लख़नवी हिमांशु बाजपेयी की दास्तानगोई की शोहरत अब तो पूरी दुनिया में
पुराने लखनवी अंदाज़ में नए ज़माने के मशहूर दास्तानगो हिमांशु बाजपेयी आज किसी परिचय के मोहताज नहीं, अब तो देश-दुनिया भर में उनकी किस्सागोई के ही अलग ही रंग-ढंग हैं। नेट-फ्लिक्स की लोकप्रिय सीरीज 'सैक्रेड गेम्स' के सीजन-2 में भी उनकी दास्तानगोई की मजेदार मौजूदगी है। उनकी किताब 'किस्सा-किस्सा लखनउवा' छपते ही बेस्टसेलर हो गई। सात महीने में ही इसके तीन संस्करण आ गए।
दास्तान ज़ुबानी बयानिया है, जिसे पेश करने वाले दास्तानगो ज़ुबान, बयान, शायरी और किस्त के माहिर माने जाते हैं। दास्तानें बहुत-सी सुनाई जाती रही हैं, लेकिन इन दिनो देश के मशहूर दास्तानगो हिमांशु बाजपेयी पूरी दुनिया में दास्तानगोई के बखूबी रंग बिखेर रहे हैं।
इतिहास के पन्नों पर सबसे मशहूर दास्तानें अमीर हमज़ा की जिन्दगी और उनके शानदार कारनामों की दर्ज हैं। 18वीं-19वीं सदी में जब वे उर्दू में मकबूल हुईं, उनसे अदब और पेशकश का लाज़वाब मिलाप हुआ और उनमें कई ऐसी बातों का इजाफ़ा हुआ, जो ख़ालिस हिन्दुस्तानी मिज़ाज़ की रही हैं। तिलिस्म और अय्यारियां भी बाद में दास्तानगोई की सबसे अहम हिस्सा बनीं। दास्तानगोई का फ़न जुब़ानी और तहरीरी, दोनों शक्लों में जब से अपने उरूज तक पहुँचा है, तकरीबन उसी वक्त से नए मिजाज और नए मीडिया की आमद के साथ तेजी से इसका जलवा भी साया हुआ है।
हिमांशु बाजपेयी की दास्तानगोई एक ऐसी मिसाल बन चुकी है, जो ताज़ा वक़्त के किस्सों में दुनियादारी के उन दरवाजों, खिड़कियों को खोलती लगती है, जिनसे लफ़्ज-दर-लफ़्ज उमड़ते शब्दों के झोके थपकियां दे-देकर सुलाते नहीं, नई-नई तरह की जानी-अनजानी दुनियाओं में दाखिल कराने लगते हैं।
मशहूर दास्तानगो हिमांशु बाजपेयी 'योर स्टोरी' से बात करते हुए बार-बार एक ऐसी शख्सियत का नाम लेते हैं, जिनकी दोस्ती का गुम हो जाना उनकी आगे की जिंदगी के लिए एक कभी न होने वाली भरपायी जैसा लगता है, वह शख्सियत रहे उनके मरहूम साथी अंकित चड्ढा।
वह कौन सी पहली बात थी, जिसने हिमांशु बाजपेयी को इस दौर की ओर पहली मर्तबा मुखातिब किया, वह बताते हैं - ऐसी कोई एक बात हो तो बताऊं, यहां तो लखनऊ की उस तहज़ीब से पूरी दुनिया वाकिफ़ है, उसमें भी इस शहर का चौक इलाका, जहां पर वह पले-बढ़े, होश संभाला। लखनऊ के इस खास पुराने इलाके का तो हमेशा से पूरा रंग-ढंग ही लतीफ़ेबाजी, शेरो-शायरी, फिकरेबाजी, अच्छी तरह से बात करने के हुनर, सुनने-सुनाने के नशे में दास्तानगोई से सराबोर रहा है। जब उन्होंने देखा-सुना-पढ़ा कि ये तो पूरी दुनिया में मशहूर है, जाने-अनजाने यह हुनर उनके भी अंदर आकार लेने लगा। वह इसे एक इत्तेफ़ाक भी मानते हैं और अपने मरहूम दोस्त अंकित चड्ढा का नायाब, बेमिसाल तोहफ़ा भी।
वह बताते हैं, जब पत्रकारिता की पढ़ाई करने पहली बार भोपाल गए, अपने लखनऊ चौक इलाके की तहज़ीब वहां भी चौबीसो घंटे उनके खयालों से लिपटी रहने लगी। पढ़ाई पूरी हुई, वह 'तहलका' के साथ पेशेवर पत्रकारिता से जुड़े तो उनके दिलो-दिमाग में अपनी लखनवी तहजीब के पन्ने-दर-पन्ने कुछ इस तरह खुलते चले गए कि कलम उसी राह चल पड़ी। इस तरह अपने शहर को अब नए सिरे से जानने-समझने लगे। तब तक लखनऊ की कल्चर ब्रैंड बनने लगी थी। वह सचेतन तौर पर लखनऊ और उसके आसपास पर लिखने लगे। उन्हीं दिनों 'राष्ट्रीय चेतना के विकास में नवल किशोर प्रेस का योगदान' विषय पर उनकी पीएचडी पूरी हुई।
