आजाद भारत की पहली महिला कैबिनेट मिनिस्टर, जिन्होंने एम्स की स्थापना की
आजादी के साथ बंटवारे का दंश झेल रहा देश गरीबी, भुखमरी, अकाल और बीमारी की कगार पर था. ऐसे में देश की पहली स्वास्थ्य मंत्री का काम सबसे चुनौतीपूर्ण था.
15 अगस्त, 1947 को देश आजाद हुआ और पंडित जवाहरलाल नेहरू ने आजाद भारत के पहले प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ली. सत्ता हस्तांतरण को लेकर अंग्रेजों के साथ बातचीत पहले से चल रही थी. 2 सितंबर, 1946 को भारत की पहली अंतरिम सरकार का गठन हुआ था. नई गठित असेंबली में सबसे ज्यादा 69 फीसदी सीटें कांग्रेस को मिली थीं. इसके अलावा कुछ सीटें छोटी पार्टियों जैसे कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (सीपीआई), शेड्यूल कास्ट फेडरेशन और यूनियन पार्टी को भी मिली थीं.
नेहरू के नेतृत्व में देश के सभी हिस्सों, धर्मों, जातियों, संप्रदायों और जेंडर के प्रतिनिधित्व वाली यह समिति भविष्य के भारत की रूपरेखा तैयार कर रही थी. 15 अगस्त आजादी की तारीख तय पाई गई. नेहरू देश के पहले प्रधानमंत्री बनने वाले थे. वल्लभ भाई पटेल को उपप्रधानमंत्री का पद संभालना था. साथ ही इस पर विचार हो रहा था कि देश की पहली कैबिनेट का स्वरूप कैसा होगा.
जिस समता, स्वतंत्रता और स्वाभिमान की बुनियाद पर नया देश बन रहा था, नेहरू का मानना था कि इस देश में सभी को समान हिस्सेदारी और प्रतिनिधित्व मिलना चाहिए. यह सिर्फ किताबी विचार भर नहीं था. रोजमर्रा के व्यवहार और फैसलों में दिखाई दे रहा था. निर्माण की प्रक्रिया से गुजर रहे संविधान की रूपरेखा में परिलक्षित हो रहा था. आधुनिक भारत का निर्माण हो रहा था.
15 अगस्त,1947 की रात 200 सालों की लंबी गुलामी के बाद देश आजाद हुआ और आजाद मुल्क की पहली कैबिनेट का गठन हुआ. इस कैबिनेट में देश के सभी संप्रदायों और समुदायों के व्यक्तियों का प्रतिनिधित्व था. हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, सभी धर्मों के लोग कैबिनेट में शामिल किए गए थे. दो सदस्य दलित समुदाय से भी थे. देश की पहली कैबिनेट में एक महिला को भी स्थान दिया गया और इस तरह राजकुमारी अमृत कौर को देश की पहली कैबिनेट मंत्री बनने का गौरव हासिल हुआ. उन्होंने स्वास्थ्य मंत्री का पद संभाला था.
एक महिला को कैबिनेट में शामिल किया जाना महज इत्तेफाक नहीं था. एक सुविचारित फैसला था, जो इस समझ और दृष्टि से उपजा था कि आधुनिक लोकतांत्रिक मुल्क की इमारत स्त्री-पुरुष समता की नींव पर खड़ी होनी चाहिए. इस बात को अलग से रेखांकित किया जाना इसलिए जरूरी है कि भारत के साथ ही एक नए आजाद मुल्क बन रहे पाकिस्तान की कहानी ऐसी नहीं थी. मुहम्मद अली जिन्ना की पहली कैबिनेट और यहां तक कि पूरी असेंबली भी बॉयज क्लब थी, जिसमें एक भी महिला नहीं थी. दूसरी कैबिनेट और असेंबली की सूरत भी ऐसी ही रही. आखिरकार 1956 में पहली बार असेंबली में 10 सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित की गईं. पांच पूर्वी पाकिस्तान और पांच पश्चिमी पाकिस्तान के लिए. पाकिस्तान को पहली कैबिनेट मिनिस्टर आजादी के 38 साल बाद मिली. सन् 1985 में मुहम्मद खान जुनेजो की सरकार में बेगम कुलसुम सैफुल्ला खान स्टेट ऑफ कॉमर्स एंड पॉपुलेशन वेलफेयर मिनिस्टर बनीं.
