शिक्षा का उद्देश्य क्या है? आकलन और बुनियादी शिक्षा...
जिस तरह शिक्षा के मूल उद्देश्य पर अलग-अलग मत हैं उसी तरह बच्चों ने कितना सीखा है, इसको समझाने के लिये किये जा रहे आकलन पर भी सभी एकमत नहीं है. इस संदर्भ में यक्ष प्रश्न है कि आकलन किसका हो?
शिक्षा में मूल्यांकन अथवा आकलन सदैव एक विवादास्पद विषय रहा है. इस विवाद के पीछे एक बुनियादी सवाल है कि “शिक्षा का उद्देश्य क्या है?” हमने सुना है कि शिक्षा का मतलब किसी ख़ाली पात्र में जल (या अमृत) भरना नहीं है अपितु, शिक्षा या ज्ञान वो चिंगारी है जो किसी व्यक्ति को अंधकार से आलोक की तरफ ले जा सकता है और उसे जीवन को जीने और समझने का पथ दिखाता है. हमारे पुराणों में कहा गया है “सा विद्या या विमुक्तये!“ अर्थात विद्या वही है जो मुक्त करे. परन्तु साथ ही हम यह भी जानते हैं की शिक्षा वो कुंजी है जो व्यक्ति को जीवन में आगे बढ़ने के लिए उचित ज्ञान व कौशल प्रदान करता है तथा इसके माध्यम से व्यक्ति अपने जीवन में आर्थिक और सामाजिक सफलता पा सकता है. महान् अर्थशास्त्री एवं नोबेल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन एवं अभिजीत बनर्जी इस बात की पुष्टि करते हैं की किसी भी अन्य साधनों की तुलना में शिक्षा, “लाइफ चांस” या “जीवन के अवसर” में वृद्धि करने का सबसे कारगर साधन है.
जिस तरह शिक्षा के मूल उद्देश्य पर अलग-अलग मत हैं उसी तरह बच्चों ने कितना सीखा है, इसको समझाने के लिये किये जा रहे आकलन पर भी सभी एकमत नहीं है. इस संदर्भ में यक्ष प्रश्न है कि आकलन किसका हो? विद्यार्थी का, शिक्षक का अथवा शिक्षा प्रणाली का? भारत उन राष्ट्रों में से है जिसने प्रारंभिक शिक्षा को संविधान के तहत मूलभूत अधिकार (शिक्षा का अधिकार, 2009) घोषित किया है, अर्थात, बिना किसी भेदभाव के सभी 6-14 आयु वर्ग के बच्चों को मुफ्त एवं अच्छी शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार है.
राष्ट्रीय स्तर पर किये जाने वाले उपलब्धि सर्वेक्षण NAS एवं ASER हमें बताते रहे हैं कि हमारे बच्चे अपनी उम्र और कक्षा के अनुसार नहीं सीख रहे. इनमे बुनियादी साक्षरता व संख्याज्ञान का अभाव तो सबसे गंभीर है. प्राथमिक विद्यालयों में पढ़ रहे 10 करोड़ से भी अधिक बच्चों में से आधे से भी ज़्यादा लगभग 55% दस साल की उम्र में अपनी भाषा के अक्षर, शब्द या वाक्य ठीक से पढ़, लिख नहीं पाते. वर्ल्ड बैंक इसे “लर्निंग पावर्टी” का नाम देता है. दुर्भाग्य की बात है कि न केवल भारत बल्कि विश्व के कई निम्न एवं मध्यम आय के देश (Low and Middle Income Countries) भी इस से ग्रस्त हैं. तो उसका ज़िम्मेदार कौन है? विद्यार्थी, शिक्षक, विद्यालय या शिक्षा प्रणाली?
इन्हीं प्रश्नों के समाधान के लिये राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 ने आकलन की प्रक्रिया में महत्वपूर्णं परिवर्तन करने की अनुषंसा की है. मिशन निपुण बिहार की सफलता के लिए अर्थात यह सुनिश्चित करने के लिए कि, हमारे विद्यालयों में कक्षा तीन में पढ़ने वाले सभी बच्चे भाषा एवं गणित की बुनियादी कौशल (कम्पेटेन्सी) में दक्ष हो जाएँ, आकलन की भूमिका महत्वपूर्ण है.
