105 पाउंड सैलरी के लिए दक्षिण अफ्रीका पहुंचे थे कोट-बूट वाले अंग्रेजीदां मोहनदास, 21 साल बाद हिंदुस्तान लौटे ‘महात्मा गांधी’
109 साल पहले 6 नवंबर को आज ही के दिन खदान श्रमिकों की लड़ाई का नेतृत्व करने के लिए गांधी को जेल में डाला गया था.
आज 6 नवंबर है. 109 साल पहले आज ही के दिन महात्मा गांधी को दक्षिण अफ्रीका में खदान श्रमिकों के एक मार्च का नेतृत्व करने के लिए वहां की ब्रिटिश सरकार ने गिरफ्तार कर लिया था. वह पहले से जेल में थे. मार्च वाले दिन जब उन्हें रिहा किया गया तो जेल से छूटते ही वह फिर से जाकर मार्च में शामिल हो गए. जेल से बाहर आए गांधी को अंग्रेजों ने फिर से पकड़कर जेल में डाल दिया. लड़ाई लंबी चली, कुर्बानियां भी दी गईं, लेकिन अंतत: फैसला गांधी के पक्ष में आया. जीत जनता की हुई.
दक्षिण अफ्रीका में गांधी का 21 साल लंबा सफर बहुत से महत्वपूर्ण पड़ावों और प्रेरक कहानियों से भरा पड़ा है. यही वो यात्रा थी, जिसने भारत की आजादी का नेतृत्व करने के लिए गांधी को तैयार किया था. जिसने उन्हें सत्य और अहिंसा के रास्ते, सत्याग्रह के रास्ते, श्रम के रास्ते और नैतिक मूल्यों के रास्ते अन्याय का मुकाबला करने के लिए तैयार किया था.
चलिए, यह कहानी शुरू से शुरू करते हैं.
105 पाउंड तंख्वाह के वादे पर इंग्लैंड से डरबन गया अंग्रेजीदां नौजवान
दक्षिण अफ्रीका के पूरब में हिंद महासागर के तट पर बसे शहर डरबन के बंदरगाह पर उस दिन एक जहाज रुका. अप्रैल का महीना था और साल था 1893. जहाज में एक 23 साल का दुबला-पतला, सांवला और शर्मीला सा काठियावाड़ी हिंदुस्तानी नौजवान सवार था, जो इंग्लैंड से वकालत की पढ़ाई कर दक्षिण अफ्रीका जा पहुंचा था.
काठियावाड़ के व्यापारी दादा अब्दुल्ला ने गांधी को बुलवा भेजा था, जिनका दक्षिण अफ्रीका में खासा फैला हुआ शिपिंग का व्यवसाय था. जोहान्सबर्ग में रह रहे दादा अब्दुल्ला के कजिन को एक वकील की जरूरत थी. गांधी ने पूछा कि तंख्वाह कितनी मिलेगी और 105 पाउंड (आज का 15,000 पाउंड) की तंख्वाह और यात्रा खर्च के वादे पर अप्रैल, 1893 में गांधी ये सोचकर दक्षिण अफ्रीका जा पहुंचे कि ज्यादा से ज्यादा एक साल की बात है.
उन्हें क्या पता था कि ये एक साल 21 साल में बदल जाएगा और ये देश उनके जीवन की समूची दिशा ही बदल देगा.
शुरू-शुरू में दक्षिण अफ्रीका पहुंचा 23 साल का नौजवान अपने रहन-सहन, बोली-भाषा और विचारों में पूरी तरह विलायती था. उसने विलायत से वकालत की पढ़ाई की थी, भाषा उसकी अंग्रेजी थी और पहनावा था कोट-पैंट.
पीटरमैरिट्सबर्ग स्टेशन की ठिठुरती शाम, शर्म और अपमान
दक्षिण अफ्रीका पहुंचे अभी दो महीने भी नहीं गुजरे थे कि वो घटना घटी. 7 जून, 1893 को गांधी ट्रेन में सफर कर रहे थे. उन्होंने फर्स्ट क्लास का टिकट खरीदा और बोगी में सवार हो गए. ट्रेन जब पीटरमैरिट्सबर्ग पहुंची तो दो अंग्रेज डिब्बे में आए और एक काले हिंदुस्तानी को फर्स्ट क्लास कंपार्टमेंट में सवार देख आग-बबूला हो गए. उन्होंने सामान समेत गांधी को प्लेटफॉर्म पर फेंक दिया.
