25 साल से संस्कृत पढ़ा रहे मुस्लिम कपल शरीफ़ ख़ान और शाहीन ज़ाफ़री
"धर्म और भाषा का सवाल गंभीर है । बीएचयू में फिरोज खान का विरोध ऐसी सियासत है, जो साझा संस्कृति का आखेट करने पर आमादा है। आज़मगढ़ के एक मुस्लिम दंपति अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय और शिबली नेशनल कॉलेज में दशकों से सिर्फ संस्कृत पढ़ा ही नहीं रहे, उनके गाइडेंस में तमाम छात्र पीएचडी कर चुके हैं।"
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय यानी बीएचयू में छात्रों ने फिरोज खान का विरोध इसलिए नहीं किया क्योंकि उन्होंने संस्कृत सीखी बल्कि इसलिए किया क्योंकि वह मुसलमान हैं। विरोध करने वाले संभवतः ये नहीं समझना चाहते हैं कि धर्म और भाषा का आपस में कोई लेना-देना नहीं है। बीएचयू में इसका विरोध सिर्फ राजनीति है, जो हमारी समरस, साझा संस्कृति का आखेट करने पर आमादा है। संस्कृत पढ़ाने के लिए डॉक्टर फ़िरोज ख़ान की नियुक्ति पर भले ही विवाद चल रहा हो, फ़िरोज़ ख़ान के अलावा भी देश के विभिन्न विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में तमाम मुस्लिम टीचर संस्कृत पढ़ा रहे हैं।
अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (एएमयू) में संस्कृत विभागाध्यक्ष प्रो. मोहम्मद शरीफ़ ढाई दशक से न सिर्फ़ संस्कृत पढ़ा रहे हैं बल्कि उनके अधीन कई मुस्लिम छात्र पीएचडी कर संस्कृत पढ़ा रहे हैं। प्रो. शरीफ़ की पत्नी डॉ शाहीन जाफ़री भी आज़मगढ़ के शिबली नेशनल कॉलेज में संस्कृत विभाग में असोसिएट प्रोफ़ेसर हैं।
शरीफ़ बताते हैं कि अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में तो उस ज़माने से संस्कृत पढ़ाई जा रही है, जब यह मुस्लिम एंग्लो ओरियंटल कॉलेज हुआ करता था। उस समय अन्य भाषाओं के छात्रों को सिर्फ़ एक रुपए की स्कॉलरशिप मिलती थी, जबकि संस्कृत पढ़ने वालों को दो रुपए। ऐसा इसलिए था कि मुस्लिम छात्रों में संस्कृत के प्रति रुझान बढ़े। एएमयू में इस समय संस्कृत विभाग में कुल नौ टीचर हैं, जिनमें दो मुस्लिम और सात ग़ैर मुस्लिम हैं। वह ख़ुद यहां वेद, पुराण, उपनिषद, व्याकरण और आधुनिक संस्कृत पढ़ाते हैं। जहां तक छात्रों का सवाल है तो ज़्यादातर छात्र हिन्दू ही होते हैं लेकिन मुस्लिम छात्रों की संख्या भी कम नहीं है। शरीफ के निर्देशन में अब तक 15 छात्र पीएचडी कर चुके हैं, जिनमें से चार मुस्लिम रहे हैं।
शरीफ़ ने इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से पढ़ाई की है, जहां उस वक़्त विभागाध्यक्ष रहीं डॉ नसरीन संस्कृत पढ़ाती थीं। अब वह इस दुनिया में नहीं रहीं। उनके घर में संस्कृत का कोई माहौल नहीं था लेकिन उनकी संस्कृत में शुरू से ही दिलचस्पी रही थी। प्रो.शरीफ कहते हैं कि वह मुसलमान हैं, सिर्फ़ इस वजह से, उनको न तो संस्कृत पढ़ने में कोई दिक़्क़त आई, न ही पढ़ाने में। वह इलाहाबाद विश्वविद्यालय में हमेशा अपने शिक्षकों के विशेष कृपा पात्र रहे तो सहपाठियों में भी उतने ही आत्मीय। उनको 1992 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से संस्कृत में पहली डीलिट की उपाधि मिली। उनकी पत्नी शाहीन की भी इलाहाबाद विश्वविद्यालय से ही पढ़ाई हुई है।
शाहीन बताती हैं कि उनके परिवार में सभी लोग उच्च शिक्षा प्राप्त रहे हैं। परिवार के लोग चाहते थे कि वह अर्थशास्त्र में उच्च शिक्षा लें लेकिन जब उन्होंने संस्कृत में एमए करने की इच्छा जताई तो कोहराम सा मच गया। आज उनके घर में गीता, रामायण, महाभारत, वेद, पुराण और हिंदू धर्मशास्त्रों की तमाम पुस्तकें हैं। संस्कृत ग्रंथों में ज्ञान का जैसा ख़ज़ाना है, अन्य किसी भी भाषा में नहीं है। संस्कृत सिर्फ मृत भाषा ही नहीं, बल्कि सबसे जीवंत भाषा है।
पत्रकार बिलाल एम. जाफ़री लिखते हैं कि इसे गंगा-जमुनी तहजीब का मामला समझने वाले लोगों को तो वे हिंदू गांव भी मिल गए हैं, जहां उर्दू के भरोसे लोगों को नौकरी मिली है। संस्कृत को हिंदुओं और उर्दू को मुसलमानों की भाषा मानने वाले यहीं गलती कर रहे हैं। बड़ी ही चतुराई के साथ धर्म को आधार बनाकर भाषा का बंटवारा कर दिया गया है। कहा जा रहा है कि संस्कृत और हिंदी हिंदुओं की भाषा है और उर्दू मुसलमानों की। अगर कोई ये कह दे कि संस्कृत हिंदुओं की है और उर्दू मुसलमानों की, तो फिर यहां कुछ और हो न हो, पॉलिटिक्स ज़रूर हो रही है। तिल का ताड़ कैसे बनता है, आज इसे फिरोज खान से बेहतर कौन समझ सकता है। वही फिरोज, जिसने खाने-कमाने के लिए एक ऐसी भाषा का चयन किया, जिसे कुछ लोग आज उसकी भाषा नहीं मनवाने पर आमादा हो उठे हैं।