कश्मीर में खुद से संवर रहे जंगल, बेहतर हो रही मिट्टी की सेहत और कार्बन सिंक
एक अध्ययन से पता चला है कि जंगलों की बहाली ने कश्मीर घाटी के चीड़ के जंगलों में सामुदायिक संरचना, मिट्टी की सेहत और कार्बन सिंक में बहुत बढ़ोतरी की है. जंगल को सक्रिय (ऐक्टिव) या खुद से ठीक होने (पेसिव) देने के दोनों दृष्टिकोण वनों को हुए नुकसान पर निर्भर करते हैं.
शहर के शोर-शराबे से दूर, दक्षिणी कश्मीर के अनंतनाग जिले में सालार जंगल दिसंबर की हांड़ कंपा देने वाली सर्दियों में भी वसंत के मौसम की तरह गुलजार है. कोहरे के साथ बिखरी हुई सूरज की किरणें इस 20 हेक्टेयर के क्षेत्र में मानो जान डाल रही हैं. यह जगह ऊंचे शंकुधारी पेड़ों (conifer trees) से घिरी है. सुई जैसी पत्तियों की कालीन और नए अंकुरित पौधे सर्दियों की धूप में चमकते हैं. इनसे उम्मीद और लचीलेपन की आभा दिखती हैं. ये घने जंगल स्थानीय समुदायों और उनके मवेशियों की पहुंच से दूर हैं, ताकि इसे ठीक होने और पहले जैसा होने का समय मिल सके.
एक अध्ययन के मुताबिक सालार में जंगल को खुद से ठीक होने देने की तकनीक (Passive forest restoration) से कश्मीर हिमालय के देवदार के जंगलों के समग्र सेहत में सुधार करने में मदद मिली है. इनमें पेड़ों का घनत्व, मिट्टी की सेहत और कार्बन सिंक जैसी चीजें शामिल हैं. जंगल को खुद से बहाल होने देने का मतलब है मानवीय गतिविधियों को कम करना. इनमें चराई और लकड़ी चुनने जैसे कामों को सीमित किया जाता है. वहीं जंगल को सक्रिय तरीके से संवारने का अर्थ है वन में नए पौधे लगाना.
मार्च 2022 में हुए अध्ययन में पाया गया कि घाटी के अधिकांश जंगलों को अपने आप ठीक होने देकर पुराने रूप में लाया जा सकता है. क्योंकि वे उस हद तक ख़राब नहीं हुए हैं कि उन्हें पौधे लगाकर बचाया जाए.
अध्ययन के सह-लेखक आबिद हुसैन का मानना है कि इंसानी गतिविधियों को कम करके प्रमुख जंगलों को संवारने के अधिकांश लक्ष्य प्राप्त किए जा सकते हैं. वे कहते हैं, “बस पैचों पर बाड़ लगाकर हम जंगलों को प्राकृतिक रूप से ठीक होने दे सकते हैं.” कश्मीर ने 1972 से 2010 के बीच 18 प्रतिशत घने जंगलों को खोया है. घाटी के अधिकांश जंगलों में शंकुधारी पेड़ और पिरामिड आकार के देवदार के पेड़ शामिल हैं. इनकी कीमत बहुत ज्यादा है. यही वजह है कि इन्हें काटा गया है.
कश्मीर वन विभाग ने 2011 से 2013 के बीच जंगलों को संवारने की गतिविधियां शुरू की. कार्यक्रमों को अलग-अलग योजनाओं के तहत रखा गया था. जैसे कि क्षतिपूरक वनीकरण कोष प्रबंधन और योजना प्राधिकरण (CAMPA). कुछ कार्यक्रम अभी भी चल रहे हैं. हुसैन कहते हैं , “इन कार्यक्रमों के प्रभाव को जानने के लिए, हमने रिस्टोरेशन के तहत अलग-अलग पैच का अध्ययन किया.” इस अध्ययन के लिए आठ साल के लिए रिस्टोर और नॉन-रिस्टोर भूखंडों से डेटा संग्रह की जरूरत थी.