इसके तीन मुख्य कारण हैं जिन्हें मैं तीन प्रश्नों के रूप में प्रस्तुत और चर्चा कर रहा हूँः
- शिक्षक पढ़ा तो रहे हैं, पर क्या विद्यार्थी सीख रहे हैं? पांच से सात राज्यों में दो सौ से भी अधिक शिक्षकों, प्रधानाध्यापकों, अभिभावकों और पदाधिकारियों से वार्तालाप करते समय हमने पाया कि ‘सिलेबस को पूरा करना‘ अर्थात पाठ्य पुस्तक या अभ्यास पुस्तिका को सत्रावधि में पूरा करना ही शिक्षकों का प्राथमिक कर्तव्य माना जाता है, ‘विद्यार्थियों में बुनियादी दक्षताओं का विकास सुनिश्चित करवाना’ मायने नहीं रखता. हमारे विद्यालयों में हो रही शिक्षा एक आदान-प्रदान की, वार्तालाप की प्रक्रिया है और यह तभी पूर्ण होता है जब जो विषय जिस भाव और अर्थ के साथ बताया जाये वह उसी भाव और अर्थ के साथ समझा, सीखा और ग्रहण भी किया जाये. शिक्षा स्वतः या स्वाभाविक नहीं होती है, अर्थात केवल पढ़ा लेने भर से ये सुनिश्चित नहीं होता कि विद्यार्थी सीख गए हैं. सही आकलन से ही ये ज्ञात हो सकता है, कि शिक्षकों द्वारा जो पढ़ाया गया है, विद्यार्थिओं ने उसे कितना समझा है और उसका प्रयोग वो कितनी दक्षता के साथ कर पा रहे हैं?
- क्या सभी विद्यार्थी समान रूप से सीख रहे हैं? यह सवाल भी जितना सरल जान पड़ता है उतना है नहीं. राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 कहती है, कि सभी बच्चों में पढ़ने, लिखने और सामान्य गणित की दक्षताएँ कक्षा 3 के अन्त तक पूरी होनी चाहिये. मनोविज्ञान एवं शिक्षा के शोधकर्ता कहते है कि मानव की मस्तिष्क का अधिकतम (85-90%) विकास इसी (0-5) उम्र में होता है और जिन बच्चों की ये बुनियाद पक्की नहीं होती वो सदा के लिए पीछे रह जाते हैं. बुनियादी साक्षरता व भाषा ज्ञान की इस उम्र में विशेष महत्ता है क्यूंकि बच्चे इस उम्र में पढ़ना सीखते हैं, तत्पश्चात बच्चे पढ़ कर सीखते हैं. यह हम तभी जान पाएंगे जब हर एक विद्यार्थी का आकलन हो और ऐसे बच्चों को चिन्हित कर विशेष ध्यान दिया जाय जो अभी दक्ष नहीं हुए हैं.
- क्या हम प्रमाणिक तौर पर शिक्षा प्रणाली में परिवर्तन और सुधार कर रहे हैं? जैसा की हमने चर्चा की है, हमारे राज्यों की शिक्षा प्रणाली सभी बच्चों को विद्यालयों के द्वारा बुनियादी शिक्षा के अवसर दे तो रही है पर 50% से भी अधिक विद्यार्थी बुनियादी शिक्षा प्राप्त नहीं कर रहे हैं. अतः यह अनिवार्य है की हम इस शिक्षा प्रणाली में सुधार की प्रक्रिया को त्वरित करें. यह चिन्ता का विषय है की आज़ादी के 75 वर्षों के बाद भी हम ‘गुणवत्तापूर्ण बुनियादी शिक्षा’ के लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर पाए हैं. इसका एक मुख्य कारण है कि हमने पिछले सारे ‘अभियानों’ व ‘स्कीम्स’ में ‘इनपुट्स’ या संसाधनों के प्रावधान करने पर विषेष ध्यान दिया है . उदाहरण स्वरूप विद्यालयों की आधारभूत संरचना, शिक्षकों की बहाली, टॉयलेट, यूनिफार्म, मिड डे-मील, चाहरदीवारी इत्यादि के लिए धनराशि उपलब्ध कराना. हमने इस विषय पर कम ध्यान दिया है की इन प्रावधानों का उपयोग कितने प्रभावशाली रूप में हो रहा है और उसका बच्चों के शैक्षणिक स्तर पर क्या असर पड़ रहा है. क्या इन प्रयासों के फलस्वरूप छात्रों के ‘शैक्षणिक स्तर’ या ‘लर्निंग आउटकम’ में कोई सकारात्मक परिवर्तन हो रहा है?
