सिकुड़ते जंगलों की वजह से विलुप्ति की कगार पर जाता कश्मीर का शर्मीला हिरण हंगुल
1900 की शुरुआत में, कश्मीरी हिरण, हंगुल की आबादी लगभग 5,000 होने का अनुमान लगाया गया था. आज की तारीख में हंगुल की संख्या घटकर केवल 261, या इससे भी कम, रह गयी है.
Muhammad Raafi
Friday December 30, 2022 , 8 min Read
जंगलों से आच्छादित हिमालय की तलहटी में पाया जाने वाला एक शर्मीला हिरण अपने अस्तित्व के लिए जूझ रहा है. कश्मीर के जंगली हंगुल के आवास और संख्या पर औद्योगीकरण, सैन्यीकरण और मानव हस्तक्षेप की वजह से खतरा बढ़ रहा है.
बीसवीं सदी की शुरुआत से इस कश्मीरी हिरण की संख्या में गिरावट आई है. हालांकि आधिकारिक आंकड़ों और स्वतंत्र शोध के बीच डेटा में अंतर के साथ पिछले कुछ वर्षों में हंगुल की आबादी के अलग-अलग अनुमान लगाए गए हैं. लेकिन यह निश्चित है कि इनकी जनसंख्या वर्तमान में 100 और 261 के बीच है जो कि 1900 के दशक की शुरुआत की अनुमानित आबादी – 5000 से एक बड़ी गिरावट है. इस हिरण का अध्ययन और निगरानी करने वाले अब चिंतित हैं कि यह गंभीर रूप से लुप्तप्राय प्रजाति (Cervus hanglu ssp. hanglu) जल्द ही विलुप्ति की कगार पर आ खड़ी होगी.
कुछ वन्यजीव विशेषज्ञों और कार्यकर्ताओं ने हंगुल की कम होती आबादी के पीछे इसके आवास और वन्यजीव अभयारण्यों के करीब सीमेंट कारखानों की मौजूदगी को जिम्मेदार ठहराया है. इसके अलावा, रक्षा ढांचों के निर्माण और अन्य मानवीय हस्तक्षेपों के कारण भी इसके आवास का विखंडन हुआ है, वे नोट करते हैं.
कुछ आंकलन के अनुसार, हंगुल एशिया में पाए जाने वाले यूरोपीय लाल हिरण की छह सबसे पूर्वी उप-प्रजातियों में से एक माना जाता है. हालांकि, शेर-ए-कश्मीर कृषि विज्ञान विश्वविद्यालय (SKUAST) में वन्यजीव विज्ञान विभाग के प्रमुख वैज्ञानिक खुर्शीद अहमद ने अपने शोध में पाया कि कश्मीरी हिरण (हंगुल) एक अलग प्रजाति है जिसका मध्य एशिया के समरकंद और बुखारा के हिरण परिवार से अधिक संबंध है. हंगुल को भारतीय वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम, 1972 और जम्मू-कश्मीर वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1978 की अनुसूची I में रखा गया है.
कश्मीर का ख्रू (Khrew) श्रीनगर शहर के करीब स्थित है. ख्रू, एक वन्यजीव अभ्यारण्य से सटा है और उत्तरी कश्मीर में दाचीगाम राष्ट्रीय उद्यान और गुरेज घाटी जैसे वन्यजीव-समृद्ध क्षेत्रों को कश्मीर में अन्य संरक्षित क्षेत्रों जैसे शिकारगाह संरक्षण रिजर्व (अब त्राल वन्यजीव अभयारण्य का हिस्सा), ओवेरा अरु वन्यजीव अभयारण्य और किश्तवाड़ राष्ट्रीय उद्यान से जोड़ने वाला एक महत्वपूर्ण गलियारा है.
लम्बी दूरी तय करने वाले जानवर जैसे हंगुल, मौसमी प्रवास और आवाजाही के लिए इस गलियारे का उपयोग करते हैं. अहमद कहते हैं कि वर्षों से, विशेष रूप से पिछले दो दशकों में, हंगुल के आवास और गलियारे पर अतिक्रमण करते हुए ख्रू में कई सीमेंट कारखाने बनाए गए हैं.
“सीमेंट कारखानों के निर्माण ने हंगुल के क्षेत्र को सीमित कर दिया है और वे अब ज्यादातर दाचीगाम राष्ट्रीय उद्यान तक ही सीमित हैं,”अहमद बताते हैं. इससे पहले, हंगुल गुरेज़ घाटी से उत्तर की ओर 200-150 किलोमीटर और दक्षिण की ओर 400 किलोमीटर में किश्तवाड़ राष्ट्रीय उद्यान तक जाते थे. उन्होंने कहा कि आज किश्तवाड़ में कोई हंगुल नहीं बचा है.
