15 साल पहले 1.5 लाख में शुरू किया था चिकनकारी का बिजनेस, आज 1.5 करोड़ रुपये है टर्नओवर
लखनऊ की हाथ से की जाने वाली चिकनकारी को GI टैग प्राप्त है. GI यानी जियोग्राफिकल इंडीकेशन.
नवाबों का शहर लखनऊ...जहां के लजीज कबाब हर किसी के मुंह में पानी ला देते हैं. लेकिन लखनऊ केवल इसी के लिए फेमस नहीं है. एक और चीज इस शहर को दुनिया में लोकप्रिय बनाने में योगदान रखती है और वह है चिकनकारी (Chikankari). यह कपड़ों पर की जाने वाली कढ़ाई का एक फॉर्म है. इसी चिकनकारी के बिजनेस से लखनऊ में न जाने कितने लोग जुड़े हुए हैं. उन्हीं में से एक हैं कृष्णा चिकन एंपोरियम (Krishna Chikan Emporium) के मालिक कृष्णा पाल.
कृष्णा पाल चिकनकारी वाले कपड़ों के होलसेल बिजनेस में हैं. इनकी मैन्युफैक्चरिंग से लेकर बिक्री तक का काम वह अपने पिता के साथ मिलकर देखते हैं. उनका बिजनेस 15 साल पुराना है. उनके पिता मनोज कुमार पाल ने इसे शुरू किया था और अब 25 वर्षीय कृष्णा इसे नई ऊंचाइयों की ओर ले जा रहे हैं.
1-2 लाख रुपये में शुरुआत
कृष्णा चिकन एंपोरियम के लिए शुरुआती निवेश 1-2 लाख रुपये के बीच था. आज 15 साल बाद उनके बिजनेस का टर्नओवर 1.5 करोड़ रुपये के आसपास है. कृष्णा की लखनऊ में दो दुकानें हैं. कृष्णा के पिता ने चिकनकारी के बिजनेस में उतरने से पहले और भी कई कारोबारों में अपनी किस्मत आजमाई लेकिन सफलता नहीं मिली. फिर उन्होंने चिकनकारी का बिजनेस शुरू किया. यह बिजनेस चल निकला और आज इतना फल-फूल चुका है.
कितने लोग करते हैं काम
कृष्णा और उनका परिवार वैसे तो सफीपुर, उन्नाव से ताल्लुक रखता है लेकिन पिछले 10 सालों से लखनऊ में ही बेस्ड है. कृष्णा के कारोबार से इस वक्त अधिकतम 40 कर्मचारी जुड़े हुए हैं. चिकनकारी के साथ लेडीज कुर्ते, जेंट्स कुर्ते, साड़ी, लहंगा, प्लाजो सेट, टॉप, अनारकली, सूट, दुपट्टे, स्टोल आदि प्रॉडक्ट बनाए जाते हैं. चिकनकारी का काम हाथ से होता है.
GI टैग प्राप्त प्रॉडक्ट
लखनऊ से चिकनकारी प्रॉडक्ट देश के कई हिस्सों में सप्लाई होते हैं, जैसे- दिल्ली, लुधियाना, जयपुर, पंजाब, मुंबई, अमृतसर आदि. लखनऊ की हाथ से की जाने वाली चिकनकारी को GI टैग प्राप्त है. GI यानी जियोग्राफिकल इंडीकेशन. GI टैग मुख्य रूप से किसी उत्पाद को उसके मूल क्षेत्र से जोड़ने के लिए दिया जाता है. आसान शब्दों में कहें तो GI टैग बताता है कि कोई उत्पाद विशेष ओरिजिनली कहां पैदा होता है या कहां बनाया जाता है.
कैसे तैयार होते हैं चिकनकारी प्रॉडक्ट
कृष्णा ने YourStory Hindi के साथ बातचीत में बताया कि सूरत से कपड़ा मंगाया जाता है. फिर उसकी सिलाई कराई जाती है. उसके बाद डिजाइन की प्रिंटिंग के लिए कपड़ा कारीगर के पास जाता है. फिर धागा मैचिंग के लिए जाता है कि कौन से रंगों का कॉम्बिनेशन अच्छा लगेगा. उसके बाद प्रिंटेड कपड़े को कढ़ाई के लिए गांवों में भेजा जाता है. वहां कारीगर हाथ से धागे की मदद से कपड़े पर कढ़ाई करते हैं. कढ़ाई पूरी होने के बाद तैयार कपड़ा धुलाई के लिए जाता है. उसके बाद लखनउ में इस तैयार पीस पर मिरर वर्क, सीपी, गोटा आदि तरह के एड ऑन्स का काम होता है. इसके बाद एक बार फिर कपड़ा धुलाई के लिए जाता है, फिर उस पर चरक चढ़ाया जाता है. इस तरह एक पीस पूरी तरह तैयार होने के लिए 8-10 लोगों के पास जाता है.
