तमाम सरकारी ‘समाधानों’ के बावजूद उत्तर भारत में क्यों लौट रहा है पराली संकट
पराली जलाने की समस्या अब सालाना हो चली है. अधिकारियों का दावा है कि वे इस बार संकट से निपटने के लिए पूरी तरह तैयार हैं, लेकिन अब तक दर्ज किए गए पराली जलाने के मामले पिछले साल की तुलना में बहुत अधिक हैं.
देश में पराली जलाने यानी धान के अवशेष को खेतों में जलाने की समस्या साल-दर-साल बढ़ती जा रही है. पराली जलाने की समस्या सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिए एक बड़ा संकट है. इससे निपटने की तैयारी के तमाम वादे और दावे किए जा रहे हैं, लेकिन जमीनी स्थिति देखकर नीति निर्माताओं और सरकारी अधिकारियों की चिंता बढ़ रही है.
पराली जलाने की प्रथा बीते कुछ वर्षों में प्रचलन में आई हैं. भारत में गंगा के मैदानी इलाकों में सर्दियों की शुरुआत से पहले धान के खेत में बचे हुए पुआल को आग के हवाले कर दिया जाता है. यह उत्तर भारत में राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (एनसीआर) और अन्य हिस्सों में वायु प्रदूषण के प्रमुख कारणों में से एक रहा है.
पंजाब प्रदूषण नियंत्रण विभाग के नवीनतम आंकड़ों से पता चला है कि इस साल 15 सितंबर से 6 अक्टूबर के बीच खेत में आग लगने की कुल 650 घटनाएं हुईं, जो पिछले साल इस दौरान दर्ज किए गए मामलों (320) से दोगुने से अधिक हैं. इस साल, अमृतसर के सीमावर्ती जिले में 419 मामले और तरण तारण में 109 मामले दर्ज किए गए. हरियाणा में भी पिछले साल 24 के मुकाबले अब तक खेत में आग लगने के 48 मामले सामने आए हैं.
पंजाब प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के सदस्य सचिव कुनेश गर्ग ने मोंगाबे-इंडिया को बताया कि ये शुरुआती मामले उन क्षेत्रों से थे जहां धान की शुरुआती किस्में उगाई जाती हैं. लेकिन पंजाब में शुरुआती बर्निंग डेटा ने पिछले वर्षों की तरह ही रुझान दिखाया.
वर्ष 2021 में नवंबर के पराली जलाने के प्रभाव को देखें तो इन दिनों वायु गुणवत्ता सूचकांक (AQI) का 30-दिवसीय औसत 376 (बहुत खराब श्रेणी) था, जिसमें से 11 दिन ऐसे थे जब AQI 400 (गंभीर श्रेणी) को छू गया था. सिस्टम ऑफ एयर क्वालिटी एंड वेदर फोरकास्टिंग एंड रिसर्च (सफर) के आंकड़ों से भी पता चला कि दिल्ली की जहरीली हवा में पराली जलाने की हिस्सेदारी पिछले साल 4 से 13 नवंबर के बीच पीक सीजन के दौरान 25% से 48% के बीच थी.
इस साल, अक्टूबर की शुरुआत में, इस क्षेत्र के धान के खेतों में पहले से ही धुआं निकलना शुरू हो गया है, जो यह दर्शाता है कि आने वाले दिन कैसे होंगे, खासकर जब धान की कटाई 15 अक्टूबर से शुरू हो जाएगी.
कुछ मामलों में पराली जलाना एक आवश्यकता से अधिक हो गया है. उदाहरण के लिए, सितंबर में पंजाब और हरियाणा में देर से हुई बारिश ने क्षेत्र के कई हिस्सों में धान की कटाई में एक सप्ताह की देरी की. इस देरी ने अगली गेहूं की फसल की बुवाई के लिए खेत तैयार करने के लिए काफी कम समय बचा. किसान बुवाई से पहले खेतों को साफ करने का सबसे तेज़ तरीका पराली जलाने को मानते हैं.
