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हर वो औरत, जो पीरियड्स में है और पेन किलर खाकर दफ्तर में काम कर रही है

आज पेड पीरियड लीव को लेकर सुप्रीम कोर्ट में दायर जनहित याचिका पर सुनवाई का दिन है.

हर वो औरत, जो पीरियड्स में है और पेन किलर खाकर दफ्तर में काम कर रही है

Friday February 24, 2023 , 7 min Read

कामकाजी महिलाओं और स्‍कूल-कॉलेज की छात्राओं को पीरियड लीव दिए जाने की जनहित याचिका पर आज सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई होनी है. जस्टिस डी.वाई. चंद्रचूड़ सिंह की बेंच में इस याचिका पर सुनवाई की जाएगी.

इस वर्ष 11 जनवरी को वकील वकील शैलेंद्र मणि त्रिपाठी ने सुप्रीम कोर्ट में एक पीआईएल (जनहित याचिका) दायर की थी, जिसमें कहा गया था कि  महिलाओं को प्रेग्‍नेंसी के दौरान तो वैतनिक अवकाश दिए जाने का कानून है, लेकिन पीरियड्स को लेकर इस तरह का कोई नियम नहीं है. कुछ कंपनियां जरूर अपनी स्‍वेच्‍छा से महिला कर्मचारियों को यह सुविधा देती हैं, लेकिन नियम न होने के कारण यह नियोक्‍ताओं के लिए बाध्‍यता नहीं है.

याचिका में विभिन्‍न अध्‍ययनों और आंकड़ों के हवाले से बताया गया था कैसे पीरियड्स कई बार महिलाओं के लिए एक तकलीफदेह अनुभव हो सकता है. पीरियड्स के दौरान कुछ महिलाओं को हार्ट अटैक से ज्‍यादा दर्द का सामना करना पड़ता है.

याचिका दायर किए जाने का आधार यह था कि पेड पीरियड लीव कोइ लक्‍जरी नहीं, बल्कि महिलाओं की बिलकुल सहज और प्राकृतिक जरूरत है. प‍ीरियड को लेकर संवदेनशीलता न बरतने का प्रभाव महिलाओं के काम, प्रोडक्टिविटी और कॅरियर पर पड़ता है.

मासिक धर्म के दौरान महिलाओं की विशेष प्राकृतिक जरूरतों को नजरंदाज कर हम उनके जीवन को और कठिन बना रहे होते हैं.     

 

पिछले कुछ समय से लगातार इस तरह की मांग उठती रही है. हाल के दिनों में केरल सरकार ने स्‍टेट हायर एजूकेशन के अंतर्गत आने वाले सभी विश्‍वविद्यालयों और शिक्षण संस्‍थानों में छात्राओं के लिए पीरियड लीव और मैटर्निटी लीव को अनिवार्य कर दिया.

हाल ही में भारत के शिक्षा राज्य मंत्री डॉ. सुभाष सरकार ने लोकसभा में कहा था कि हमारे कानून में शैक्षणिक संस्थानों में छात्राओं को पीरियड लीव देने का कोई प्रावधान नहीं है.

वर्ष 2018 में शशि थरूर ने संसद में ‘विमेन सेक्सुअल रीप्रोडक्टिव एंड मेंस्ट्रूअल राइट्स बिल’ पेश किया था. इस बिल में महिलाओं के लिए सार्वजनिक जगहों पर मुफ्त सैनिटरी पैड उपलब्‍ध कराए जाने की बात थी, लेकिन बिल में पीरियड लीव के बारे में कोई बात नहीं की गई थी.

सुप्रीम कोर्ट में दायर जनहित याचिका में दुनिया के उन देशों और देश की कुछ चुनिंदा कंपनियों का भी जिक्र है, जहां यह पेड पीरियड लीव का प्रावधान है. यह याचिका इस जरूरत को लेकर एक देशव्‍यापी नियम की मांग करती है, जिसके तहत सभी राज्‍य सरकार शिक्षण संस्‍थानों और नियोक्‍ताओं को लेकर एक नियम बनाएं, जिसके तहत महिलाओं को पेड पीरियड लीव दिया जाना अनिवार्य किया जाए.

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हाल ही में स्‍पेन की संसद में एक बिल पास हुआ, जिसमें पूरे देश में महिलाओं को तीन दिन की पेड पीरियड लीव दिए जाने का प्रावधान है. पिछले साल मई में यह बिल पहली बार संसद में पेश किया गया था, जिसे लेकर काफी विरोध और हंगामा भी हुआ. लेकिन फिलहाल बिल पास होने के साथ स्‍पेन पेड पीरियड लीव देने वाला यूरोप का पहला देश बन गया है.  

यूरोप में, जहां 40 फीसदी देशों की कमान महिला लीडरों के हाथों में है, स्‍पेन के अलावा और किसी देश में महिलाओं को यह सुविधा नहीं मिलती. हालांकि दुनिया के कुछ देश ऐसे हैं, जहां पेड पीरियड लीव की सुविधा है, जैसेकि ब्रिटेन, चीन, जापान, ताइवान, साउथ कोरिया, इंडोनेशिया और जांबिया.

अबॉर्शन राइट से लेकर पेड पीरियड लीव तक महिलाओं के बुनियादी अधिकारों को सुनिश्चित करने वाला दुनिया का पहला देश था रूस, जहां 1920 में पहली बार महिला वर्करों के लिए पेड पीरियड लीव का प्रावधान किया गया.  लेकिन आज इन सारे पैरामीटर्स पर यह देश बहुत पिछड़ चुका है. भारत में 110 साल पहले मेंस्‍ट्रुअल लीव दिए जाने का एक छोटा सा वाकया मिलता है. इतिहासकार और मलयालम के लिटरेरी क्रिटीक पी. भास्‍कररुन्‍नी अपनी किताब ‘केरल इन नाइनटींथ सेंच्‍युरी’ में लिखते हैं कि एर्णाकुलम में एक स्‍कूल में महिला शिक्षकों और छात्राओं को पीरियड के दौरान छुट्टी दी जाती थी.