उस रात वहां कड़ाके की ठंड में स्टेशन के वेटिंग रूम में इंतजार करते हुए गांधी सोच रहे थे कि उनके पास दो रास्ते हैं. या तो वो दादा अब्दुल्लाह के कॉन्ट्रैक्ट को खत्म करके हिंदुस्तान वापस लौट जाएं या वहीं उस देश में रहकर इस अन्याय और भेदभाव के खिलाफ संघर्ष करें. गांधी अपनी आत्मकथा में लिखते हैं, "नींद आने का सवाल ही नहीं उठता था. संदेह ने मेरे मन पर कब्जा कर लिया था. देर रात मैं इस नतीजे पर पहुंचा कि भारत वापस लौटना कायराना होगा. मैंने जो शुरू किया है, उसे मुझे पूरा करना चाहिए."
दक्षिण अफ्रीका में हर कदम पर नस्लीय भेदभाव का सामना
उस दिन ट्रेन में हुई वह घटना नस्लीय भेदभाव की पहली और इकलौती घटना नहीं थी. अपनी नस्लीय पहचान के कारण उन्हें स्टेजकोच में यूरोपीय यात्रियों के बराबर बैठने की इजाजत नहीं थी. उन्हें कोच में कुर्सी की जगह ड्राइवर के पास नीचे फर्श पर बैठने को कहा गया. जब उन्होंने ऐसा करने से इनकार किया तो उन्हें खूब पीटा. एक और घटना में एक अंग्रेज के घर के सामने से गुजरने पर गोरों ने उन्हें खूब पीटा और गटर में फेंक दिया. डरबन में हिंदुस्तानियों को फुटपाथ पर पैदल चलने की इजाजत नहीं थी. एक बार एक अंग्रेज पुलिस ऑफीसर ने गांधी को चेतावनी दिए बगैर फुटपाथ से धक्का देकर सड़क पर फेंक दिया था.
गांधी जब अफ्रीका गए थे तो खुद को पहले अंग्रेज और फिर हिंदुस्तानी समझते थे. लेकिन वहां उन्हें कदम-कदम पर जिस तरह भेदभाव और हिंसा का सामना करना पड़ा, उन्हें समझ में आया कि अंग्रेजी बोलने, विलायत से पढ़ने और एलीट क्लास का होने के बावजूद इस नस्लभेदी मुल्क में वे हाशिए पर हैं. उनकी सामाजिक स्थिति और अधिकार बराबर नहीं हैं.
भेदभावपूर्ण नागरिकता बिल के विरोध में शुरू हुई लड़ाई
दादा अब्दुल्लाह के जिस केस के सिलसिले में वे अफ्रीका गए थे, वो केस तो मई, 1894 में खत्म हो गया. लेकिन तभी दक्षिण अफ्रीका की अंग्रेज सरकार एक ऐसा बिल लेकर आई, जो हिंदुस्तानियों के साथ होने वाले भेदभाव को और गहरा करने वाला था. हिंदुस्तानियों की नागरिकता का अधिकार छीनने से लेकर उनके वोट के अधिकार तक को उस बिल में खत्म करने की बात की गई थी.
भारतीय उस बिल का विरोध कर रहे थे. गांधी ने भारत लौटने का विचार छोड़ दिया और वहीं रुककर उस बिल के खिलाफ भारतीयों की लड़ाई में शामिल हो गए. उन्होंने ब्रिटिश सेक्रेटरी जोसेफ चेंबरलेन को पत्र लिखकर और मिलकर इस बिल को वापस लेने की मांग की. चेंबरलेन नहीं माना. लंबा विरोध चला, हालांकि हिंदुस्तानियों का विरोध बिल के प्रस्तावों को बदल तो नहीं पाया, लेकिन इससे बदलाव की एक शुरुआत जरूर हो गई थी.
