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पानीपत की दूसरी लड़ाई, जिसने अगले 300 सालों के लिए हिंदुस्‍तान में मुगल शासन की नींव रखी

पानीपत का ऐतिहासिक मैदान तीन बड़े युद्धों का गवाह है, जिसने हिंदुस्‍तान की तकदीर बदल दी.

पानीपत की दूसरी लड़ाई, जिसने अगले 300 सालों के लिए हिंदुस्‍तान में मुगल शासन की नींव रखी

Saturday November 05, 2022 , 8 min Read

देश की राजधानी दिल्‍ली से 90 किलोमीटर दूर उत्‍तर में शेरशाह सूरी मार्ग (NH 1) पर वो दो हजार साल पुराना शहर है, जो भारतीय इतिहास की नियति बदल देने वाली तीन ऐतिहासिक लड़ाइयों का गवाह रहा है. जहां दो बार मुगलों ने हिंदू शासकों को हराकर दिल्‍ली से लेकर बंगाल तक हिंदुस्‍तान में अपने तख्‍त को महफूज कर लिया.

जिस पानीपत के मैदान में 1526 में इब्राहिम लोदी को परास्‍त कर मुगल शासक बाबर ने दिल्‍ली के तख्‍त पर कब्‍जा किया था, उसी पानीपत के मैदान में 30 साल बाद 5 नवंबर, 1556 को अकबर की सेना ने हेमचंद्र विक्रमादित्‍य (लोकप्रिय नाम- हेमू) को युद्ध के मैदान में परास्‍त कर न सिर्फ एक बार फिर दिल्‍ली का किला जीत लिया था, बल्कि इस बार मुगल हिंदुस्‍तान पर अगले 300 सालों तक राज करने वाले थे.

पानीपत की दूसरी लड़ाई इस लिहाज से ऐतिहासिक रही कि इसने भारत में मुगल शासन की जड़ें लंबे समय के लिए स्‍थापित कर दी थीं, जिसका अंत 1857 में अंतिम मुगल शासक बहादुरशाह जफर के साथ ही हुआ.

आज 5 नवंबर है. पानीपत की दूसरी लड़ाई को 466 साल बीत चुके हैं, लेकिन इतिहास के उन पन्‍नों से गुजरते हुए एक अजीब सी सिहरन सी महसूस होती है. अपने इतिहास को पलटकर देखना उस यात्रा को लौटकर देखने की तरह है, जिसका हमारी मंजिल में साझा है, जिससे गुजरकर हम यहां तक पहुंचे.

हुमायूं की मौत और 13 बरस के अकबर की ताजपोशी

दिल्‍ली के तख्‍त पर तब हुमायूं का शासन था. 24 जनवरी, 1556 को हुमायूं का निधन हो गया और गद्दी मिली उसके बेटे अकबर को. मुगल शासन की सरहदें तब काबुल और कंधार से लेकर सिर्फ दिल्ली तक थीं. हिंदुस्‍तान का बाकी हिस्‍सा अब भी मुगल साम्राज्‍य की सरहदों से बाहर था.

ताजपोशी के समय अकबर की उम्र सिर्फ 13 साल थी. 48 साल की उम्र में नशे की हालत में अपने महल की सीढि़यों से गिरने के कारण हुमायूं की मौत अचानक ही हुई थी. दिल्‍ली पर हुमायूं का शासन था, लेकिन आसपास की रियासतों से सत्‍ता की लड़ाई भी जारी थी. सिकंदर शाह सूरी के साथ युद्ध चल ही रहा था. राज्‍य में अशांति की स्थिति को देखते हुए कुछ समय तक हुमायूं की मौत की खबर को छिपाकर रखा गया और इस बीच अकबर को उत्‍तराधिकारी बनाने की तैयारियां चलती रहीं.

14 फरवरी को पंजाब के कलानौर में अकबर का राज्याभिषेक हुआ. अकबर उम्र में छोटा था और युद्ध के मैदान से लेकर सियासत के दांव-पेंच सीख ही रहा था. अकबर को सलाह देने और उसकी रक्षा का दायित्‍व बैरम खां के कंधों पर था, जो वयस्‍क होने तक अकबर के साथ ही रहा.  