आकलन यह जानने में सहायता करता है कि विद्यार्थियों के लिए ‘कठिन बिन्दु’ कौन से हैं जहाँ शिक्षकों को विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है? उन्हें सुधारने के लिए षिक्षा व्यवस्था को पाठ्य पुस्तकों में, अथवा शिक्षक प्रशिक्षण में क्या परिवर्तन करने चाहिए? हम प्रत्येक वर्ष शिक्षक प्रशिक्षण, शिक्षण अधिगम सामग्री, क्लासरूम ऑब्जरवेशन के टूल्स इत्यादि बनाते तो हैं पर प्रमाणिक तौर पर ये नहीं देखते कि ये कितने प्रभावशाली हैं और इनमे क्या सुधार करने की आवश्यकता है? हम यह भी नहीं जान पाते कि यदि किसी विषय में, किसी क्षेत्र के विद्यार्थी अच्छा भी कर रहे हैंए तो क्यों? इससे हम क्या सीख सकते हैं?
अतएव, विद्यार्थियों के लिए बुनियादी शिक्षा सुनिश्चित करने के लिए आकलन की महत्वपूर्ण भूमिका है. अब इस विषय पर भी चर्चा करते हैं की आकलन किस तरह के होते हैं, उनके उद्देश्य और प्रयोग क्या-क्या हो सकते हैं? विद्यालयों में मूल्यांकन या परीक्षाएं तो होती ही हैं, जैसे की दसवीं में बोर्ड की परीक्षा, वार्षिक परीक्षा, मासिक या यूनिट टेस्ट इत्यादि. हमने पिछले कई वर्षों में आकलन/मूल्यांकन की प्रक्रिया में कई पहल भी किये हैं जैसे कि सतत एवं व्यापक मूल्यांकन, समग्र प्रगति पत्रक इत्यादि. शिक्षा व्यवस्था के आकलन को समझने के लिये राष्ट्रीय एवं राज्य स्तर पर राष्ट्रीय उपलब्धि सर्वेक्षण, असर, राज्य उपलब्धि सर्वेक्षण इत्यादि किये जाते हैं. इन सभी आकलन की प्रक्रिया को समझने के लिए मैं एक 4X4 मैट्रिक्स प्रस्तुत करता हूँ.
इस मैट्रिक्स को समझने से पहले हमें असेसमेंट ऑफ़ लर्निंग यानी सीखने का आकलन एवं असेसमेंट फॉर लर्निंग यानी सीखने के लिए आकलन को समझना चाहिये. सीखने का आकलन का उद्देश्य यह होता है कि हम सटीक रूप से जान पाएं कि विद्यार्थियों ने कितना सीखा या समझा है और वह बुनियादी शिक्षा (भाषा एवं गणित) के कौशलों में कितने दक्ष हैं जबकि सीखने के लिए आकलन का उद्देश्य यह होता है कि शिक्षक यह जान पाए कि उसने जो कक्षा में पढ़ाया है उसे विद्यार्थी ने पूरी तरह समझा है या नहीं और यदि नहीं तो उसको एक दूसरे तरीके से सिखाने का पुनः प्रयत्न करे और तब तक करे जब तक कि वह विद्यार्थी उसमे दक्ष न हो जाये.