पहली बार दक्षिण अफ्रीका में रह रहे भारतीयों का गुस्सा, नाराजगी और उनके साथ विभिन्न स्तरों पर हो रहा भेदभाव मुखर होकर सतह पर आ गया था. भेदभाव पहले भी था और उसके खिलाफ क्रोध और नाराजगी भी. लेकिन वो नाराजगी कभी इतनी तीखी, साफ, मुखर और सामने नहीं थी.
1894 में गांधी और साथियों ने मिलकर नताल इंडियन कांग्रेस की स्थापना की. कांग्रेस के जरिए दक्षिण अफ्रीका में हिंदुस्तानियों की आवाज धीरे-धीरे बुलंद होने लगी.
जब गांधी के साथ भारत आई अफ्रीकी हिंदुस्तानियों की आवाज
दो साल बाद 1896 में गांधी कस्तूरबा बेन और बच्चों को अपने साथ अफ्रीका ले जाने के लिए हिंदुस्तान आए. उनकी इस यात्रा का मकसद दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों के साथ हो रहे अन्याय और भेदभाव की खबर यहां के नेताओं तक पहुंचाना और अपने लिए एक व्यापक जनमत तैयार करना भी था.
अपने राजकोट प्रवास के दौरान गांधी ने अप्रवासी हिंदुस्तानियों पर एक छोटी पुस्तिका लिखी और छपवाकर उसकी प्रतियां देश भर के समाचार पत्रों में भेज दीं. इस भारत यात्रा के दौरान उनकी मुलाकात उस समय के कुछ नेताओं जैसे बदरुद्दीन तैय्यब, सर फिरोजशाह मेहता, सुरेंद्रनाथ बेनर्जी, लोकमान्य जिलक और गोखले आदि से हुई. उन्हें बंबई में कुछ सार्वजनिक सभाओं को संबोधित करने के लिए बुलाया गया. एक बुलावा कलकत्ता से भी आया था, लेकिन वहां जाने से पहले ही दक्षिण अफ्रीका से आए एक तार को पढ़कर गांधी परिवार को लेकर तुरंत दक्षिण अफ्रीका रवाना हो गए.
दक्षिण अफ्रीका पहुंचते ही गांधी पर हुआ जानलेवा हमला
हिंदुस्तान में गांधी की राजनीतिक गतिविधियों की खबर उनके अफ्रीका पहुंचने से पहले ही पहुंच चुकी थी. नतीजा ये हुआ कि वहां पहुंचने पर वे जैसे ही वे जहाज से उतरे, उन पर गोरों की एक भीड़ ने हमला कर दिया. उन पर पत्थर फेंके गए और लात-घूसों से मारा गया. पुलिस सुपरिटेंडेंट की पत्नी के बचाव करने पर ही उस दिन उनकी जान बच पाई.
लेकिन गांधी ने किसी के खिलाफ कोई रिपोर्ट दर्ज करवाने से इनकार कर दिया. उन्होंने कहा कि उन लोगों को गुमराह किया गया है. जब उन्हें सच्चाई का पता चलेगा तो उन्हें खुद ही पश्चाताप होगा.
1899 में जब बोअर युद्ध छिड़ा तो गांधी का सहयोग और समर्थन बोअरों के साथ था, जो अपनी आजादी के लिए लड़ रहे थे. 1901 में युद्ध समाप्त होने के बाद वे हिंदुस्तान लौटना चाहते थे, लेकिन वहां रह रहे हिंदुस्तानी उन्हें आसानी से छोड़ने को राजी नहीं थे. उन्होंने इस वादे के साथ गांधी की हिंदुस्तानी वापसी को स्वीकारा कि कोई जरूरत पड़ने पर वो तुरंत वापस आएंगे.
जोसेफ चैम्बरलेन का आना और गांधी की दक्षिण अफ्रीका वापसी
गांधी वादा करके हिंदुस्तान लौट आए. ये वही वक्त था, जब उन्होंने बड़े पैमाने पर हिंदुस्तान के शहरों, गांवों की यात्रा की और इस देश की नब्ज को समझने की कोशिश की. गांधी यहां रहकर वकालत शुरू करना चाहते थे, लेकिन तभी अफ्रीका से बुलावा आ गया और उन्हें आनन-फानन में लौटना पड़ा.
