Brands
Discover
Events
Newsletter
More

Follow Us

twitterfacebookinstagramyoutube
Youtstory

Brands

Resources

Stories

General

In-Depth

Announcement

Reports

News

Funding

Startup Sectors

Women in tech

Sportstech

Agritech

E-Commerce

Education

Lifestyle

Entertainment

Art & Culture

Travel & Leisure

Curtain Raiser

Wine and Food

YSTV

ADVERTISEMENT
Advertise with us

बीएचयू के उद्घाटन पर भरे मंच से महात्‍मा गांधी ने क्‍यों कहा कि वे शर्मिंदा हैं

4 फरवरी, 1916 को बीएचयू की शुरुआत हुई थी. पढि़ए इस अवसर पर दिए गए गांधी के प्रसिद्ध भाषण के चुनिंदा अंश.

बीएचयू के उद्घाटन पर भरे मंच से महात्‍मा गांधी ने क्‍यों कहा कि वे शर्मिंदा हैं

Saturday February 04, 2023 , 5 min Read

आज ही के दिन देश के प्रतिष्ठित बनारस हिंदू विश्‍वविद्यालय का उद्घाटन हुआ था. विश्‍वविद्यालय की आधारशिला रखी थी वायसराय लॉर्ड हार्डिंग्ज ने. इस मौके पर पंडित मदन मोहन मालवीय ने महात्‍मा गांधी को विशेष रूप से भी बुलाया था.

युवाओं से खचाखच भरी उस सभा में देश भर के प्रतिष्ठित लोग, अफसर, राजे-महाराजे, नवाब वगैरह आए थे. गांधी ने उस दिन भरी सभा में एक ऐतिहासिक भाषण दिया था.

यहां प्रस्‍तुत है उस ऐतिहासिक भाषण के कुछ चुनिंदा अंश, जो उनकी किताब ‘सेलेक्‍टेड वर्क्‍स ऑफ महात्‍मा गांधी’ (Selected Works of Mahatma Gandhi, Volume-Six) से लिए गए हैं.

महात्‍मा गांधी का ऐतिहासिक भाषण

“मैं यहां आने में हुई बहुत देरी के लिए क्षमा चाहता हूं. संभवत: आप मेरी इस क्षमा को स्‍वीकार कर लेंगे, अगर मैं कहूं कि इस देरी के लिए मैं उत्तरदायी नहीं हूं.  

मित्रों, अभी-अभी भाषण देकर बैठी श्रीमती बेसेंट की अतुलनीय वाक्पटुता के प्रभाव में आप यह न मान लें कि हमारा विश्वविद्यालय एक तैयार उत्पाद बन चुका है. ऐसी किसी धारणा पर यकीन करने की बजाय एक क्षण के लिए उस आध्यात्मिक जीवन पर विचार करिए, जिसके लिए हमारा यह देश विख्यात है. 

सच कहूं तो मैं खुद भाषणों और व्याख्यानों से तंग आ चुका हूं.  

पिछले दो दिनों में हमें बताया गया कि यदि हमें भारतीय चरित्र की सरलता पर अपनी पकड़ बनाए रखनी है तो यह कितना जरूरी है कि हमारे हाथ और पैर हमारे दिल एकजुट होकर काम करें. लेकिन मैं कहना चाहता हूं कि यह सिर्फ ऊपरी बात है. 

मैं कहना चाहता था कि यह हमारे लिए गहरे अपमान और शर्म की बात है कि मैं आज शाम इस महान कॉलेज की छाया में, इस पवित्र शहर में, अपने देशवासियों को एक ऐसी भाषा में संबोधित करने के लिए मजबूर हूं, जो मेरे लिए विदेशी है. मुझे पता है कि अगर इन दो दिनों के व्याख्यानों की श्रृंखला के दौरान उपस्थित होने वाले सभी लोगों की परीक्षा लेने के लिए मुझे एक परीक्षक नियुक्त किया गया तो अधिकांश लोग फेल हो जाएंगे. क्‍योंकि इन बातों ने उनके हृदय को नहीं छुआ है.

