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कहानी गणितज्ञ रामानुजन की, जिन्‍होंने सैकड़ों साल पुराने गणितीय रहस्‍य सुलझाए

देह से कमजोर, तपेदिक के मरीज और महज 32 साल की उम्र में दुनिया छोड़ देने वाले श्रीनिवास रामानुजन.

कहानी गणितज्ञ रामानुजन की, जिन्‍होंने सैकड़ों साल पुराने गणितीय रहस्‍य सुलझाए

Thursday December 22, 2022 , 5 min Read

आज उस शख्‍स की जयंती है, जिसे भारतीय उपहाद्वीप में जन्‍मे सदी के सबसे महान गणितज्ञ के रूप में जाना जाता है. उनका नाम था श्रीनिवास रामानुजन. 11 दिसंबर, 1887 को तमिलनाडु के कोयंबटूर के पास एक गांव इरोड में जन्‍मे. गणित छोड़ बाकी सब विषयों में फेल होने के कारण स्‍कूल से निष्‍कासित किए गए. देह से कमजोर, तपेदिक के मरीज और महज 32 साल की उम्र में दुनिया छोड़ देने वाले श्रीनिवास रामानुजन.

जिनका जीवन इतनी गरीबी में गुजरा कि गणित की समस्‍याएं हल करने के लिए उनके पास पर्याप्‍त कागज भी नहीं होते थे. वो स्‍लेट पर चॉक से अपने गणितीय रहस्‍य सुलझाते और पोंछने के लिए कपड़ा उठाने और पोंछने का इंतजार करने की बजाय जल्‍दबाजी में अपनी कोहनी से ही स्‍लेट को साफ करते रहते. ऐसा करने के कारण उनकी कोहनी एकदम काली पड़ गई थी.  

रामानुजन की कहानी के बहुत सारे हिस्‍से हैं. कैसे एक छोटे से गांव के बेहद गरीब परिवार में जन्‍मा ये लड़का बचपन से ही जीनियस था. घर की दीवारों और दरवाजों से लेकर, दुआरे के चबूतरे और स्‍कूल की हरेक ब्‍लैकबोर्ड तक पर हर वक्‍त गणित के सवाल हल करता रहता था. वो विज्ञान, इतिहास, अंग्रेजी और भूगोल की कक्षा में भी सिर्फ गणित ही पढ़ता रहता था.

हाईस्‍कूल में गणित और अंग्रेजी में अच्‍छे अंक मिले थे तो स्‍कॉलरशिप भी मिल गई. लेकिन फिर बारहवीं में पहुंचने तक गणित के प्रति दीवानगी ऐसी बढ़ी कि बाकी विषय उन्‍होंने पढ़ना ही छोड़ दिया. नतीजा ये हुआ कि गणित छोड़ बाकी हर विषय में फेल हो गए. स्‍कॉलरशिप मिलनी बंद हो गई. परिवार के पास इतने पैसे नहीं थे कि जीनियस बेटे को अपने दम पर पढ़ा पाते. प्राइवेट परीक्षा दिलवाने की कोशिश हुई तो वहां भी गणित छोड़ बाकी हर विषय में फेल हो गए.

रामानुजन की जिंदगी का वो पूरा दौर बहुत तकलीफों और संघर्षों भरा था. पांच रुपए महीना में गणित का ट्यूशन पढ़ाकर वो अपना खर्चा चलाते. तभी विवाह हो गया. नौकरी करनी चाही तो नौकरी मिली नहीं क्‍योंकि वो तो बाहरवीं पास भी नहीं थे.

रामानुजन की जिंदगी में जो भी मददगार हुए, उनसे उनकी मुलाकात इत्‍तेफाकन ही थी. ऐसा ही इत्‍तेफाक था कुंभकोणम के डिप्टी कलेक्टर श्री वी. रामास्वामी अय्यर से मुलाकात. अय्यर खुद गणित के विद्वान थे. उन्‍होंने रामानुजन की प्रतिभा को पहचाना और उनके लिए 25 रुपए महीना की स्‍कॉलरशिप बंधवा दी. उसी पैसे से उन्‍होंने अपना पहला रिसर्च पेपर पढ़ा.

ये वही रिसर्च पेपर था, जिसे लंदन के कैंब्रिज के प्रोफेसर ने पढ़ा था. ये रिसर्च पेपर रामानुजन के कैंब्रिज जाने की राह बना.