घाटी में वनों को नुकसान की प्रमुख वजह चराई है. वो कहते हैं, “जब मवेशी जंगल में घुसते हैं, तो छोटे पौधे उनका आसान निशाना होते हैं. इनमें नए अंकुरित पौधे भी शामिल हैं. इसलिए, जब कोई नया पौधा उपलब्ध नहीं होता है, तो हम यह उम्मीद नहीं कर सकते कि जंगल अपने आप बहाल होगा.”
हुसैन कहते हैं कि अगर कोई जंगल का जानकार नहीं है और वन में आता है, तो वो उसे अच्छा पाएगा. लेकिन जंगल की जमीन का निरीक्षण करने वाले किसी विशेषज्ञ आंखें, नए पौधों की गैर-मौजूदगी को तुरंत भाप लेगी. जंगलों को बहाल करने में निरंतरता होनी चाहिए. अगर कोई पुराना पेड़ गिरता है, तो उसकी जगह लेने के लिए पर्याप्त छोटे पेड़ होने चाहिए. हालांकि, बिना सोच-विचार के चराई और विभिन्न मानवीय गतिविधियों के चलते, जंगल की जमीन अस्त-व्यस्त हो जाती है, जिससे प्राकृतिक रूप से उसके संवरने की क्षमता प्रभावित होती है.
सफल बहाली के लिए समस्या के मूल कारण को समझना होगा. हुसैन कहते हैं, “समस्या का विश्लेषण करने के बाद ही हम यह पता लगा सकते हैं कि क्या हमें वनों को सक्रिय रूप से बचाने की जरूरत है, जिसमें बीज लगाना या पौधा रोपना शामिल है. या फिर अपने आप बहाली शामिल है, जिसमें जंगल पर पड़ने वाले दबाव का प्रबंधन (stressors) शामिल है. अगर हम अपने अधिकांश जंगलों के इको-सिस्टम (कश्मीर में) को देखें, तो हम पाते हैं कि बाड़ लगाने जैसे अपने आप ठीक होने की पहल बेहतर काम करेगी. यहां वनों के खराब होने की मुख्य समस्या बहुत ज़्यादा चराई, बिना सोचे-समझे जलाने के लिए लकड़ी और इमारती लकड़ियों को जमा करना है. इन्हें नियमित करके, हम तनाव को कम कर सकते हैं. इससे जंगल प्राकृतिक रूप से संवर सकते हैं.”
अध्ययन से पता चला कि बाड़ लगाकर अपने आप बहाल होने के प्रयासों से कई तरह की सफलता मिली. इनमें प्रति हेक्टेयर पेड़ों के घनत्व में बढ़ोतरी, पेड़ों की परिधि में सुधार, मिट्टी में जैविक कार्बन और फास्फोरस में सुधार और बायोमास और कार्बन स्टॉक में वृद्धि जैसी चीजें शामिल हैं. ये चीजें जलवायु परिवर्तन से निपटने में मदद कर सकती हैं. वहीं, उन जंगलों में सामुदायिक संरचना, मिट्टी और कार्बन स्टॉक खराब पाए गए जहां अपने-आप बहाली के कोई प्रयास नहीं किए गए थे.
जंगलों को संवारना समुदाय का काम
मध्य कश्मीर के बडगाम जिले के पर्यावरण कार्यकर्ता राजा मुजफ्फर का कहना है कि इस क्षेत्र में वनों की कटाई के परिदृश्य में थोड़ा सुधार हुआ है. मुजफ्फर कहते हैं, “मौजूदा परिदृश्य में वनों की कटाई और लकड़ी की तस्करी में मामूली गिरावट देखी गई है.” वो मानते हैं कि स्थानीय समुदायों के बीच जागरूकता बढ़ी है.
मुजफ्फर कहते हैं कि गुर्जर और बकरवाल समुदायों को जंगलों के खराब होने के लिए दोष देना गलत है. वो कहते हैं, “वे स्थानीय समुदाय हैं. उन्हें जंगल के संसाधनों का उपयोग करने का हक है. इसी तरह, उनके मवेशियों को भी जंगलों के अंदर चरने का अधिकार है.”