दिसंबर के महीने में कांग्रेस के अधिवेशन में मौजूद था. भारी संख्‍या में श्रोता वहां मौजूद थे. क्या आप मुझ पर विश्वास करेंगे, जब मैं आपको कहूं कि बंबई में श्रोताओं के जनसमूह को सिर्फ वही भाषण प्रभावित कर पाए जो हिंदुस्तानी भाषा में दिए गए थे. और मैं बात कर रहा में बंबई की. आप ध्यान दें, बनारस नहीं, जहां हर कोई हिंदी बोलता है.

कांग्रेस के लोग हिंदी में बोलने वालों का बेहतर ढंग से सुन और समझ पा रहे थे.  मुझे आशा है कि यह विश्वविद्यालय इस बात का ध्यान रखेगा कि इसमें आने वाले युवाओं को उनकी मातृभाषा के माध्यम से ही शिक्षा मिले. हमारी भाषाएं हमारा ही प्रतिबिम्ब हैं और यदि आप मुझसे कहते हैं कि हमारी भाषाएं श्रेष्ठतम विचारों को व्यक्त करने के लिए उपयुक्‍त नहीं हैं, तो बेहतर होगा कि यह कहें कि जितनी जल्दी हमारा अस्तित्व समाप्त हो जाए, हमारे लिए उतना ही अच्छा है.  

क्या कोई ऐसा आदमी है जो यह सपना देखता है कि एक दिन अंग्रेजी भारत की राष्ट्रभाषा बन सकती है. आखिर देश पर यह आपदा आई ही क्यों है? जरा एक पल के लिए सोचकर देखिए, हमारे लड़कों को अंग्रेज लड़कों के साथ कितनी बराबरी की दौड़ लगानी पड़ती है.

मुझे पूना के कुछ प्रोफेसरों से से घनिष्ट बातचीत का मौका मिला. उन्होंने मुझे आश्वासन दिया कि हर भारतीय युवा अंग्रेजी में पढ़ने के कारण अपने जीवन के कम से कम छह कीमती साल खो देता है. इसे हमारे स्कूलों और कॉलेजों से निकलने वाले छात्रों की संख्या से गुणा करें और देखें कि देश के कितने हजार साल बर्बाद हो गए हैं.

हमारे पर आरोप यह है कि हमारे पास कोई नवाचार, कोई मौलिकता नहीं है.  हमारे पास यह चीजें कैसे हो सकती हैं, यदि हम अपने जीवन के अनमोल बरस एक विदेशी भाषा में महारत हासिल करने के लिए समर्पित कर देंगे.

आज और कल यहां जितने भी लोगों ने भाषण दिया, क्‍या उनमें से किसी के लिए भी मि. हिगिनबॉथम की तरह श्रोताओं को अपनी भाषा के कौशल से प्रभावित कर पाना मुमकिन था. उनके पास कहने को बहुत गहरी बातें थीं, लेकिन वो बातें हृदय तक पहुंच नहीं सकीं क्‍योंकि उनकी भाषा उनकी अपनी नहीं थी.  

मैंने लोगों को यह भी कहते हुए सुना है कि आखिरकार यह अंग्रेजीदां भारत ही है, जो भारत को चला रहा है. जाहिर है, हम सारी शिक्षा अंग्रेजी में ही ग्रहण कर रहे हैं. लेकिन कल्‍पना करिए कि अगर पिछले 50 सालों में हम अपनी भाषा में ज्ञान ले रहे होते तो आज हम कहां होते.

आज हम एक आजाद मुल्‍क होते. हमारे पास अपनी भाषा में शिक्षित हुए लोग होते. वैसे लोग नहीं, जो अपने ही देश और अपनी ही मिट्टी में विदेशी बनकर बैठे हुए हैं. वे अपने देश के वंचितों, हाशिए पर फेंके हुए लोगों के लिए काम कर रहे होते और वे जो कुछ भी करते, वह इस देश की विरासत, इस देश कर संपदा होती. प्रो. बोस और प्रो. रे के उम्‍दा शोध को ही देख लीजिए. क्‍या यह शर्म की बात नहीं कि यह महान ज्ञान इस देश के बहुसंख्‍यकों तक नहीं पहुंच पा रहा."


Edited by Manisha Pandey