सिले हुए और डिजाइन प्रिंट वाले कपड़े को कारीगरों तक पहुंचाने के लिए कुछ एजेंट रहते हैं. एक एजेंट के कॉन्टैक्ट में कई कारीगर होते हैं. मैन्युफैक्चरर, एजेंट से संपर्क करते हैं और फिर एजेंट कपड़ों को कारीगरों तक पहुंचाता है.
सभी कारीगर महिलाएं
कृष्णा ने यह भी बताया कि लखनऊ के आसपास के गांवों में कपड़ों पर चिकनकारी की कढ़ाई महिलाएं ही करती हैं. वे ऐसा पार्ट टाइम में करती हैं. यानी अपने काम से जब भी उन्हें दो-तीन घंटे की फुर्सत मिलती है, तब वे कपड़ों पर कढ़ाई करती हैं. लखनऊ से 200 किलोमीटर के अंदर में ही ये सारा काम होता है. लखनऊ में चिकनकारी वाले कपड़ों की मैन्युफैक्चरिंग बल्क में होती है. मैन्युफैक्चरर अपनी सुविधा के अनुसार कपड़ों की मैन्युफैक्चरिंग कराता है, जैसे कि 100 पीस, 250 पीस, 500 पीस, 1000 पीस आदि. कृष्णा ने यह भी बताया कि ओरिजिनल चिकनकारी वही है, जो हाथ से की गई हो.
ऑनलाइन में नहीं जमा
कृष्णा ने कहा कि उन्होंने अपने बिजनेस को ऑनलाइन ले जाने की कोशिश की थी लेकिन चूंकि चिकनकारी वाले प्रॉडक्ट महंगे होते हैं, इसलिए बहुत कम लोग खरीदते हैं. इसलिए फिर उन्होंने ऑफलाइन पर ही अपना फोकस रखा. वैसे तो चिकनकारी वाले प्रॉडक्ट एक्सपोर्ट भी होते हैं लेकिन फिलहाल कृष्णा, एक्सपोर्ट नहीं कर रहे हैं. इसे लेकर अभी उनका कोई प्लान भी नहीं है. उनका कहना है कि क्योंकि उनका पूरा बिजनेस होलसेल का है, इसलिए सारा माल देश के अंदर ही बिक जाता है.
कितनी रहती है कीमत
चिकनकारी वाले कपड़ों की कीमत 1000 रुपये से लेकर 2 लाख रुपये तक जाती है. सबसे ज्यादा कीमत साड़ी और लहंगों की होती है. कृष्णा का यह भी कहना है कि बड़े-बड़े सिलेब्रिटीज की शादी के लिए भी लखनऊ में चिकनकारी वाले कपड़े बनवाए जाते हैं और फिर नामचीन डिजाइनर्स का टैग लगने के बाद कपड़ों का दाम दोगुना हो जाता है. इसके लिए डिजाइनर्स लखनऊ में चिकनकारी प्रॉडक्ट मैन्युफैक्चरर्स के साथ कॉन्ट्रैक्ट करते हैं.
प्रॉडक्ट तैयार होने में कितना लगता है वक्त
चिकनकारी वाले नॉर्मल कुर्ते बनाने में मिनिमम 2-3 महीने लगते हैं. वहीं साड़ी-लहंगा बनाने में मिनिमम 6 महीने तक लग जाते हैं. कोई पीस अगर अर्जेंट में बनाएंगे तो भी कम से कम 4 महीने लग ही जाते हैं. कृष्णा ने यह भी बताया कि कोरोना के जाने के बाद पिछले एक साल में बिजनेस पटरी पर लौटा है. कारोना काल में उन्होंने अपने कर्मचारियों को आधी सैलरी पर बरकरार रखा. किसी को निकाला नहीं. चिकनकारी प्रॉडक्ट्स की डिमांड विदेशियों के बीच भी है. लखनऊ में आने वाले विदेशी लोग यहां से चिकनकारी प्रॉडक्ट खरीदकर लेकर जाते हैं.