हालांकि पीरियड लीव का मांग और इसके गिर्द हो रही डिबेट नई नहीं है, लेकिन ये जानना काफी रोचक है कि पिछले एक दशक पहले तक पेड पीरियड लीव को लेकर चल रही डिबेट का केंद्रीय मुद्दा क्‍या है. यह मुद्दा महिलाओं की प्राकृतिक जरूरत का नहीं, बल्कि प्रोडक्टिविटी का था. तमाम अध्‍ययनों में यह अनुमान लगाया गया कि महिला कर्मचारियों को दो से तीन दिन की पेड लीव देने का कितना बोझ कंपनियों के सिर पर आएगा. इससे उनकी उत्‍पादकता पर क्‍या असर पड़ेगा और कुल मिलाकर नतीजा जीडीपी लॉस का होगा.

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2017 में बीएमजे ओपेन में एक नीदरलैंड की एक स्‍टडी छपी. तकरीबन बत्‍तीस हजार महिलाओं पर किया गया यह अध्‍ययन बता रहा था कि उस देश में 14 फीसदी महिलाएं पीरियड के दौरान काम से छुट्टी ले लेती हैं, लेकिन उनमें से 20 फीसदी छुट्टी लेने की वजह पीरियड नहीं, बल्कि बुखार, जुखाम या कोई और बीमारी बताती हैं. उस स्‍टडी का विषय भी यही था कि इस कारण प्रोडक्टिविटी का कितना नुकसान होता है, जिसका नकारात्‍मक असर देश की अर्थव्‍यवस्‍था पर पड़ता है.

स्‍पेन की संसद में पीरियड लीव को लेकर चली बहस तो बिलकुल ताजा मुद्दा है. बहुत मामूली मार्जिन से संसद में पास हुए इस बिल का विरोध कर रहे लोगों के लिए भी मुद्दा प्रोडक्टिविटी लॉस और जीडीपी का ही था. आज जहां उस देश की 40 फीसदी फीमेल आबादी सीधे आर्थिक उत्‍पादन के काम से जुड़ी हुई है, उन्‍हें तीन दिन की पेड लीव देने का अर्थ है 40 फीसदी उत्‍पादन का ठप्‍प हो जाना. इसका सीधा बोझ कंपनियों और सरकार के ऊपर पड़ेगा.


अगर आपको इस तर्क में थोड़ी भी तार्किकता नजर आने लगे तो याद रखिएगा कि महिलाओं को पेड मैटर्निटी लीव देने की बहस भी इन्‍हीं कुतर्कों की राह से होकर गुजरी है. मैटरनिटी लीव का सवाल ही पहली बार तब उठा, जब औद्योगीकरण के बाद जब बड़ी संख्‍या में महिलाएं घरों से निकलकर कंपनियों, कारखानों और फैक्ट्रियों में काम करने लगीं. तब फैक्ट्रियों के मालिक महिलाओं को पेड छुट्टी नहीं देते थे. जरूरतमंद महिलाएं कई आर प्रेग्‍नेंसी की आखिरी स्‍टेज तक और बच्‍चे के जन्‍म के तुरंत बाद काम पर लौट आती थीं. जितनी छुट्टी लेतीं, उतनी तंख्‍वाह कटती. 


आज दुनिया के 170 देशों में महिलाओं के लिए पेड मैटर्निटी लीव का कानून है (एक अमेरिका को छोड़कर), लेकिन यह अधिकार भी महिलाओं को एक लंबी कानूनी लड़ाई के बाद मिला. 29 नवंबर, 1919 को इंटरनेशनल लेबर ऑर्गेनाइजेशन ने मैटरनिटी प्रोटेक्‍शन कंन्‍वेंशन को स्‍वीकार किया, जिसके तहत महिलाओं को 12 हफ्ते की पेड मैटर्निटी लीव दिए जाने का प्रावधान किया गया. इस कानून के बनने की भी लंबी कहानी है, जिसमें मैरी एंडरसन, रोज श्‍लेजडरमैन, जेनी और तनाका ताका जैसी महिलाओं के संघर्ष का योगदान है. लेकिन वो कहानी फिर कभी.

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फिलहाल जैसे न्‍यूजीलैंड की फेमिनिस्‍ट इकोनॉमिस्‍ट और इन विमेन काउंटेड जैसी महान किताब लिखने वाली मैरिलिन वॉरिंग कहती हैं कि “जीडीपी में गणना तो महिलाओं के उस अनपेड लेबर की होनी चाहिए, जो वो प्रेम के नाम पर करती हैं.”

उस श्रम और उसकी कीमत को पूरी तरह नजरंदाज करके मैटर्निटी लीव और पीरियड लीव को जीडीपी के नुकसान में गिनने वाले अर्थशास्त्रियों और विश्‍लेषकों का गणित एक स्‍वार्थी और मिसोजेनिस्‍ट कैलकुलेशन पर टिका है, जिसका मकसद सिर्फ कुछ मुट्ठी भर लोगों के हितों की रक्षा करना है.


फिलहाल देखते हैं कि आज सुप्रीम कोर्ट में क्‍या होता है. उम्‍मीद की जानी चाहिए कि जो बात उठी है तो दूर तक जाए और लौटकर हर उस महिला तक आए, जो इस वक्‍त पीरियड्स में हैं और पेन किलर खाकर दफ्तर में काम कर रही है. इस वक्‍त आराम उसकी लक्‍जरी नहीं, बल्कि बुनियादी हक है.