उस प्रोफेसर का नाम था जी.एच. हार्डी. अपने समय के नामी गणितज्ञ, कैंब्रिज में गणित के प्रोफेसर.  

srinivasa ramanujan: a real genius known for his unique mathematical brilliance

रामानुजन की कहानी में प्रो. हार्डी वैसे ही हैं, जैसे किसी पेड़ की कहानी में मिट्टी होती है. हार्डी के बगैर रामानुजन की कहानी वो नहीं होती, जो हुई. एक मंजे हुए जौहरी की तरह हार्डी ने दूर लंदन में बैठकर हिंदुस्‍तान के एक छोटे से गांव में गणितीय रहस्‍यों को सुलझा रहे इस जीनियस की प्रतिभा को पहचान लिया था.

रामानुजन और हार्डी के बीच लंबा पत्र-व्‍यवहार हुआ. अपने उन पत्रों में रामानुजन प्रो. हार्डी को अपने गणितीय समीकरण भेजते. उन्‍हें पढ़कर प्रो. हार्डी हैरान थे कि गणित की जिन समस्‍याओं को सुलझाने में इस वक्‍त दुनिया के तमाम महान गणितज्ञ लगे हुए हैं, उन्‍हें बिना किसी संसाधन और सहयोग के काम कर रहा यह गुमनाम सा शख्‍स कैसे इतनी सरलता से समझ ले रहा है. दोनों के बीच लंबी खतो-किताबत हुई.

प्रो. हार्डी ने रामानुजन को कैंब्रिज आने का न्‍यौता भेजा. रामानुजन ने इनकार कर दिया क्‍योंकि उनके पास आने के पैसे नहीं थे. प्रो. हार्डी ने उन्‍हें आर्थिक सहायता भेजी, उनके लिए स्‍कॉलरशिप की व्‍यवस्‍था की और इस तरह रामानुजन कैंब्रिज पहुंच गए.

एक और लड़ाई है, जो प्रो. हार्डी ने कैंब्रिज में रामानुजन के लिए लड़ी थी. वो थी उन्‍हें रॉयल सोसायटी फेलो बनाने की लड़ाई. रामानुजन की आर्थिक स्थिति अच्‍छी नहीं थी. उन्‍हें न सिर्फ उस फेलोशिप की सबसे ज्‍यादा जरूरत थी, बल्कि वो उसके सबसे काबिल हकदार भी थे. लेकिन वो समय दूसरा था.

भारत अंग्रेजों का गुलाम था. भारतीयों को गोरी चमड़ी वाले वैसे भी हेय नजर से ही देखते थे. कैंब्रिज के सारे गोरे प्रोफेसरों को लगता था कि उनकी सबसे प्रतिष्ठित स्‍कॉलरशिप का हकदार कोई अंग्रेज ही हो सकता है. रामानुजन को यह स्‍कॉलरशिप देने का अर्थ अपने बच्‍चों के साथ नाइंसाफी करना होगा.

लेकिन प्रो. हार्डी रामानुजन के लिए पूरे कैंब्रिज से लड़ गए. सारे प्रोफेसर्स एक तरफ और प्रो. हार्डी एक तरफ. अंत में जीत उन्‍हीं की हुई. रॉयल सोसायटी के इतिहास में यह अब तक नहीं हुआ था. हालांकि आज तक भी इतनी कम उम्र में किसी व्‍यक्ति को इस सोसायटी की सदस्‍यता नहीं मिली.   रॉयल सोसायटी के बाद रामानुजन ट्रिनिटी कॉलेज की फेलोशिप पाने वाले भी पहले भारतीय भी बने. 

जब सब ठीक हो रहा था, जब दुनिया रामानुजन का नाम जानने लगी थी, रामानुजन महज 33 साल की उम्र में दुनिया से रुखसत हो गए. लेकिन अपने पीछे छोड़ गए वो सैकड़ों पन्‍ने, जिनमें गणित के असंभव समीकरण थे. जो बाद में महान गणितीय खोजों की आधारशिला बने.

कैम्ब्रिज के ट्रिनिटी कॉलेज की लाइब्रेरी के किसी कोने में वो पेपर 50 साल तक पड़े धूल खाते रहे. काले रंग की स्याही से और बहुत हड़बड़ी में लिखे गए उन रहस्यमयी गणितीय समीकरणों वाले 130 पन्नों पर 1976 में पेनिसिल्‍वेनिया स्टेट यूनिवर्सिटी के गणितज्ञ डॉ. जॉर्ज एंड्रयूज की नजर पड़ी.

बहुत सालों बाद जब उन गणितीय रहस्यों का खुलासा हुआ तो पूरी दुनिया हैरान रह गई. उसके बारे में ही भौतिक विज्ञानी फ्रीमैन डायसन ने एक बार कहा था, "ये फूल रामानुजन के बगीचे में बो बीजों से उगे हैं."


Edited by Manisha Pandey