गांधी को वापस बुलाने के लिए उनके नाम जो तार आया था, उसमें लिखा था- "जोसेफ चैम्बरलेन दक्षिण अफ्रीका आ रहे हैं, कृपया जल्द लौटें."
हिंदुस्तानियों के लिए चैम्बरलेन की नफरत और उसका नस्लीय रवैया किसी से छिपा नहीं था. चैम्बरलेन के वापस आने का मतलब था कि वहां भारतीयों के लिए और मुश्किलें खड़ी होने वाली थीं. गांधी इस बार जोहान्सबर्ग में ही टिक गए और वहां सुप्रीम कोर्ट में प्रैक्टिस करने लगे.
‘तोल्स्तोय फार्म’ की स्थापना और ब्रम्हचर्य का व्रत
दक्षिण अफ्रीका के इस प्रवास के दौरान गांधी में कुछ बड़े बदलाव आए. जोहान्सबर्ग में उन्होंने शहर से 20 मील दूर एक आश्रम की स्थापना की, जिसका नाम रखा- ‘तोल्स्तोय फार्म.’ यहां से श्रम, स्वराज और अपने लिए स्वयं उत्पादन करने का बुनियादी विचार उपजा. उन्होंने अपना कपड़ा खुद बुनना, खुद सिलना, अपना पाखाना खुद साफ करना जैसे नियमों का अनुपालन शुरू किया.
यही वक्त था, जब उन्होंने आजीवन ब्रम्हचर्य पालन का व्रत लिया. राजनीतिक मसलों पर गांधी से तमाम मतभेदों और असहमतियों के बावजूद गांधी के विरोधी भी उनकी इस आत्मचेतना, आत्मशुद्धि, श्रम और नैतिकता की अवधारणों और व्यावहारिक प्रयोगों की महत्ता को नकार नहीं पाते.
गोरों का काला कानून और हिंदुस्तानियों का आइडेंटिटी कार्ड
इसी दौरान ये हुआ कि ट्रांसवाल की सरकार ने एक नया कानून बनाने की घोषणा की, जिसके तहत आठ वर्ष से अधिक आयु के हर हिंदुस्तानी के लिए अपना पंजीकरण करवाना अनिवार्य कर दिया गया. उनकी उंगलियों के निशान वाला यह एक तरह का आइडेंटिटी कार्ड था, जिसे उन्हें हर वक्त अपने पास रखना जरूरी था और जिसके जरिए कहीं भी, कभी भी उनकी नस्लीय पहचान पूछी जा सकती थी.
गांधी ने हिंदुस्तानियों से अपील की कि वे इस कानून का विरोध करें और इसकी हर कीमत चुकाने को तैयार हो जाएं. चाहे कुछ भी हो, हम अपना पंजीकरण नहीं करवाएंगे. गांधी ने इस काले कानून के विरोध में सभाएं करना और जुलूस निकालना शुरू किया. जनवरी, 1908 में गांधीजी और उनके अन्य सत्याग्रही साथियों को अंग्रेज पुलिस ने गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया.
जेल में बंद गांधी ने जनरल स्मट्स ने झूठा वादा किया था कि वे इस काले कानून को वापस ले लेंगे और पंजीकरण की अनिवार्यता को खत्म कर देंगे. जब गांधी जेल से रिहा होकर जोहान्सबर्ग पहुंचे तो उन्हें पता चला कि बाकी सत्याग्रही अब भी जेल में बंद हैं और जनरल स्मट्स ने उनसे झूठ बोला था.
दक्षिण अफ्रीका की जेल में एक साल
16 अगस्त, 1908 को जोहान्सबर्ग में भारतीयों ने एक विशाल जनसभा का आयोजन किया, जहां इस काले कानून का विरोध करते हुए भारतीयों ने पंजीकरण प्रमाण पत्रों की होली जलाई. गांधी खुद अपना प्रमाण पत्र जलाने के लिए आगे बढ़े तो अंग्रेजों से उन्हें फिर से पकड़कर गिरफ्तार कर लिया. 10 अक्तूबर, 1908 को हुई इस गिरफ्तारी के बाद उन्हें एक साल के कठोर सश्रम कारावास की सजा सुनाई गई.