नाकाम रहा ‘समाधान’
वर्षों से केंद्र सरकार ने प्रभावित राज्यों के सहयोग से पराली जलाने को रोकने के लिए कई तरह के समाधान निकालने की कोशिश की है. इसमें उच्चतम न्यायालय के निर्देशानुसार 2019 में किसानों को दिया गया एकमुश्त नकद मुआवजा शामिल है. यह प्रयास सफल नहीं हो पाया क्योंकि केंद्र और राज्य सरकारों दोनों ने इसके लिए पर्याप्त बजट का प्रावधान नहीं किया.
भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान (IARI) द्वारा विकसित बायो-डीकंपोजर जैसे कुछ समाधानों को गेम चेंजर के रूप में पेश किया गया. लेकिन पिछले साल और इस साल पंजाब में हुए फील्ड ट्रायल के नतीजे निराशाजनक रहे. इस उपाय से खेतों के अंदर पराली को खत्म करने में 25-30 दिन लग रहे थे. इसकी वजह से धान की कटाई और गेहूं की बुवाई के बीच काफी कम समय बचता है. इससे किसान इसे व्यापक रूप से अपनाने के लिए तैयार नहीं हुए.
उदाहरण के लिए, अनुसंधान निदेशक अजमेर सिंह दत्त ने मोंगाबे-इंडिया को बताया कि पंजाब कृषि विश्वविद्यालय के अन्य परीक्षणों में पाया गया कि पराली के खत्म होने की अवधि एक महीने से अधिक है. पंजाब कृषि विभाग के निदेशक गुरविंदर सिंह ने बताया कि पंजाब केवल 2023 हेक्टेयर (अपने कुल धान क्षेत्र का सिर्फ .07%) पर बायो-डीकंपोजर का उपयोग करता है.
इधर हरियाणा के किसान भी संशय में हैं. राज्य में अभी भी बायो-डीकंपोजर का व्यापक उपयोग होता है. हरियाणा के कृषि विभाग के निदेशक, हरदीप कादियान ने मोंगाबे-इंडिया को बताया कि 2021 में 1.21 लाख (121,000) हेक्टेयर भूमि पर डीकंपोजर का इस्तेमाल किया गया था. “यह सफल रहा क्योंकि उपग्रह ने उन क्षेत्रों में आग की घटना की रिपोर्ट नहीं दी जहां यह समाधान लागू किया गया था,” उन्होंने दावा किया.
“हमने इस वर्ष 2.02 (202,000) लाख हेक्टेयर का लक्ष्य रखा है, जो हरियाणा में कुल 13.76 (137,600) लाख हेक्टेयर धान क्षेत्र का लगभग 15% है. हम चालू वर्ष के लक्ष्य को पाने की उम्मीद करते हैं क्योंकि हमने नकद सब्सिडी की भी घोषणा की है. पराली न जलाने के लिए किसानों को प्रोत्साहन के रूप में 1000 रुपये प्रति एकड़ दिया जाएगा. अगर सैटेलाइट उनके खेत में आग की रिपोर्ट देता है तो पैसा नहीं दिया जाएगा.”
इनके साथ उद्योग समर्थित समाधान भी तैयार किए गए. इसमें बायो-गैस आधारित बिजली उत्पादन आदि के लिए कच्चे माल के रूप में ठूंठ का उपयोग शामिल है. लेकिन समस्या यह है कि इस वक्त जितना ठूंठ वह प्रयोग कर रहे हैं वह वर्तमान कुल उत्पादन का बस एक छोटा सा हिस्सा है. पंजाब और हरियाणा में कुल पराली का उत्पादन क्रमश: 18.5 और 70 लाख टन है. यह इन राज्यों के कृषि विभागों द्वारा साझा किए गए आंकड़ों पर आधारित है.
मीडिया रिपोर्टें के मुताबिक पंजाब में कुल पराली का पुन: उपयोग 1.1 मिलियन टन (कुल पराली उत्पादन का 6%) से अधिक होने की संभावना नहीं है. लेकिन, पीपीसीबी के सदस्य सचिव कुनेश गर्ग ने मोंगाबे-इंडिया से बात करते हुए दावा किया कि यह आंकड़ा 20 लाख टन तक पहुंच जाएगा. उन्होंने बताया, “इस बार, हमने पेपर मिलों सहित विभिन्न उद्योगों के साथ करार किया है, जो अपने कारखानों में धान की पराली को कच्चे माल के रूप में इस्तेमाल करने के लिए तैयार हैं.”