हिमांशु बाजपेयी बताते हैं, उन्ही सिलसिलों के साथ हर दिन दास्तानगोई में जीते-जागते हुए सोचने लगा कि मेरे पास तो ज़ुबान भी है, दास्तानें भी, इसलिए क्यों न एक कदम और आगे निकल उनकी ओर चला जाए, जहां दास्तानें सुनी-सुनाई जाती हैं। तो इस तरह अपने बेजोड़ दोस्त अंकित चड्ढा के साथ पहली बार अक्टूबर 2014 में लखनऊ में उनका पहला शो हुआ। वह पहली परफार्मेंस मुझे खुद को बहुत अच्छी तो नहीं लगी लेकिन मिज़ाज में घुल उठी लोगों की अनसुनी सी वाह-वाह ने, वहां मौजूद मेरे बड़े-बुजुर्गों ने अपनी तवज्जो से सौ कदम और आगे निकल जाने का पहला जज्बा और बेशुमार हौसला दिया। एक बार फिर मन में खयाल उठा कि जब, अपनी रत्तीभर काबिलियत के साथ पहला ही शो इस कदर पसंद किया जा गया है, सचमुच इस राह पर चल कर आगे का सफर तो बड़ा ही सुहाना हो सकता है।
आज वह कामयाबी के जिस मोकाम पर हैं, उनकी उस दिन की सोच अब सच साबित हो चुकी है।
हिमांशु आज भी कहते हैं कि यद्यपि मेरी वह पहली प्रस्तुति आज की तरह तो कत्तई बेहतर नहीं रही थी। और उसके आगे के वक़्त में तो मेरे दोस्त अंकित चड्ढा आगे-आगे थे ही, फिर हिचक किस बात की। और उस समय उनको पहली बार आज की दिशा मिली, दास्तानगोई को फुल टाइम प्रोफेशन बना लेने की। दोस्त ने कहा कि हिमांशु, इसमें तुम्हारे लिए वह सब संभव हो सकता है, जो भी चाहिए, मन माफ़िक ज़िदगी के लिए।
चैनलों की भाषा में कहते हैं न कि 'रुकावट के लिए खेद है', तो दोस्त की हिदायत के साथ अब अपने घर वालो, खास कर तब अपने माता-पिता की रजामंदी की दरकार रही। शिक्षक-किसान पिता अरुण कुमार बाजपेयी ने भी सिर्फ इतना भर इशारा किया कि नौकरी के साथ अभी एक शौक की तरह कर लेते ये काम तो अच्छा रहता लेकिन मेरे अंदर, अवचेतन में जो कुछ चल रहा था उन दिनो किसी जुनून जैसा, ललकार सा रहा था कि नहीं, अब चलना है तो सौ कदम की चाल, इक्का-दुक्का की नहीं। और फिर चल पड़ा तेज-तेज, और आज इस मोकाम तक आ पहुंचा हूं, जबकि पिछले कुछ ही वर्षों में इस्तांबुल, दुबई, सिंगापुर, जाने कहां-कहां तक दास्तानगोई कर आया हूं।
शोहरत भी, पैसा भी, और मन की क्रिएटिव लॉइफ़ बसर करते जाने की अब पर्याप्त संभावनाएं भी। बार-बार शुक्रगुजार हूं अपने दोस्त अंकित चड्ढा का, जिसने, जिसके इंस्पिरेशन ने मेरे इस हुनर को निखारा ही नहीं, अपनी जिंदगी रहते इतना कुछ दे गया कि खयालों में कभी उससे अलग नहीं हो पाऊंगा।
हिमांशु बताते हैं, अंकित और मैं दो ही लोग थे, साथ में दोस्त, पार्टनर। तीस साल की उम्र में ही चले गए अंकित की किताब- 'तो हाजरीन हुआ यूं', के कवर पेज पर लिखे अपने भी कुछ शब्द आज तक वह यायावर याराना निभाते आ रह हैं। अंकित ने यह साबित कर दिया था कि पेशेवर तरीके से, बड़े आराम से दास्तानगोई के बिना पर जिया जा सकता है।
वैसे भी आज पत्रकारिता के जैसे रंग-ढंग है, रंगकर्म में भी प्रोडक्शन कास्ट आदि के ताम-झाम, झमेले रहते हैं, ऐसे में दास्तानगोई के साथ ऐसा कुछ भी नहीं। सिर्फ एक-अकेला, सबको सुनाता जाऊं। हिमांशु कहते हैं, हमारे लखनऊ चौक का इलाका हर समय मेरी दास्तानगोई को इतना कुछ देता रहता है कि और कहीं की जरूरत ही नहीं पड़ी.. अपने शहर अपने मोहल्ले के दास्तानगो अमृतलाल नागर, आज के पद्मश्री इतिहासकार डॉ. योगेश प्रवीन को पढ़ते-सुनते हुए।
