रोहिंग्या संकट: क्या भारत के पास कोई शरणार्थी कानून है?
पिछले कई दशकों से भारत में रह रहे रोहिंग्या मुसलमानों का मुद्दा बीते बुधवार को एक फिर से चर्चा में आ गया. एक तरफ जहां शहरी मामलों के केंद्रीय मंत्री हरदीप सिंह पुरी ने दिल्ली के शरणार्थी कैंप में रहने वाले 1100 रोहिंग्याओं को आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों (ईडब्ल्यूएस) के लिए बने फ्लैट में बसाने की घोषण
पिछले कई दशकों से भारत में रह रहे रोहिंग्या मुसलमानों का मुद्दा बीते बुधवार को एक फिर से चर्चा में आ गया. एक तरफ जहां शहरी मामलों के केंद्रीय मंत्री हरदीप सिंह पुरी ने दिल्ली के शरणार्थी कैंप में रहने वाले 1100 रोहिंग्याओं को आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों (ईडब्ल्यूएस) के लिए बने फ्लैट में बसाने की घोषणा की तो केंद्रीय गृह मंत्रालय ने इससे साफ इनकार कर दिया और उनके कैंप को ही डिटेंशन सेंटर बनाने की बात कही.
बता दें कि, पिछले कई दशकों से म्यांमार में हिंसा और जातीय नरसंहार का सामना करने वाले रोहिंग्या मुसलमान भारत के अलग-अलग हिस्सों में रह रहे हैं. साल 2017 में जातीय नरसंहार का सामना करने बाद 7 लाख से भी अधिक रोहिंग्या मुसलमानों को एक बार फिर अपना घर छोड़ना पड़ा.
इस समय करीब 10 लाख रोहिंग्या मुसलमान दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में रहे हैं. इसमें सबसे अधिक 9 लाख 19 हजार रोहिंग्या बांग्लादेश के कॉक्स बाजार में रह रहे हैं. थाईलैंड में 92 हजार जबकि भारत में 21 हजार और बाकी नेपाल और अन्य एशियाई देशों में शरण लिए हुए हैं.
हालांकि, भारत सरकार का मानना है कि भारत में 40 हजार रोहिंग्या हैं, जिसमें से अधिक जम्मू और उसके आस-पास बसे हैं. 1100 रोहिंग्या दिल्ली में हैं जबकि कुछ हरियाणा में बसे हैं. देश में 16 हजार रोहिंग्याओं के पास संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग (UNHCR) का आईडी कार्ड है.
साल 2017 में म्यांमार के रखाइन प्रांत में जातीय नरंसहार के बाद बड़ी संख्या में रोहिंग्या शरणार्थियों के देश में शरण मांगने को देखते हुए भारत सरकार उन्हें वापस भेजना चाहती है. सुप्रीम कोर्ट में इस संबंध में कई याचिकाएं लंबित हैं.
UN के आंकड़ों के अनुसार, भारत में 2 लाख 13 हजार शरणार्थियों रहते हैं. इसमें तिब्बत, बांग्लादेश, श्रीलंका, पाकिस्तान, अफगानिस्तान और म्यांमार के नागरिक संघर्ष और युद्ध पीड़ित शामिल हैं.
ऐसे में यह समझना जरूरी हो जाता है कि 1947 में आजादी मिलने और भारत-पाकिस्तान के बंटवारे के बाद दुनिया के इतिहास में सबसे बड़े शरणार्थी संकट झेलने वाले देशों में से एक भारत के पास शरणार्थी पॉलिसी है भी या नहीं? अगर है तो क्या है और नहीं है तो क्यों नहीं है?
बता दें कि, भारत-पाकिस्तान विभाजन के दौरान हुई हिंसा में करीब 10 लाख लोग मारे गए और करीब 1.45 करोड़ शरणार्थियों ने अपना घर-बार छोड़कर बहुमत सम्प्रदाय वाले देश में शरण लेने के लिए मजबूर होना पड़ा.
भारत की शरणार्थी पॉलिसी क्या है?
एक धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक देश के रूप में भारत ने शुरू से ही अपने पड़ोसी देशों में हिंसा और प्रताड़ना के शिकार लोगों को शरण देता रहा है. लेकिन सच्चाई यह है कि भारत के पास अपनी कोई शरणार्थी पॉलिसी नहीं है.