लेकिन अगर राज्य 2 मिलियन टन धान की पराली का पुन: उपयोग करने का इंतजाम करता है, जो अभी अनिश्चित दिखता है, तब भी 11% से अधिक ठूंठ का उपयोग नहीं हो पाएगा.
दूसरी ओर, हरियाणा औद्योगिक क्षेत्र में 1.2 से 13 लाख टन धान की पराली, जो कुल पराली उत्पादन का 18% है, उपयोग में लाने की क्षमता है. कादियान ने कहा कि 2021 में कुल पराली का पुन: उपयोग 0.8 मिलियन टन था. अब पानीपत में इंडियन ऑयल कॉरपोरेशन द्वारा स्थापित एथेनॉल प्लांट के चालू होने से इस वर्ष से पराली के पुन: उपयोग में कम से कम 0.2 से 0.3 मिलियन टन की वृद्धि होगी.
इन-सीटू मॉडल की ओर फिर से ध्यान
इन सभी समाधानों के बीच मशीन-आधारित इन-सीटू (मिट्टी में पराली मिलाना) की ओर एक बार फिर सबका ध्यान जा रहा है. जब से 2018 में इस योजना को लॉन्च किया गया था, तब से केंद्रीय कृषि मंत्रालय ने पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और दिल्ली में किसानों को सब्सिडी वाली 2 लाख (200,000) से अधिक मशीनें वितरित कीं. इस पर 2.4 अरब रुपयों का खर्च आया. इसमें से 1.5 लाख (150,000) मशीनें अकेले पंजाब (90,000) और हरियाणा (60,000) में आयीं क्योंकि इस क्षेत्र में बर्निंग लोड सबसे अधिक है. इसी तरह करीब 58,000 मशीनें उत्तर प्रदेश भेजी गईं.
पराली जलाने के सबसे अधिक मामले पंजाब में देखे जा रहे हैं. वर्ष 2018 में यहां 51,764 मामले रिपोर्ट हुए थे, वहीं 2019 में 52,991 मामलों का खुलासा हुआ था. वर्ष 2020 में 76,929 और 2021 में 71,304 मामले सामने आए थे. हरियाणा, जहां धान का क्षेत्रफल पंजाब का आधा है, में 6,000-10,000 के बीच पराली जलाने के मामले दर्ज किए गए हैं. उदाहरण के लिए, 2018 में इसके 10,288 मामले थे, इसके बाद 2019 में अगले साल 6,700 मामले, 2020 में 9,898 मामले और फिर 2021 में 6,987 मामले सामने आए.
भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान (IARI) से प्राप्त आंकड़ों के अनुसार, उत्तर प्रदेश ने 2018 में 6,636 जलाने के मामले दर्ज किए, इसके बाद 2019 में 4,230 मामले, 2020 में 4,659 मामले और 2021 में 4,242 मामले सामने आए. दूसरी ओर, 2020 और 2021 में संबंधित मामलों में IARI डेटा का पता चला कि दिल्ली में नौ और चार मामले थे.
इस साल परली जलाने के मामलों को कम करने के लिए, केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने 21 सितंबर को दिल्ली में एक बैठक के लिए प्रभावित राज्यों – पंजाब, हरियाणा, दिल्ली और उत्तर प्रदेश के प्रतिनिधियों को बुलाया. इस बैठक में, अन्य 50,000 इन-सीटू पर्यावरण के अनुकूल, तेज और प्रभावी समाधान के रूप में बताई जाने वाली मशीनों पर इस वित्तीय वर्ष में 700 करोड़ रूपए के खर्च का प्रावधान रखा गया. इस क्षेत्र के अधिकांश किसान, ज्यादातर छोटे और सीमांत, कई कारणों से इन-सीटू मशीनों के उपयोग का विरोध करते हैं. इसमें ज्यादातर खर्च और दक्षता से संबंधित वजहों से विरोध करते हैं. इस साल भी, उन्होंने मीडिया रिपोर्टों में मुखर रूप से बात की है कि उनके पास अपने खेतों में आग लगाने के अलावा कोई विकल्प नहीं है. उनका कहना है कि सरकारें – चाहे राज्य हो या केंद्र – ने शायद ही उनकी मांगों पर ध्यान दिया हो.