दुनिया के सबसे ताकतवर देश अमेरिका की कहानी भी बहुत अलग नहीं है. लोकतंत्र की राह पर भारत से बहुत पहले कदम बढ़ाने वाले अमेरिका को पहली महिला कैबिनेट मिनिस्टर 1933 में मिली, जब फ्रैंकलिन रूसवेल्ट की सरकार में फ्रांसेस पर्किंन्स को लेबर मिनिस्ट्री का जिम्मा सौंपा गया. उस लिहाज से भारत अपने समय से बहुत आगे था. इस उपलब्धि को अलग से रेखांकित करने का अर्थ ये नहीं कि बाद में स्त्री समता और बराबरी की लड़ाई में दुनिया में अपने बहुत पीछे रह जाने को हम देखना भूल जाएं.
सिख पिता और ईसाई मां की बेटी अमृत
उनका जन्म 2 फरवरी, 1887 को उत्तर प्रदेश के लखनऊ में हुआ था. पिता राजा हरनाम सिंह अहलूवालिया कपूरथला के राजा रणणीर सिंह के छोटे बेटे थे. उत्तराधिकार को लेकर घर में हुए विवाद के चलते हरनाम सिंह ने पिता का घर छोड़ दिया और ईसाई हो गए. बाद में उन्होंने बंगाल के गोकुलनाथ चैटर्जी की बेटी प्रिसिला से शादी कर ली. गोकुलनाथ चैटर्जी बंगाल के मिशनरी थे और उन्हीं की प्रेरणा से हरनाम सिंह भी ईसाई हुए थे. हरनाम और प्रिसिला के 10 बच्चे हुए. 10 बच्चों में सबसे छोटी और इकलौती लड़की अमृत थी.
अमृत की पूरी परवरिश इसाई धर्म के प्रभाव में और अंग्रेज तौर-तरीकों से हुई थी. स्कूली शिक्षा इंग्लैंड के सेरबॉर्न स्कूल ऑफ गर्ल्स से हुई और कॉलेज की पढ़ाई ऑक्सफोर्ड से. 1918 में पढ़ाई पूरी कर अमृत हिंदुस्तान लौट आईं.
दौर आजादी की लड़ाई का
1918 में जब अमृत इंग्लैंड से लौटीं तो पाया की देश का माहौल इतने सालों में बहुत बदल गया था. चारों ओर आंदोलन की बयार थी और कोई उसके असर से अछूता नहीं था. पिता खुद कांग्रेस के करीबियों में थे. गोपालकृष्ण गोखले का घर आना-जाना था. 1919 में बंबई में महात्मा गांधी से उनकी मुलाकात हुई और मुलाकात का अमृत के मन पर बहुत गहरा असर पड़ा.
1919 में ही जलियांवाला बाग हत्याकांड हुआ. जलियांवाला की घटना एक तरह से अंग्रेजी राज के ताबूत की आखिरी कील साबित हुई. जिन लोगों का देश की आजादी के प्रति अब तक थोड़ा नर्म रुख था, वे भी अंग्रेजों के खिलाफ हो गए. अमृत कौर ने सबकुछ छोड़कर खुद को पूरी तरह आंदोलन में लगा देने का फैसला किया.
1930 में उन्होंने गांधी के साथ दांडी यात्रा की और अंग्रेजों ने उन्हें पकड़कर जेल में डाल दिया. 1934 में अमृत गांधी के आश्रम में जाकर रहने लगीं और पूरी तरह आश्रम की सादगीपूर्ण जीवन शैली अपना ली. 1937 में वे कांग्रेस की प्रतिनिधि के तौर पर शांति का संदेश लेकर खैबर-पख्तूनवाला गईं, जो अब पाकिस्तान का हिस्सा है. अंग्रेजों ने उन पर देशद्रोह का मुकदमा कर उन्हें जेल में डाल दिया. 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन में उनकी सक्रियता के चलते दोबारा अंग्रेजों ने उन्हें जेल भेज दिया. 1945 और 46 में लंदन में यूनेस्को की कॉन्फ्रेंस में उन्हें भारत के प्रतिनिधि के तौर पर भेजा गया.