वो कहते हैं कि वन बहाली सिर्फ नए पेड़ लगाने के बारे में नहीं है. इसमें समग्र सामुदायिक दृष्टिकोण भी शामिल है. मुजफ्फर कहते हैं, “वन अधिकार कानून, 2006 आदिवासी लोगों को वन उपज का इस्तेमाल करने की अनुमति देता है; बदले में उन्हें वनों को बचाना होगा. अगर हम जंगलों के संरक्षण में आदिवासी समुदायों को शामिल करते हैं और उन्हें वन भूमि का सीमांकन करने के लिए कहते हैं, तो सरकार के हस्तक्षेप की जरूरत ही नहीं होगी.”
जम्मू-कश्मीर के पूर्व प्रधान मुख्य वन संरक्षक गुलाम हसन कंगू कहते हैं, “गुर्जर और बकरवाल हमारे इको-सिस्टम का अहम हिस्सा हैं.” “वे सिर्फ चराने और लकड़ी जमा करने के लिए जंगल का उपयोग करेंगे. वो जंगल को नुकसान नहीं पहुंचाएंगे क्योंकि उनकी आजीविका इससे चलती है.” उनका कहना है कि इन समुदायों को विश्वास में लेने से संसाधनों को बेहतर ढंग से बचाने में मदद मिलेगी.
लेकिन रिसर्चर हुसैन कहते हैं कि जब पहल सरकार द्वारा की जाती है, तो स्थानीय समुदायों के साथ संवाद करना आसान हो जाता है. वो कहते हैं, “अगर कार्यक्रम सरकार की ओर से आता है, तो स्थानीय समुदाय इसके लिए मना नहीं करेंगे. वे इसे वैध मानते हैं.”
मुजफ्फर और हुसैन दोनों का मानना है कि अगर स्थानीय समुदायों और हितधारकों को संरक्षण के बारे में ठीक से संवेदनशील बनाया जाए, तो वे बिना किसी सरकारी हस्तक्षेप के इन जंगलों के तारणहार बन सकते हैं.
क्या पौधे लगाने का मतलब जंगल को बहाल करना है?
कश्मीर विश्वविद्यालय में जैविक विज्ञान के डीन ज़फर अह रेशी कहते हैं, “वन जरूरी हैं, वृक्षारोपण नहीं.” उनका मानना है कि सिर्फ पेड़ लगाने को जंगल बचाने से नहीं जोड़ा जा सकता है. उनके अनुसार, किसी जंगल में अलग-अलग प्रजातियों के सापेक्ष अनुपात होते हैं, और प्रत्येक जंगल के अपने गुण और विशेषताएं होती हैं, जिसमें जमीन के नीचे अलग तरह के माइक्रोनाइज्ड सामग्री (किसी विशेष स्थान की मिट्टी में मौजूद अलग-अलग पोषक तत्व और चीजें) शामिल हैं.
जंगलों को संवारने के लिए समग्र दृष्टिकोण की जरूरत होती है. इनमें वनीकरण, जमीन के नीचे पारस्परिकता पर विचार करना और जंगल की बहाली पर ध्यान देने के साथ विभिन्न प्रजातियों के पेड़ों का सापेक्ष अनुपात शामिल हैं. वह सुझाव देते हैं, “जंगल का अध्ययन, बहाली में पहला और अहम कदम है. एक बार जब आप जान जाते हैं कि जंगल में स्वाभाविक रूप से क्या दिखाई देता है, तो आपको बस उसे दोहराना होगा.”
इसी तरह, आबिद हुसैन भी सुझाव देते हैं कि गैर-जरूरी वृक्षारोपण अभियान नहीं होना चाहिए. उनका मानना है कि पौधे लगाने से पहले वन विभाग के कर्मचारियों के साथ उचित जानकारी साझा करनी चाहिए, ताकि वे वन अनुपात में बदलाव न करें. वो कहते हैं, “एक जंगल में केवल देवदार के पेड़ नहीं होते हैं. स्थानीय झाड़ियों सहित अन्य प्रजातियां भी होती हैं. बहाली के नाम पर स्थानीय प्रजातियों या अन्य प्रजातियों को खतरे में नहीं डालना चाहिए.”