हुमायूं की मौत और हेमू के बुलंद इरादे

जनवरी, 1556 में जब हुमायूं की मौत की खबर आई तो उस वक्‍त हेमू बंगाल में था. अभी-अभी उसने बंगाल के शासक मुहम्‍मद शाह को मारकर बंगाल जीत लिया था. उसकी महत्‍वाकांक्षाएं और अभी-अभी मिली सफलता से उसके हौसले बुलंद थे. हुमायूं के मरने की खबर सुनते ही उसने अपनी सेना को दिल्‍ली की तरफ कूच का आदेश दिया. उसे यकीन था कि अब मुगलों को हराकर दिल्‍ली के तख्‍त पर काबिज होना आसान है.

बंगाल से दिल्‍ली के रास्‍ते में कई युद्ध लड़ते और जीतते हुए हेमू की सेना पानीपत की ओर बढ़ रही थी. आगरे की लड़ाई में तो मुगल सेना बिना लड़े ही भाग खड़ी हुई. इटावा, कालपी, ग्‍वालियर, आगरा सब पर कब्‍जा जमाते हुए हेमू की सेना बढ़ी जा रही थी. 6 अक्‍तूबर को तुगलकाबाद के पास हेमू की सेना ने 3000 मुगल सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया और दिल्‍ली पर कब्‍जा कर लिया. दिल्‍ली के पुराने किले में बड़ी धूम-धाम के साथ हेमू का राज्‍याभिषेक हुआ, लेकिन तब उसे भनक भी नहीं था कि इस गद्दी पर वो सिर्फ एक महीने का मेहमान है.

हेमू के इरादे तो कुछ ऐसे थे कि दिल्‍ली के बाद वो अपनी सेना लेकर काबुल जाने वाला था, जहां 13 साल के अकबर को हराकर अपने साम्राज्‍य का परचम काबुल तक फैलाने का इरादा रखता था. कूच की तैयारियां जोरों पर थीं.

मुगल सेना के पस्‍त हौसले और काबुल लौट जाने की सलाहें

वहीं अकबर बैरम खां के सहयोग और संरक्षण में कुछ और ही मंसूबे बांध रहा था. दिल्‍ली और आगरा हाथ से निकल जाने के बाद मुगल सेना के इरादे पस्‍त थे. सबका मशविरा था कि दिल्‍ली के तख्‍त का ख्‍वाब छोड़ काबुल लौट जाया जाए. लेकिन बैरम खां ने इनकार कर दिया.

अकबर के दरबारी लेखक अबुल फ़ज़ल इब्‍न मुबारक की किताब ‘अकबरनामा’ में एक पूरा अध्‍याय उस कश्‍मकश, बहस और फिक्रों के बारे में है, जब मुगल सेना पीछे हटने और बैरम खां युद्ध करने के लिए आपस में मशक्‍कत कर रहे थे.

जंग की ललकार

फिलहाल फैसला जंग का हुआ, लेकिन बैरम खां अकबर को जंग के मैदान में भेजने के पक्ष में नहीं थे. पिछली कई हारों के बाद चूंकि सेना के हौसले भी पस्‍त थे, इसलिए हर किसी पर भरोसा कर उसे जंग के लिए भेजा भी नहीं जा सकता था. बैरम खां ने 5000 प्रशिक्षित और वफादार सैनिकों की फौज तैयार की. अकबर और खुद बैरम खां युद्ध के मैदान से 8 मील दूर एक सुरक्षित जगह पर थे. आदेश ये था कि यदि मुगल सेना युद्ध हार जाती है तो अकबर को तुरंत सुरक्षित काबुल पहुंचाना होगा.

पानीपत के मैदान में आमना-सामना

5 नवंबर को 1556 को पानीपत के ऐतिहासिक युद्ध के मैदान में अकबर और हेमू की सेनाओं का आमना-सामना हुआ. हेमू अपनी सेना का नेतृत्‍व खुद कर रहा था. 30,000 पैदल सैनिक, अफगानी घुड़सवार, हाथी, जबर्दस्‍त तोपों के साथ हेमू का दल-बल बहुत मजबूत था और उसके मुकाबले अकबर की सेना आधी भी नहीं थी. जहां पिछली हारों से मुगल सेना के हौसले पस्‍त थे, वहीं एक महीने पहले दिल्‍ली में अपना राज्‍याभिषेक कराकर लौटे हेमू और उसकी सेना के हौसले बुलंद थे. उन्‍हें यकीन था कि इस बार वो मुगलों को न सिर्फ काबुल तक खदेड़ेंगे, बल्कि काबुल पर हेमू का कब्‍जा हो जाएगा.