गांधी और अमृत कौर का 29 साल लंबा साथ रहा. वे 16 साल तक गांधी की सेक्रेटरी रहीं. अमृत कौर को लिखे गांधी के पत्रों का एक संकलन भी प्रकाशित हुआ है- “लेटर्स टू अमृत कौर.” अंग्रेजी में लिखी उन चिट्ठियों में गांधी अमृत को डियर सिस्टर कहकर संबोधित करते हैं और हर चिट्ठी के अंत में लिखते हैं- लव, बापू. उन चिट्ठियों में वो कभी अंगूर और रसबेरियां भिजवाने के लिए उनका शुक्रिया अदा करते हैं तो कभी आंदोलन से जुड़ी गंभीर सियासी चर्चाएं. 1919 में शुरू हुआ उन दोनों का यह जुड़ाव वक्त के साथ और प्रगाढ़ होता गया था.
आजाद भारत की पहली स्वास्थ्य मंत्री
पहली कैबिनेट में जो मंत्रालय अमृत कौर को सौंपा गया था, उसका काम कोई कम चुनौतीपूर्ण नहीं था. बंटवारे ने पूरे देश में गरीबी, भुखमरी, अकाल और बीमारी के जो हालात पैदा किए थे, उससे निपटना देश के सामने सबसे बड़ी चुनौती थी. प्लेग, टीबी, मलेरिया फैलता रहता था और सैकड़ों लोगों की जान ले लेता. भारत 200 सालों की गुलामी से बाहर निकला था. हमारे पास इतने संसाधन नहीं थे. ऐसे में जरूरत थी गहरी लगन, निष्ठा और प्रेरणाशक्ति की.
अमृत कौर को स्वास्थ्य मंत्री बनाने का फैसला कितना सही साबित हुआ, इसका आंकलन इस बात से होता है कि अगले दस सालों में देश की स्वास्थ्य सेवाओं में अभूतपूर्व विकास हुआ, बीमारियों में कमी आई. मलेरिया के खिलाफ उनके चलाए अभियान का नतीजा यह हुआ कि इस जानलेवा बीमारी का जड़ से सफाया हो गया. अमृत कौर के नेतृत्व में ट्यूबरकुलोसिस के खिलाफ दुनिया का सबसे बड़ा वैक्सीनेशन कैंपेन भारत में चलाया गया.
1956 में उन्होंने लोकसभा में एक बिल पेश किया, जो भारत के पहले एम्स की स्थापना की रुपरेखा थी. यह बेहद महत्वाकांक्षी योजना थी. भारत के पास इतना पैसा नहीं था कि वह इतने एडवांस और विशालकाय मेडिकल इंस्टीट्यूट बनाने के बारे में सोचता. लेकिन अमृत कौर की बातों और इरादों में इतनी मजबूती थी कि सबको ये यकीन करना पड़ा कि हम चाह लेंगे तो एम्स बनाने में कामयाब होंगे. बिल पास हो गया. इस संस्थान के निर्माण के लिए अमृत कौर ने घूम-घूमकर चंदा जमा किया. कहां-कहां से पैसा नहीं आया. न्यूजीलैंड, स्वीडन, अमेरिका, वेस्ट जर्मनी, हर जगह से वो फंड जुटाने में कामयाब रहीं. और इस तरह भारत के पहले एम्स (ऑल इंडिया इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज) की स्थापना हुई.
हिमाचल प्रदेश में उनकी पैतृक संपत्ति और घर था, जिसने उन्होंने एम्स को दान कर दिया. वहां एम्स के डॉक्टरों, नर्सों और वहां काम करने वाले कर्मचारियों के लिए हॉलीडे होम बनाया गया.
एम्स के अलावा इंडियन काउंसिल ऑफ चाइल्ड वेलफेयर की स्थापना में अमृत कौर की ऐतिहासिक भूमिका है. कौर 14 सालों तक भारत की रेड क्रॉस सोसायटी की अध्यक्ष रहीं. उन्होंने अमृत कौर कॉलेज ऑफ नर्सिंग और नेशनल स्पोर्ट्स क्लब ऑफ इंडिया की शुरुआत की थी. 1947 में टाइम मैगजीन ने उन्हें अपने मुखपृष्ठ पर प्रकाशित किया और वुमन ऑफ द ईयर के खिताब से नवाजा.
1964 में अमृत कौर की मृत्यु हुई. उन्होंने कभी विवाह नहीं किया. उनकी कोई संतान नहीं थी. उन्होंने अपना सारा जीवन पहले देश की आजादी और फिर आजाद भारत को आत्मनिर्भर बनाने में समर्पित कर दिया.