यही नहीं, भारत ने अब तक 1951 की संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी संधि और 1967 के उस प्रोटोकॉल पर हस्ताक्षर नहीं किए हैं, जो शरणार्थियों की रक्षा करने के लिए राष्ट्रों की कानूनी बाध्यता को परिभाषित करते हैं. 1951 की शरणार्थी संधि और इसके 1967 के प्रोटोकॉल के तहत शरणार्थियों के पास दो व्यापक अधिकार होते हैं. उनके पास दूसरे देश में शरण लेने का अधिकार होता है और उस देश में वापस न जाने का अधिकार होता है जहां उन्हें अपने जीवन के लिए खतरा महसूस होता है.
भारतीय कानून के तहत 'विदेशियों' और 'शरणार्थियों' के बीच कोई भेद नहीं किया गया है. 1946 का विदेशी अधिनियम, 1967 का पासपोर्ट अधिनियम, 1962 का प्रत्यर्पण अधिनियम, 1955 का नागरिकता अधिनियम (2019 में संशोधित) और अवैध प्रवासी (न्यायाधिकरण द्वारा निर्धारण) अधिनियम 1983 दोनों पर लागू होने वाले कुछ कानून हैं.
भारत सरकार की कोई शरणार्थी पॉलिसी नहीं होने के कारण शरणार्थियों के साथ सरकार अपने स्तर पर मनमाने तरीके से डील करती है. भारत सरकार चाहे तो शरणार्थी को सुरक्षा मुहैया कराए और चाहे तो उन्हें जेल में भेज सकती है. यहां तक की सरकार शरणार्थियों को वापस उनके देश में भी भेज सकती है. यह सब कुछ सत्ता में रहने वाली सरकारों की राजनीतिक विचारधारा से तय होता है.
मौजूदा भाजपा शासित केंद्र सरकार साल 2019 में नागरिकता संशोधन कानून लेकर आई थी जिसके तहत पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफगानिस्तान से 31 दिसम्बर, 2014 से पहले भारत आए हुए हिन्दू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी, ईसाई को भारत की नागरिकता देने की व्यवस्था की गयी है. हालांकि, सरकार ने अपनी विचारधारा के कारण मुस्लिमों को इससे बाहर कर दिया. इस कानून की देश के लेकर विदेश तक आलोचना हुई. देश में इसके खिलाफ बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन भी हुए.
शशि थरूर लेकर आए थे बिल, नहीं हुआ पास
कांग्रेस सांसद शशि थरूर ने इस साल फरवरी में संसद के विंटर सेशन के दौरान शरणार्थियों तथा शरण की तलाश करने वालों को प्रभावी कानूनी रूपरेखा के माध्यम से सुरक्षा प्रदान करने के प्रावधान वाला ‘शरण स्थल विधेयक, 2021’ (Asylum Bill, 2021) नामक गैर-सरकारी विधेयक (प्राइवेट मेंबर बिल) लोकसभा में पेश किया था.
इसमें कानूनी ढांचे के तहत शरणार्थियों और शरण मांगने वालों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए एक प्रभावी प्रणाली स्थापित करने का प्रस्ताव किया गया था.
इसमें शरणार्थियों से संबंधित वर्तमान नीति, संवैधानिक सिद्धांतों और भारत के अंतरराष्ट्रीय दायित्वों को शामिल करने की बात कही गई है.
विधेयक के प्रस्तावों के अनुसार, इसमें शरण मांगने वालों को शरणार्थी के रूप में मान्यता देने में स्पष्टता और एकरूपता लाने की बात कही गई थी. इसमें सिस्टम में मौजूद खामियों एवं एकाधिकार को समाप्त करने का भी उल्लेख किया गया था.
विधेयक में शरणार्थियों को अधिक जवाबदेही के साथ व्यवस्थित करने पर जोर दिया गया था. इसके साथ ही मानवीय चिंताओं एवं देश के सुरक्षा हितों के बीच संतुलन बनाने की भी बात कही गई थी. इसमें रोहिंग्या मुद्दे का भी उल्लेख किया गया था. हालांकि, एक निजी विधेयक होने और संसद सदस्यों का बहुमत समर्थन नहीं मिलने के कारण यह विधेयक पास नहीं हो सका.