड़ेगा. वहीं भारत में ही इसका समाधान करना फायदे का सौदा था, क्योंकि यहां लेबर भी सस्ती है. बेंगलुरु की सॉफ्टवेयर कंपनियों ने अमेरिकी कंपनियों के लिए इस समस्या का समाधान करना शुरू किया और बेंगलुरु बन गया आईटी हब. उसके बाद से यह तकनीक के मामले में एडवांस होता ही चला गया और अब इसकी तुलना अमेरिका के सिलिकॉन वैली से की जाती है, जो आईटी हब है.
लेकिन सवाल ये है कि बेंगलुरु ही क्यों?
इसकी कहानी शुरू होती है 1953 में, जब भारत सरकार ने वहां हिंदुस्तान मशीन टूल्स (HMT) की स्थापना की. इसके बाद वहां इंडस्ट्री की ग्रोथ होने लगी और ये इंडस्ट्रीज बहुत ही कॉम्प्लैक्स टेक्नोलॉजी इस्तेमाल करनी थीं. इसकी वजह से वहां इलेक्ट्रॉनिक और कंप्यूटर सेक्टर तेजी से बढ़ने लगा. 1909 में जमशेदजी टाटा की मदद से इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंसेस की स्थापना की गई. इसके बाद इनोवेशन और टेक्नोलॉजी में खूब तेजी देखने को मिली.
बेंगलुरु को सिलिकॉन वैली बनाने का सपना देखा था राम कृष्ण बलिगा ने, जो भारत इलेक्ट्रॉनिक लिमिटेड के रडार डिवीजन के डिप्टी जनरल मैनेजर थे. उनके इस सपने को कर्नाटक के मुख्यमंत्री रहे देवराज ने समझा और उनके विजन को अपना सपोर्ट दिया. 1997 में उन्हें कर्नाटक स्टेट इलेक्ट्रॉनिक्स डेवलपमेंट कॉरपोरेशन का चेयरमैन बना दिया गया. 1978 में बलिगा ने एक इलेक्ट्रॉनिक सिटी बनाने की योजना बनाई और Anekal Taluk में करीब 332 एकड़ जमीन खरीदी. यह भारत का पहला आईटी इंडस्ट्री पार्क बना. 1980 के बाद तेजी से बेंगलुरु में कंपनियां आना शुरू हो गईं.