किसानों की मुआवजे की मांग क्यों जायज है, इस पर किसान नेता बलबीर सिंह राजेवाल ने मोंगाबे-इंडिया को बताया कि पंजाब में 68% किसानों के पास 2.02 हेक्टेयर से कम भूमि है. ये छोटे और सीमांत किसान ऐसी मशीनें नहीं खरीद सकते हैं, जिनकी कीमत सब्सिडी के बाद भी 1.5 लाख रुपये है.
इसके अलावा, भले ही मशीनों को किराए पर लिया जाता है, लेकिन बड़े ट्रैक्टर को किराए पर लेने से लेकर डीजल तक का खर्चा होता है. अगर सरकार किसानों को प्रोत्साहित करती है, तो यह उनकी जिम्मेदारी बन जाती है कि वे पराली को जलाये बिना साफ करें – चाहे वह शारीरिक श्रम से हो या किसी अन्य तरीके से, राजेवाल ने कहा.
पंजाब में नई आम आदमी पार्टी (आप) सरकार ने इस साल जुलाई में केंद्र को एक प्रस्ताव भेजा था जिसमें राज्य के किसानों को 2,500 रुपये प्रति एकड़ मुआवजा देने का प्रस्ताव था. इसमें से हजार रुपए राज्य सरकार की ओर से दिया जाने का प्रस्ताव है.
लेकिन केंद्र ने इस प्रस्ताव को भारी लागत की वजह से खारिज कर दिया. इस साल पंजाब और हरियाणा दोनों में धान का रकबा करीब 4.4 मिलियन हेक्टेयर है, जिसमें पंजाब में 3.04 मिलियन हेक्टेयर और हरियाणा में 1.38 मिलियन हेक्टेयर शामिल हैं. यदि केंद्र को आप सरकार के प्रस्ताव के अनुसार अकेले पंजाब को मुआवजा देना होता, तो उसका एकमुश्त योगदान 1.1 अरब रुपयों का होगा.
खाद्य नीति विश्लेषक देविंदर शर्मा वित्तीय मुआवजे के पक्ष में तर्क देते हुए कहते हैं कि जब केंद्र सब्सिडी वाली मशीनों पर भारी पैसा खर्च कर सकता है, जिसका किसान वैसे भी उपयोग नहीं कर रहे हैं, तो पराली जलाने को रोकने के लिए नकद प्रोत्साहन देने में कुछ भी गलत नहीं है.
किसान इन-सीटू मशीनों के खिलाफ क्यों हैं?
आर्थिक तंगी के अलावा, किसानों की अन्य चिंताएं भी हैं. पंजाब के फरीदकोट के दीप सिंह वाला गांव के किसान पूरन सिंह ने मोंगाबे-इंडिया को बताया कि उन्होंने दो साल पहले अपने खेतों में इनमें से एक मशीन हैप्पी सीडर का इस्तेमाल किया था. यह बताते हुए कि यह कैसे काम करता है, उन्होंने कहा कि यह एक ट्रैक्टर पर लगाया जाता है जो अगली फसल के लिए गेहूं की बुवाई करते समय धान की ठूंठ को हटा देता है.
उन्होंने आश्चर्य से कहा, हैप्पी सीडर के साथ बोई गई गेहूं की फसल में कीटों का प्रकोप अधिक हो गया. इससे उनके गेहूं का उत्पादन कम हो गया और उन्हें भारी नुकसान हुआ. “मैंने इसके बाद इसका इस्तेमाल नहीं किया,” उन्होंने कहा.
पंजाब के नकोदर कस्बे के किसान गुरतेज सिंह ने कहा कि अगर कोई मशीन खरीद लेता है तो उसे छोटे ट्रैक्टरों पर नहीं चलाया जा सकता. इसके लिए एक बड़े ट्रैक्टर की जरूरत है, जिसकी कीमत कम से कम रु. 7-8 लाख रुपए है. उन्होंने कहा कि यही कारण है कि अधिकांश किसानों को पराली जलाने में सुविधा होती है.