जेल में गांधी रोज प्रार्थना करते और अपने हाथों से श्रम करते. अगले छह साल गांधी के लिए दक्षिण अफ्रीका की अंग्रेज सरकार के भेदभावपूर्ण कानूनों के खिलाफ लंबी लड़ाई और लंबी जेल यात्राओं के साल थे. गांधी ने विद्रोह की जो अग्नि जलाई थी, अब वह दूर-दूर तक फैल चुकी थी और अफ्रीका में रह रहा कोई हिंदुस्तानी उसकी जद में आने से अछूता नहीं रहा था.
छह साल लंबे सत्याग्रह में हजारों लोग शामिल हुए, उन्होंने कुर्बानियां दी, पुलिस की लाठियां खाईं, गिरफ्तारियां हुईं. हिंदुस्तानियों से अंग्रेजों की जेलें पट गईं. लेकिन छह साल बाद जब गांधी वापस लौट रहे थे, तब तक अफ्रीका के नस्लभेदी काले कानूनों में ये बदलाव आ गए थे -
अंग्रेज सरकार के साथ हुए एक समझौते में ‘इंडियन रिलीफ एक्ट’ पास हुआ. इस कानून के मुताबिक भारतीय बिना इजाजत एक प्रांत से दूसरे प्रांत में तो नहीं जा सकते, लेकिन वहां जन्मे भारतीय केप कॉलोनी में जाकर रह सकते थे. इसके अलावा इस एक्ट में भारतीय रीति-रिवाज के विवाहों को वैध घोषित किया गया. कॉन्ट्रैक्ट लेबर्स पर से व्यक्ति कर हटा दिया गया और पुराना बकाया टैक्स रद्द कर दिया गया.
18 जुलाई, 1914 को जब गांधी कस्तूरबा गांधी के साथ हिंदुस्तान लौट रहे थे तो उन्होंने जनरल स्मट्स को अपने हाथों से बनाई चमड़े की चप्पलें भेंट कीं. अगले 33 साल गांधी ने अंग्रेजों से हिंदुस्तानी की आजादी की लड़ाई में अग्रणी भूमिका निभाई. जिन-जिन अंग्रेज अफसरों और नेताओं ने गांधी को मारा, जेल में डाला, प्रताडि़त किया था, वही बाद में उस शख्स की महानता के आगे नतमस्तक हुए.
जनरल स्मट्स ने कई साल बाद एक अखबार को दिए इंटरव्यू में कहा था, “गांधी ने जो चप्पलें बनाकर दी थीं, मैंने कई गर्मियों में उन चपलों को पहना है. हालांकि मुझे इस बात का एहसास है कि इतने महान व्यक्ति की मैं किसी भी प्रकार बराबरी नहीं कर सकता."
दक्षिण अफ्रीका में गांधी की विरासत
1947 में हिंदुस्तान के आजाद होने के बाद भी दक्षिण अफ्रीका में गोरों से अश्वेतों की आजादी की लड़ाई और 47 साल लंबी चली. 1994 में जब दक्षिण अफ्रीका में पहली बार जनरल इलेक्शंस हुए और अश्वेतों को वोट का अधिकार मिला, इस लड़ाई का बहुत सारा श्रेय गांधी को दिया गया. गांधी की स्मृति में जगह-जगह मॉन्यूमेंट बनाए गए, सभाएं हुईं.
जिस पीटरमैरिट्सबर्ग स्टेशन पर 1893 में दो अंग्रेजों ने गांधी को ट्रेन से नीचे फेंक दिया था, उसी स्टेशन के बाहर आज गांधी की बड़ी सी मूर्ति लगी है.
ये स्मारक उस घटना की स्मृति में है, जब 100 साल पहले 1893 को पीटरमैरिट्सबर्ग स्टेशन पर मोहनदास करमचंद गांधी को नस्लीय भेदभाव के चलते जबर्दस्ती ट्रेन से उतार दिया गया था. इन पंक्तियों के नीचे महात्मा गांधी का कथन है-
“और उस दिन से मेरी अहिंसा की लड़ाई की शुरुआत हुई.”