लिद्दर अनंतनाग के डीएफओ मेहराज शेख के अनुसार, सभी वृक्षारोपण अभियान समुचित रिसर्च पर आधारित हैं. उनका कहना है कि वनों को बहाल करते समय वनों पर निर्भर समुदायों की जरूरतों को भी ध्यान में रखा जाता है. वे कहते हैं, “हमारा लक्ष्य (कश्मीर घाटी के लिए) इस साल एक करोड़ 35 लाख पेड़ लगाने का है. और मेरे डिवीजन में 3,50,000 पौधे लगाए जाने हैं.” “हमारे अधिकारी अच्छी तरह से प्रशिक्षित और जानकार हैं. उन्हें पता है कि किस प्रजाति को किस जगह लगाना है. इसलिए, हमारा वृक्षारोपण अनुसंधान पर आधारित है.” शेख कहते हैं कि पिछले 10 सालों से अधिकांश वृक्षारोपण CAMPA योजना के तहत किए गए हैं.
अधिकारी का कहना है कि लकड़ी जमा करने और चराई के लिए उन्होंने पेड़ लगाने के अलावा चारा पैच भी बनाए हैं. उन्होंने कहा, “हाल ही में, हमने 15,000 पौधे लगाए, जिनमें से 7,500 पौधों में से एक चारा पैच बनाया गया. स्थानीय समुदाय उन पेड़ों का इस्तेमाल विभिन्न उद्देश्यों के लिए करते हैं. उनके लिए प्रावधान है, वे वनोपज की कटाई कर सकते हैं. हालांकि, हम बाड़ वाले क्षेत्रों के अंदर सीधे चराई की अनुमति नहीं देते हैं.”
जंगलों की बहाली से कार्बन सिंक में बढ़ोतरी
चूंकि जंगल, घाटी के एक बड़े हिस्से को कवर करते हैं, इसलिए लोग सीधे या परोक्ष रूप से वनों पर निर्भर हैं. रेशी के अनुसार वन में कार्बन के अतिरिक्त अन्य पूल भी होते हैं. वे कहते हैं, “न सिर्फ पेड़ बल्कि वन तल पर बिच्छू भी एक कार्बन सिंक हैं.” वह बताते हैं कि जब एक पेड़ काटा जाता है, तो दो मुद्दे सामने आते हैं-एक कार्बन सिंक कम हो जाता है, और सालों से जमा कार्बन निकल जाता है. वे कहते हैं, “जलवायु परिवर्तन बहुत ही गंभीर मुद्दा है. खासकर इस हिमालयी क्षेत्र में, जहां हम जंगलों पर निर्भर हैं. हम इस पारिस्थितिकी रूप से नाजुक क्षेत्र में वनों की कटाई को बर्दाश्त नहीं कर सकते हैं.” रेशी का मानना है कि स्थानीय लोगों के बीच व्यापक जागरूकता इन कार्बन सिंक के बेहतर प्रबंधन और बचत में मदद कर सकती है.
हुसैन कहते हैं, “जब आपके पास एक स्वस्थ जंगल होता है, तो यह ज़्यादा कार्बन अवशोषित कर सकता है. जैसा कि हमने यह भी देखा है कि रिस्टोर किए गए पैच में अधिक कार्बन होता है.”
अध्ययन से पता चला है कि बहाल भूखंड पर भूमिगत कार्बन स्टॉक 172.9 ± 88.1 मेगाग्राम कार्बन प्रति हेक्टेयर (Mg C ha-1) था, जबकि गैर-बहाल भूखंड में 127.8 ± 64.8 Mg C ha-1 था. वह आगे कहते हैं कि एक स्वस्थ जंगल से वन्यजीवों को फलने-फूलने का मौका मिलता है. यह इको-सिस्टम के बीच संतुलन बनाता है.
(यह लेख मुलत: Mongabay पर प्रकाशित हुआ है.)
बैनर तस्वीर: दक्षिण कश्मीर के अनंतनाग जिले के सल्लार क्षेत्र का एक जंगल. तस्वीर - आमिर बिन रफ़ी