हिमांशु की दास्तानगोई सिर्फ लखनऊ के नवाबों के किस्से नहीं, अवाम की तहजीब, उसकी दास्तानें, लखनवी विरासत जैसी, जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी संजोयी जाती रहेंगी ऐसे ही किस्सों को खुद के शब्दों में ढालकर किताब की शक्ल देने वाले हिमांशु बाजपेयी, लेखक भी, और पुरजोर अंदाज वाले दास्तानगो भी।
खुद के लिखे सुनाने वाले किस्से लखनऊ से काकोरी तक के। काकोरी कांड और क्रांतिकारियों की दास्तान, गांधी जी की दास्तान, फलों के राजा आम की दास्तान, कैफी आजमी की दास्तान, आदि उनकी कुछ मशहूर दास्तानें हैं। रंगकर्म से अछूते होते हुए भी हिमांशु के लिए खुद को फुल टाइम प्रोफेशनल दास्तानगो के बतौर कामयाब बना पाना कत्तई आसान न था। वह कहते भी - 'कभी भूले से भी अब याद भी आती नहीं जिनकी, वही किस्से जमाने को सुनाना चाहते हैं हम।' वह बताते हैं कि हमारे समय में उर्दू आलोचक शम्सुर्रहमान फारूकी और उस्ताद महमूद फारूकी की कोशिशों से यह कला दोबारा जिंदा हुई है। अमृतलाल नागर, हमारे चौक मोहल्ले में ही रहते थे। उनसे प्रेरणा मिली। डॉ. योगेश प्रवीन एक गुरू की तरह रहे। हमारे यहां आधुनिक दास्तानगोई की दो पीढ़ियां हैं। एक उस्ताद महमूद फ़ारूखी की पीढ़ी और एक उनके बाद की पीढ़ी। इस पीढ़ी में सबसे बड़े दास्तानगो अंकित चड्ढा हुए। उनको सुनते हुए सिर्फ सुनने का मन करता था, सुनाने का नहीं। वह कितनी कम उम्र में चले गए, दो साल पहले। मेरे पास राइटिंग का भी हुनर था, हम दोनो काम करना चाहते थे, जो दास्तान गोई करते हैं, खुद रिसर्च लिखते हैं, दास्ताने तमन्नाए सरफरोशी, दोनो जगह रहना चाहे, लेखन और परफॉर्मेंस में भी, जैसे जैसे कामयाब होने लगे, आगे इसी दिशा में बढ़ते जाने का हौसला मिलता गया।
वह कहते हैं, दास्तानगोई भी एक तरह की कविता है, शायरी है। नेट-फ्लिक्स की लोकप्रिय सीरीज 'सैक्रेड गेम्स' के सीजन-2 में भी उनकी दास्तानगोई की मजेदार मौजूदगी है। उनकी किताब 'किस्सा-किस्सा लखनउवा' छपते ही बेस्टसेलर हो गई। सात महीने में ही इसके तीन संस्करण आ गए।
वह कहते हैं कि कई साल की मेहनत और कोशिशें अब रंग ला रही हैं। अब दास्तानें सिर्फ तिलिस्म और अय्यारी तक सीमित नहीं, विनायक सेन की गिरफ्तारी, मुल्क का बंटवारा, मोबाइल की अहमियत और मंटो की मंटोइयत जैसे बेशुमार नए एवं समसामयिक विषय दास्तानों को एकदम नयी और अनोखी शक्ल दे रहे हैं। सुनने वाले नए और पुराने के इस अद्भुत मेल को न सिर्फ पसंद कर रहे हैं बल्कि ये दास्तानें उनके मन में खूब खलबली मचाने लगी हैं।
पुराने दौर में दास्तानगोई के बेमिसाल उस्तादों के शहर लखनऊ में महमूद फारूकी के निर्देशन में अंकित के साथ ही वह उर्दू के मशहूर शायर मजाज़ लखनवी की जि़ंदगी और शायरी पर ‘दास्तान-ए-आवारगी’ को नई तरह से लोगों के बीच ले आए। मजाज़ की भतीजी जऱीना भट्टी कहती है- ‘स्क्रिप्ट बहुत कसी हुई, परफॉर्मेंस भी शानदार। यकीनन इस पर बहुत मेहनत की गई होगी।’
हिमांशु बजपेयी कहते हैं,
‘‘जब आप मजाज़ जैसी किसी शख्सियत पर दास्तान तैयार कर रहे होते हैं तो सबसे बड़ी चुनौती यही होती है कि क्या रखा जाए और क्या छोड़ा जाए। फिर मेरा मजाज़ से जो ज़ाती रिश्ता है उसकी वजह से मेरे लिए तो ये काम आम आदमी से हज़ार गुना ज़्यादा कठिन है लेकिन अंकित ने इस मुश्किल से उबरने का एक बेहद कारगर तरीका सुझाया। सामान्यत: हमने उन्हीं अशआर और लतीफों को रखे जो नैरेटिव में फिट बैठे।’’
वह चाहते हैं, कोई ऐसा वक़्त आए, जब वह सड़क के रास्ते देश भर में घूम-घूम कर लोगों के बीच दास्तानगोई करने लगें।