अहमद ने याद करते हुए बताया कि जम्मू और कश्मीर में हंगुल की सुरक्षा और संरक्षण के उद्देश्य से 2015 में हंगुल संरक्षण परियोजना शुरू की गई थी. इसका उद्देश्य सामुदायिक समर्थन, जागरूकता और वन्य जीवन के प्रबंधन के माध्यम से अपने लक्ष्य को प्राप्त करना था. “हमने दाचीगाम राष्ट्रीय उद्यान के भीतर और बाहर हंगुल के विचरण का भी अध्ययन किया और 2021 में रिपोर्ट जारी की.” इसके अलावा, शिकारगाह में हंगुल के लिए एक संरक्षण प्रजनन केंद्र स्थापित किया गया था, लेकिन जानवरों को पकड़कर लाने के सन्दर्भ में इसे अभी तक शुरू नहीं किया गया है. साथ ही प्रजनन केंद्र की संरचना उस रूप में नहीं है जैसी कि होनी चाहिए, अहमद ने कहा.
सीमेंट कारखानों का उदय
उन्नीस सौ अस्सी के दशक के मध्य में, जम्मू और कश्मीर की तत्कालीन सरकार ने निकटवर्ती पर्वत श्रृंखला में बड़े पैमाने पर चूना पत्थर जमा होने के कारण ख्रू क्षेत्र में एक सीमेंट कारखाने की स्थापना की.
कुछ अनुमानों के अनुसार, 12 वर्ग किलोमीटर में फैले छोटे से शहर ख्रीयू में वर्तमान में लगभग छह सीमेंट कारखाने चल रहे हैं.
सीमेंट फैक्ट्रियों के खिलाफ अभियान चलाने वाले एक स्थानीय कार्यकर्ता, आदिल भट, और कुछ अन्य कार्यकर्ताओं ने कहा है कि सरकारी फैक्ट्री की स्थापना के समय ही इस क्षेत्र में कम से कम सात अन्य निजी स्वामित्व वाली सीमेंट फैक्ट्रियां स्थापित की गईं. कुछ लोगों के अनुसार, यह वन्यजीव संरक्षण नियमों का उल्लंघन हो सकता है.
भारत के सर्वोच्च न्यायालय के दिशा-निर्देश सुझाव देते हैं कि वन्यजीव अभयारण्यों के आसपास 10 किलोमीटर का क्षेत्र एक पर्यावरण-संवेदनशील क्षेत्र है. ख्रू में कई सीमेंट कारखाने निकटवर्ती वन्यजीव अभ्यारण्य के एक किलोमीटर के दायरे में हैं.
“इन कारखानों ने न केवल सीधे तौर पर हंगुल के निवास स्थान को प्रभावित किया है, बल्कि उन्होंने चारागाह भूमि को भी निगल लिया है, जिससे देहाती समुदाय को मवेशियों को चराने के लिए जंगल के अंदर जाने के लिए मजबूर होना पड़ा है,” कार्यकर्ताओं ने बताया.
“हंगुल दूर से आने वाली गंध और ध्वनि के प्रति संवेदनशील होते हैं. ध्वनि हंगुल के लिए एक बड़ा व्यवधान है,”अहमद ने ख्रू के आसपास चूना पत्थर के भंडार को तोड़ने के लिए किये जाने वाले धमाकों का जिक्र करते हुए कहा. अहमद ने हंगुल की पारिस्थितिकी और जीव विज्ञान पर व्यापक अध्ययन किया है. अपने अनुभव के आधार पर उन्होंने नोट किया कि कारखानों से निकलने वाले उत्सर्जन ने हंगुल के शरीर विज्ञान और भोजन के पैटर्न को प्रभावित किया है. “सीमेंट कारखानों से रासायनिक उत्सर्जन (कण) आवास क्षेत्रों में घास पर जमा होता है जिसे हंगुल खा जाते हैं,” उन्होंने बताया.
इसके अतिरिक्त, लम्बी दूरी तक जाने वाले इस जानवर का सीमित आवास क्षेत्र हंगुल के कम प्रजनन का कारण बन रहा है. “इनके लिंगानुपात में मादाओं की संख्या ज़्यादा है. हमारे पास नर की तुलना में अधिक मादाएं हैं – जो स्वस्थ नहीं है. हंगुल की आबादी में हमारे पास बहुत कम भर्ती (नए शावकों के अलावा) है, ”अहमद ने समझाया, भले ही आबादी में नए शावक जोड़े जाते हैं लेकिन उनके जीवित रहने की संभावना कम होती है. “ये मुख्य पारिस्थितिक कारण हैं, जो हम देखते हैं, कि हंगुल की आबादी पिछले दो या तीन दशकों से स्थिर नहीं हो रही है,” उन्होंने कहा.