अब इस मैट्रिक्स के चारों खानों के बारे में बात कर ली जाये:
1. विद्यालय द्वारा किये जाने वाले आकलनः यह विद्यालय स्तर पर शिक्षकों के प्रयोग के लिए किये जाते हैं. विद्यालयों के द्वारा किये जाने वाले आकलन दो प्रकार के हैं:
A. रचनात्मक आकलन (फॉर्मेटिव असेसमेंट): इस आकलन का उद्देश्य व उपयोग शिक्षक के द्वारा कक्षा में विद्यार्थियों को पढ़ने और सीखने में सहायता करने के उद्देश्य से किया जाता है. शिक्षकों को यह समझना होगा कि सिर्फ सिलेबस ख़त्म कर लेना, या कक्षा में आ कर पढ़ा लेने भर से ही उनकी जिम्मेदारी समाप्त नहीं होती है. उन्हें पढ़ाने के साथ-साथ हर समय यह परख़ना होगा की जो कुछ उन्होंने पढ़ाया विद्यार्थियों ने उसे ठीक तरीके से सीखा अथवा नहीं? यह आकलन पढ़ाते समय विद्यार्थियों को ध्यान से देखना और उनसे प्रश्न पूछना जिससे यह समझा जा सके बच्चे ने पाठ को समझ लिया है कि नहीं? मेरे एक मित्र इस आकलन को वैसा ही मानते हैं जैसा की भोजन या कोई स्वादिष्ट पकवान बनाते समय उसे बीच-बीच में चखना, और उसमें स्वादानुसार नमक, चीनी इत्यादि डालना ताकि वह पकवान सही बन जाए. मैं इस प्रकार के आकलन को शिक्षण प्रक्रिया का ही अभिन्न अंग मानता हूँ. शिक्षक अगर चाहें तो इन आकलन का रिकॉर्ड भी रख सकते हैं.
B. योगात्मक आकलन (समेटिव असेसमेंट): इस आकलन का उद्देश्य है कि एक अन्तराल या वर्ष के अंत तक यह जान लिया जाए कि कितने बच्चे उन दक्षताओं को प्राप्त कर चुके हैं जो उन्हें उस समय तक कर लेने चाहिए. इस आकलन का प्रयोग शिक्षक या विद्यालय द्वारा आगे की रणनीति तय करने के लिए करनी चाहिए. इन आकलन का प्रयोग अभिभावकों से समग्र प्रगति पत्रक इत्यादि के द्वारा संवाद करने हेतु भी किया जा सकता है.
2. शिक्षा प्रणाली द्वारा किये जाने वाले आकलनः जैसा कि हम जानते है के हमारे सरकारी विद्यालय एक व्यवस्था का हिस्सा हैं और ये व्यवस्था राज्य, जिलों एवं प्रखंड के शिक्षा पदाधिकारियों एवं ऐसे सभी व्यक्ति जो नीति निर्धारण में सम्मिलित हैं को मिलाकर बनता है. इस व्यवस्था की भी अपनी जांच-परख करनी चाहिए जिससे यह पता लगाया जा सके कि वह ठीक तरीके से काम कर रहा है या नहीं. व्यवस्था का आकलन निम्न तरीके से किया जा सकता है -
A. Key Stage Census Assessments% इस प्रकार के आकलन में सभी छात्र जो हमारी शिक्षा प्रणाली का हिस्सा हैं का वर्ष के अंत में मानकीकृत आकलन किया जाता है. इसका उद्देश्य यह पता लगाना है कि शिक्षा के विभिन्न पड़ावों पर कितने विद्यार्थियों ने उम्र सापेक्ष दक्षतायें हासिल कर लिए हैं? नयी शिक्षा नीति (2020) अब स्कूली शिक्षा के चार पड़ाव बताती है - फॉउंडेशन (वर्ष 3 से कक्षा 2 तक), प्रिपरेटरी (कक्षा 3 से कक्षा 5), मिडिल (कक्षा 6 से कक्षा 8), सेकेंडरी (कक्षा 9 से कक्षा 12). अब यह आवश्यक है की आगे इन पड़ावों के अंत में हम यह जान लें कि हमने अपने लक्ष्यों को किस स्तर तक प्राप्त कर लिया है और कितना बाकी है. आगे की रणनीति तदनुसार तय करनी होगी.
