जंगल, नदी, ज़मीन...पिछले 75 वर्षों में पर्यावरण को लेकर कितना बदला भारत
आज़ादी के पहले या उस वक़्त तक भारत में परम्परागत रूप से कारीगरी पर आधारित उद्योग थे. पश्चिमी दुनिया में औद्योगिक क्रान्ति होने के बाद मशीनों का अविष्कार और उपयोग बड़े पैमाने पर शुरू हुआ. अंग्रेज आये और अपने साथ मशीने लाये. उद्योगों में बड़ी मशीनों को चलाने के लिए बड़ी आबादी की ज़रूरत होती है और साथ ही कच्चे माल की. आज के दौर में भारत औद्योगिक विकास के लिए कच्चा माल देने और उससे तैयार हुआ माल खपाने का साधन बन गया है.
इसके साथ हुए बदलावों में एक बदलाव हुआ जिसको आज के दौर में नज़र अंदाज़ करना मुश्किल हो गया है. वह बदलाव है हमारे पर्यावरण में.
स्वच्छता का लेन-देन हमारी निजी रहन-सहन के मामले से जुड़ा होता है, और पर्यावरण का सम्बन्ध औद्योगिक गतिविधियों से.
एक उदहारण से इसे समझा जा सकता है. अंग्रेज भारत में रेल लेकर आये. रेल की पटरियों को बिछाने के लिए स्लीपर्स की ज़रूरत होने पर उन्होंने बड़े पैमाने पर जंगल काटे. इसी सिलसिले में रेल को चलाने के लिए कोयले की ज़रूरत थी. कोयले की खदानों को ढूढने के लिए जंगलों को काटे जाने की ज़रूरत थी. और जंगलों की कटाई की भी गई.
जंगल कटने की और भी वजहें थीं. कुल मिलाकर जंगलों की बेतहाशा कटाई हुई, कटाई से वर्षा में कमी हुई और सूखे की मार पड़ने लगी, जिसका असर फसलों पर हुआ. सिंचाई की व्यवस्था के लिए नहरों को बनाया गया. नहर बनें इसलिए नदियों को बांधा गया.
इन व्यवस्थाओं के बीच खेती की उपज बढ़ाने के लिए रासायनिक खाद का उपयोग भी किया जाने लगा. उत्पादन तो बढ़ा लेकिन रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के प्रयोग ने मिट्टी की संरचना पर नकारात्मक प्रभाव डाला. कुछ दशकों बाद किसानों को समझ आने लगा कि जिस यूरिया को वे सोना समझ बैठे थे वह उनकी ज़मीन को बंजर कर रहा है. उपजाऊ भूमि में कमी और वन कटाव के कारण हुए जलवायु परिवर्तन के परिणामस्वरूप जल के स्त्रोतों में भी भारी कमी आई. इन सब का सीधा असर जीवन पर दिखने लगा. तब लोगों में सुगबुगाहट शुरू हुई.
1972 में स्टॉकहोम में विश्व पर्यावरण सम्मेलन हुआ जिसमें भारत की तत्धाकालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी भी शामिल हुईं. वापस आने पर इंदिरा गांधी की पहल पर वन्यप्राणी संरक्षण अधिनियम-1972 बना.
1973 में चिपको आन्दोलन शुरू हुआ. उत्तराखंड के चमोली और टिहरी-गढ़वाल के लोग अपने पेड़ों को कटने से बचाने के लिए आंदोलित हुए थे.
1978 में केरल में साइलेंट वैली आन्दोलन हुआ जो केरल के पलक्कड़ जिले में पनबिजली की परियोजना के खिलाफ था.
फिर 1980 में वन संरक्षण अधिनियम पारित हुआ जिसके तहत कमर्शियल यूजेस के लिए जंगल की ज़मीनों का उपयोग करने के लिए सरकार से अनुमति लेना अनिवार्य हो गया.
1985 में नर्मदा बचाओ आन्दोलन हुआ, मेधा पाटकर और बाबा आमटे के साथ लाखों लोगों ने नर्मदा नदी पर बड़े बांध बनाने की परियोजना का विरोध किया.
1985 में ही एक और घटना हुई जिसने देश को अपने विकास के मॉडल पर फिर से सोचने पर मजबूर किया. भोपाल में यूनियन कार्बाइड कारखाने से गैस रिसने से हजारों लोग मारे गए. उसी साल केन्द्र सरकार ने पर्यावरण संरक्षण अधिनियम बनाया.
वैश्विक स्तर पर बिगड़ते पर्यावरण की व्यापक समझ 1990 के दशक में आई.
1992 में ब्राजील के रियो में बड़े स्तर पर शिखर सम्मेलन हुआ जो पृथ्वी सम्मेलन के नाम से जाना जाता है.
साल 2000 में भारत में म्युनिसिपल सॉलिड वेस्ट मैनेजमेंट रूल्स अस्तित्व में आये.
2003 में वाइल्ड लाइफ प्रोटेक्शन अमेंडमेंट एक्ट बनाया गया. विलुप्त हो रहे जीव-जंतु को मारने पर जुर्माने और सज़ा का प्रावधान बना.
2014 में वन और पर्यावरण मंत्रालय को पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय नाम दिया गया. यह नामकरण जलवायु परिवर्तन की तरफ भारत के सचेत होने की तरफ इशारा करता है.
2016 में प्लास्टिक वेस्ट मैनेजमेंट रूल्स बनाया गया.
2022 में पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय 1980 के वन संरक्षण नियमों में व्यापक बदलाव लाया. नई गाइडलाइन्स किसी भी प्राइवेट पार्टी को वहां के निवासी से बिना पूछे वन कटाई का अधिकार देती हैं. यह अधिकार वन अधिकार क़ानून के खिलाफ है. वन अधिकार कानून वन के निवासियों को अपने जंगलों का प्रबंधन स्वयं करने की क्षमता देता है. इसका उद्देश्य वन संसाधनों के दोहन को नियंत्रित करना, वन शासन में सुधार लाना और आदिवासी अधिकारों को सुनिश्चित करना था. इस नियम को मंज़ूरी मिलना भारत की पर्यावरण चेतना को दशकों पीछे धकेल देने के समान है.