आज रंग है. . . होली के सारे रंग और त्योहार की मस्ती को समेटती हुई लिखी गईं पांच शानदार रचनाएं
खेतों में लहलहाती हुई नई फसल. फसल देख मन में उल्लास. गांव से लेकर शहर तक उत्साह चरम पर. इस मार्च के महीने में गीत, संगीत और रंगों के साथ होली का त्यौहार.
होली कवियों का भी पसंदीदा त्योहार रहा है. उर्दू शायरों की ऐसी कई रचनाएँ मिलती हैं, जिनमें होली के सारे रंग और त्योहार की मस्ती को उभारा गया है. अमीर खुसरो, मीर, कुली कुतुबशाह, फ़ैज़ देहलवी, नज़ीर अकबराबादी, महजूर और आतिश जैसे कई महान कवियों ने होली पर कई शानदार रचनाएँ लिखी हैं. उत्तर भारत के कुछ ही कवि होंगे जिन्होंने होली के रंग की छटा पर कविताएं नहीं लिखी होंगी.
आइए पढ़ते हैं होली पर लिखी गईं कुछ रचनाएं:
हरिवंशराय बच्चन
तुम अपने रँग में रँग लो तो होली है
देखी मैंने बहुत दिनों तक
दुनिया की रंगीनी,
किंतु रही कोरी की कोरी
मेरी चादर झीनी,
तन के तार छूए बहुतों ने
मन का तार न भीगा,
तुम अपने रँग में रँग लो तो होली है.
नज़ीर अकबराबादी
हाँ इधर को भी ऐ गुंचादहन पिचकारी
देखें कैसी है तेरी रंगबिरंग पिचकारी
तेरी पिचकारी की तक़दीद में ऐ गुल हर सुबह
साथ ले निकले है सूरज की किरण पिचकारी
जिस पे हो रंग फिशाँ उसको बना देती है
सर से ले पाँव तलक रश्के चमन पिचकारी
बात कुछ बस की नहीं वर्ना तेरे हाथों में
अभी आ बैठें यहीं बनकर हम तंग पिचकारी
हो न हो दिल ही किसी आशिके शैदा का 'नज़ीर'
पहुँचा है हाथ में उसके बनकर पिचकारी
अमीर खुसरो
I.
हजरत ख्वाजा संग खेलिए धमाल
हजरत ख्वाजा संग खेलिए धमाल,
बाइस ख्वाजा मिल बन बन आयो
तामें हजरत रसूल साहब जमाल.
हजरत ख्वाजा संग…
अरब यार तेरो (तोरी) बसंत मनायो,
सदा रखिए लाल गुलाल
हजरत ख्वाजा संग खेलिए धमाल.
II.
आज रंग है ऐ माँ रंग है री,
मेरे महबूब के घर रंग है री
अरे अल्लाह तू है हर,
मेरे महबूब के घर रंग है री
मोहे पीर पायो निजामुद्दीन औलिया,
निजामुद्दीन औलिया-अलाउद्दीन औलिया
अलाउद्दीन औलिया, फरीदुद्दीन औलिया,
फरीदुद्दीन औलिया, कुताबुद्दीन औलिया
कुताबुद्दीन औलिया मोइनुद्दीन औलिया,
मुइनुद्दीन औलिया मुहैय्योद्दीन औलिया
आ मुहैय्योदीन औलिया, मुहैय्योदीन औलिया
वो तो जहाँ देखो मोरे संग है री
अरे ऐ री सखी री,
वो तो जहाँ देखो मोरो (बर) संग है री
मोहे पीर पायो निजामुद्दीन औलिया,
आहे, आहे आहे वा
मुँह माँगे बर संग है री,
वो तो मुँह माँगे बर संग है री
निजामुद्दीन औलिया जग उजियारो,
जग उजियारो जगत उजियारो
वो तो मुँह माँगे बर संग है री
मैं पीर पायो निजामुद्दीन औलिया
गंज शकर मोरे संग है री
मैं तो ऐसो रंग और नहीं देखयो सखी री
मैं तो ऐसी रंग देस-बदेस में ढूढ़ फिरी हूँ,
देस-बदेस में
आहे, आहे आहे वा,
ऐ गोरा रंग मन भायो निजामुद्दीन
मुँह माँगे बर संग है री
सजन मिलावरा इस आँगन मा
सजन, सजन तन सजन मिलावरा
इस आँगन में उस आँगन में
अरे इस आँगन में वो तो, उस आँगन में
अरे वो तो जहाँ देखो मोरे संग है री
आज रंग है ए माँ रंग है री
ऐ तोरा रंग मन भायो निजामुद्दीन
मैं तो तोरा रंग मन भायो निजामुद्दीन
मुँह माँगे बर संग है री
मैं तो ऐसो रंग और नहीं देखी सखी री
ऐ महबूबे इलाही मैं तो ऐसो रंग और नहीं देखी
देस विदेश में ढूँढ़ फिरी हूँ
आज रंग है ऐ माँ रंग है ही
मेरे महबूब के घर रंग है री
मैथिलीशरण गुप्त
जो कुछ होनी थी, सब होली!
धूल उड़ी या रंग उड़ा है,
हाथ रही अब कोरी झोली
आँखों में सरसों फूली है,
सजी टेसुओं की है टोली.
पीली पड़ी अपत, भारत-भू,
फिर भी नहीं तनिक तू डोली!
नामवर सिंह
फागुनी शाम
अंगूरी उजास
बतास में जंगली गंध का डूबना
ऐंठती पीर में
दूर, बराह-से
जंगलों के सुनसान का कूंथना.
बेघर बेपरवाह
दो राहियों का
नत शीश
न देखना, न पूछना
षशाल की पंक्तियों वाली
निचाट-सी राह में
घूमना घूमना घूमना.
Edited by Prerna Bhardwaj