शावकों की मृत्यु दर उच्च बनी हुई है. उनमें से अधिकांश बिगड़ी हुई पारिस्थिकी के कारण एक वर्ष के भीतर मर जाते हैं. अहमद ने बताया, “जलवायु और प्राकृतिक कारकों के साथ-साथ दाचीगाम नेशनल पार्क के अंदर तैनात लोमड़ियों और गीदड़ों और अर्धसैनिक बलों के कुत्तों जैसे शिकारियों के हमले भी हैं.”
ख्रू के स्थानीय निवासी 75 वर्षीय फैयाज अहमद लोन 1990 के दशक से पहले इस क्षेत्र में अपनी जमीन पर खेती करते थे. लोन ने कहा, “पहले हम कम से कम पांच से छह हंगुल देखते थे मगर अब वे बेहद दुर्लभ हैं.”
अहमद कहते हैं कि 1990 के दशक में उग्रवाद के बाद सीमा पर (भारत और पाकिस्तान के बीच) तनाव के कारण, चरवाहे ऊपरी दाचीगाम राष्ट्रीय उद्यान और हंगुल गलियारे के अन्य हिस्सों पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं. उन्होंने कहा कि इसका हंगुल आवास पर सीधा प्रभाव पड़ा है. इसके अतिरिक्त, अहमद ने कहा, पर्यटन और मानवीय हस्तक्षेप में वृद्धि भी हंगुल को प्रभावित करती है.
शेख गुलाम रसूल, कश्मीर स्थित एक पर्यावरण कार्यकर्ता, शोधकर्ताओं, विशेष रूप से सरकारी संस्थानों में काम करने वाले, द्वारा प्रस्तुत जानकारी से आश्वस्त नहीं हैं. उनका आरोप है कि शोधकर्ता चरवाहा समुदाय, चरवाहों और वन में रहने वाले समुदाय को अत्यधिक चराई के लिए निशाना बनाते हैं, जिसके बारे में वे (शोधकर्ता) कहते हैं कि इससे हंगुल का पतन हो रहा है. लेकिन वे अधिक महत्वपूर्ण पहलुओं से चूक जाते हैं. रसूल जंगलों में सैन्य टुकड़ियों की तैनाती और सीमेंट कारखानों की स्थापना की ओर इशारा करते हैं, जो उन्हें लगता है कि मुख्य समस्याएं हैं. उन्होंने कहा, “देहाती समुदाय को ऊपरी इलाकों और घास के मैदानों में जाने के लिए मजबूर करने वाली सीमेंट फैक्ट्रियां और सैन्य हस्तक्षेप हैं,” उन्होंने कहा.
रसूल ने कहा कि अगर हंगुल को बचाना है, तो सीमेंट फैक्ट्रियों को बंद करना होगा और जिन अधिकारियों ने उन्हें पर्यावरण मंजूरी दी है, उनकी जांच की जानी चाहिए. उन्हें हंगुल जनगणना पर भी संदेह है, उनका दावा है कि जहां सीमेंट कारखाने मौजूद हैं उस क्षेत्र में जनगणना नहीं की गई है. उनका मानना है कि एक सटीक जनगणना, क्षेत्र में हंगुल की उपस्थिति को दर्शाएगी और इससे हंगुल के निवास स्थान को प्रभावित करने वाली गतिविधियों को बंद किया जा सकता है. हंगुल जनगणना आमतौर पर वाइल्डलाइफ एसओएस टीम द्वारा हर दो साल में आयोजित की जाती है, जो जम्मू और कश्मीर वन्यजीव विभाग और कश्मीर विश्वविद्यालय के छात्र स्वयंसेवकों के साथ भागीदारी करती है.
(यह लेख मूलत: Mongabay पर प्रकाशित हुआ है.)
बैनर तस्वीर: 20वीं सदी की शुरुआत से ही हंगुल की संख्या में गिरावट आ रही है. शोधकर्ताओं का कहना है कि हंगुल आवास के पास कारखानों से होने वाले उत्सर्जन ने हंगुल के शरीर विज्ञान और भोजन के पैटर्न को प्रभावित किया है. तस्वीर - मोहम्मद दाऊद