B. उपलब्धि सर्वेक्षणः इस प्रकार के आकलन का उद्देश्य छात्रों, शिक्षकों या विद्यालयों का आकलन करना नहीं है, अपितु यह जानना है कि हमारी शिक्षा प्रणाली बच्चों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान करने में कितनी प्रभावशाली रही है. उदाहरणस्वरुप वर्ष 2022 में सेंट्रल स्क्वायर फाउंडेशन ने बिहार समेत 6 राज्यों में राज्य व जिले स्तर पर बुनियादी कक्षाओं के लिए बेसलाइन सर्वे करने में सहयोग किया. ये सर्वे राज्य स्तर पर संबंधित SCERT द्वारा किये गए और उसे करने में शिक्षा विभाग, समग्र शिक्षा परियोजना के पदाधिकारियों का सहयोग मिला. राज्य ने इसके लिए विष्व भर में प्रयोग किये जाने वाले EGRA (Early Grade Reading Assessment), EGMA (Early Grade Mathematics Assessment) के टूल इस्तेमाल किये जिन्हें भारत और सभी राज्यों के लिए contextualise किया गया. इस टूल के माध्यम से बुनियादी साक्षरता व संख्याज्ञान के लिए जो दक्षतायें एवं अधिगम प्रतिफल आवश्यक हैं उसके आधार पर सैंपल आधारित सर्वे किया गया एवं यह आकलन किया गया कि जिले व राज्य के स्तर पर छात्र कितनी दक्षता प्राप्त कर चुके है. कुछ राज्यों में सर्वे को कम समय एवं कम लागत में सटीक तरीके से करने के लिए टेक्नोलॉजी का प्रयोग डाटा कलेक्शन (Tangerine App), डाटा संरक्षण एवं विश्लेषण (Statistical, Analytical, Data science methods & softwares) के लिए किया गया.
परिणामों के आधार पर राज्य व जिलों के अधिकारियों को यह ज्ञात हो सका कि उनका जिला या राज्य आज बुनियादी शिक्षा में कहाँ पर है और सभी राज्यों ने इन परिणामों को तीन मुख्य रूपों से प्रयोग कियाः
- अपने अल्पकालीन एवं दीर्घकालीन लक्ष्य निर्धारित करने में.
- प्रोग्राम के मुख्य अवयवों जैसे कि शिक्षक अधिगम सामग्री, शिक्षक प्रशिक्षण के तरीकों में सुधार करना, और
- शिक्षकों और विद्यालओं को इन दक्षताओं के बारे में और उनमे अपने जिले व राज्य के वर्तामान के प्रदर्शन को आगे किस तरह बेहतर किया जाये इस पर चर्चा करने में.
निष्कर्ष
भारत के सभी राज्यों की शिक्षा प्रणाली बहुत ही विशाल, विस्तृत और विविध है. उदहारण के तौर पर बिहार का सरकारी प्राथमिक शिक्षा व्यवस्था, कई पश्चिमी देशों की जनसंख्या से अधिक है, - जहां लगभग 1 करोड़ बच्चे, 2.5 लाख शिक्षकों के साथ, 63 हज़ार स्कूलों में पढ़ते हैं. इतनी बड़ी शिक्षा प्रणाली में सुधार लाना सरल नहीं है और छोटे से छोटा परिवर्तन करने में भी वर्षों लग जाते हैं. 25-30 वर्षों के अथक प्रयासों के बाद यह संभव हुआ है कि लगभग सारे बच्चों का स्कूलों में नामांकन तो है पर अभी भी नियमित रूप से केवल 55-60% बच्चे ही स्कूल आते हैं. ऐसे में सभी बच्चों का बुनियादी शिक्षा सुनिश्चित करने के लिये बेहतर आकलन की व्यवस्था सुनिश्चित करना आवश्यक है.
(लेखक ‘Central Square Foundation’ के Strategic Support States विभाग के प्रोजेक्ट डायरेक्टर हैं. आलेख में व्यक्त विचार लेखक के हैं. YourStory का उनसे सहमत होना अनिवार्य नहीं है.)
Edited by रविकांत पारीक