पंजाब कृषि विश्वविद्यालय के अनुसंधान निदेशक अजमेर सिंह दत्त ने मोंगाबे-इंडिया को बताया कि ये चिंताएं अनुचित हैं. उन्होंने कहा कि सुपर सीडर को छोड़कर अन्य सभी मशीनों का उपयोग मध्यम ट्रैक्टरों में किया जा सकता है. “मुझे लगता है कि अभी किसान अपनी सुविधा को देख रहे हैं. जब उन्हें पता चलता है कि पराली को मिट्टी में मिलाने से उनके खेतों की मिट्टी का स्वास्थ्य कई गुना बढ़ जाता है, तो इन मशीनों या अन्य तरीकों का उपयोग बढ़ जाएगा,” दत्त ने कहा.
हालांकि, पंजाबी विश्वविद्यालय, पटियाला में अर्थशास्त्र विभाग में पढ़ाने वाले प्रोफेसर केसर सिंह भंगू ने मोंगाबे-इंडिया को बताया कि इन सब्सिडी वाली मशीनों से केवल मशीनरी निर्माताओं या बड़े किसानों को फायदा हुआ है.
वास्तविकता यह है कि पंजाब में पराली जलाने के मामले कम नहीं हुए हैं, यह एक स्पष्ट संकेत है कि अधिकांश किसान इसे खरीदने में रुचि नहीं रखते हैं. उन्होंने कहा कि यह प्रवृत्ति अन्य राज्यों में भी इसी तरह की है.
कैसे इन-सीटू मॉडल में खामियां हैं, इसका एक और उदाहरण पिछले महीने आया जब मौजूदा आप सरकार ने एक घोटाले का खुलासा करने का दावा किया. खुलासे के मुताबिक इन मशीनों की खरीद में 150 करोड़ का घोटाला हुआ है. प्रारंभिक जांच के अनुसार, 11,000 इन-सीटू मशीनें (अब तक वितरित कुल मशीनों का 13%) लाभार्थी किसानों तक कभी नहीं पहुंचीं. इसमें यह भी संदेह जताया जा रहा है कि मशीनों के वितरण को लेकर गलत एंट्री की गई.
प्रमुख कृषि वैज्ञानिक सरदारा सिंह जोहल ने मोंगाबे-इंडिया को बताया कि पराली जलाने की समस्या को कम से कम पंजाब और हरियाणा में हल किया जा सकता है. उनका सुझाव है कि अगर धान को चरणबद्ध तरीके से खत्म करने और इसे मक्का और दालों जैसी विविध फसलों के साथ बदलने पर ध्यान दिया जाए तो ऐसा हो सकता है.
उनका दावा है कि 60 के दशक में केंद्र और राज्य की आक्रामक नीतियों के कारण किसानों ने धान को अपनाया, जिसे बाद में हरित क्रांति के नाम से जाना जाने लगा. उस समय यह समय की मांग थी क्योंकि देश की आबादी का पेट भरना था. लेकिन पंजाब को इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ी. जोहल ने कहा, “धान की खेती के लिए आवश्यक पानी की भारी खपत (1 किलो धान के लिए 4000 लीटर पानी की जरूरत) के कारण हमारा भूजल खतरनाक स्तर तक नीचे पहुंच गया है.”
उन्होंने कहा कि पराली जलाना एक सालाना समस्या बन गया है. लंबे समय तक बहस के बावजूद धान को चरणबद्ध तरीके से क्यों नहीं हटाया जा सका, इस पर उन्होंने कहा कि यह एक लंबी बहस है, लेकिन मामले की जड़ यह है कि राज्य और केंद्र दोनों स्तरों पर राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी है.
(यह लेख मूलत: Mongabay पर प्रकाशित हुआ है.)
बैनर तस्वीर: पराली जलाने के स्थान पर मशीनों को किराए पर लेने या खरीदने की लागत छोटे और सीमांत किसान वहन नहीं कर सकते. तस्वीर- 2011CIAT / नील पामर / फ़्लिकर