लेकिन हुआ इसका ठीक उल्‍टा. हेमू के मुकाबले आधी से भी कम सैन्‍यशक्ति के साथ अकबर की सेना युद्ध जीत गई. हेमू को गिरफ्तार कर लिया गया और उसे सजा-ए-मौत मिली. हेमू का कटा हुआ सिर काबुल भेजा गया और वहां दिल्‍ली दरवाजे पर सार्वजनिक रूप से लटकाया गया. वहीं हेमू का धड़ दिल्‍ली के पुराने किले पर कई दिनों तक लटका रहा.

हेमू की सेना के हाथी, घोड़े और तोपें तो मुगल सेना के माल-असबाब में शामिल कर ली गईं, लेकिन जिन-जिन पर ये शुबहा था कि वे भविष्‍य में विद्रोह कर सकते हैं या जो मुगल शासन के वफादार नहीं होंगे, उन सबको एक-एक कर मौत के घाट उतार दिया गया.  बैरम खान ने विरोधियों की सामूहिक हत्‍या का ऐलान किया और आने वाले कई सालों तक यह सिलसिला चलता रहा. हेमू के समर्थकों, परिवार वालों, रिश्‍तेदारों और करीबी अफगानों को पकड़कर जेलों में ठूंसा गया और फांसी की सजा हुई. सैकड़ों के सिर धड़ से अलग कर दिए गए.

दिल्‍ली के तख्‍त पर अकबर का कब्‍जा

अकबर की सेना आगे बढ़ी और अब आगरा और दिल्‍ली पर बिना किसी जद्दोजहद के जीत हासिल कर ली. सिकंदर शाह सूरी का मुकाबला अब भी बाकी था. सूरी पंजाब की ओर से दिल्‍ली पहुंचने की योजना बना रहा था, लेकिन इससे पहले ही मुगल सेना ने मनकोट पर हमला कर सिकंदर शाह को परास्‍त कर दिया. उसे बंदी तो बनाया कि मौत की सजा नहीं दी.

अकबर के शासन काल के अगले 8 साल एक के बार एक युद्ध करते और अपने साम्राज्‍य की विस्‍तार करते हुए बीते. 1564 तक आते-आते काबुल और कांधार से लेकर बंगाल तक मुगलों का एकछत्र साम्राज्‍य स्‍थापित हो चुका था.

अकबर के शासन के 49 साल  

पानीपत की दूसरी लड़ाई के बाद अगले 49 सालों तक अकबर और तीन सौ सालों तक मुगलों ने हिंदुस्‍तान पर शाहन किया. अकबर के राजकीय और शासकीय कौशल के किस्‍से इतिहास की किताबों में दर्ज हैं. अकबर एकमात्र ऐसा मुगल शासक हुआ, जिसे हिंदू और मुसलमानों, दोनों समुदायों का प्‍यार और आदर मिला. उसने हिंदुओं पर लगाए जाने वाले जजिया कर को खत्‍म कर दिया और धार्मिक सहिष्‍णुता के मकसद से दी-ए-इलाही नामक धर्म चलाया.

अकबर के दरबार में कवियों, लेखकों, कलाकारों और चित्रकारों को जगह मिली. अकबर ने अनेक संस्कृत पाण्डुलिपियों और ग्रन्थों का फारसी में अनुवाद करवाया और फारसी ग्रन्थों का संस्कृत और हिन्दी में अनुवाद करवाया था.

29 अक्‍तूबर, 1605 को 63 वर्ष की आयु में अकबर की मृत्‍यु हुई और अगले मुगल बादशाह के रूप में आमद हुई जहांगीर की, जिसने अगले 22 सालों तक मुगल शासन की बागडोर संभाली.