पाकिस्तानी गोलियों से छलनी सौ साल की प्रद्युम्न कौर ने जब बनवाया गुरुद्वारा
भारत-पाक बंटवारे के दौरान चार गोलियां लगने के बावजूद पड़ोसी मुल्क से वतन लौट आईं प्रद्युम्न सिंह कौर आज सौ साल की हो चुकी हैं। वह और उनके पति ने अपने परदादा संत जोगा सिंह की याद में 1960 में भोपाल के गोविंदपुरा गांव में जमीन लेकर गुरुद्वारा बनवाया। वह आज भी वहीं पर दिन-रात उसकी सेवादारी में लीन रहती हैं।
आज देश लोहड़ी का त्योहार मना रहा है। जहां-जहां गुरुद्वारे, वहां-वहां लोहड़ी के अनोखे रंग, होली की तरह ही फसलों का त्योहार है लोहड़ी। त्योहारों के रंग में कभी कभी कुछ ऐसी दास्तान मन की दिशा बदल देती हैं, जो प्रेरक होने के साथ ही पूरे समाज को संदेश देने वाली होती हैं कि जीवट हो तो आदमी कच्चा लोहा भी मोड़ सकता है।
हर बड़ी कामयाबी के पीछे स्त्री-पुरुष के हाथ होने की बात तो कहने की है, लक्ष्य तक सफलता के मोकाम सिर्फ और सिर्फ जीवट से मिला करते हैं। वे मोकाम भौतिक हों आध्यात्मिक।
आइए, लोहड़ी पर एक ऐसी ही महिला शख्सियत से रू-ब-रू होते हैं, भोपाल के जोगा सिंह गुरुद्वारे की प्रद्युम्न सिंह कौर, जो इस समय अपनी जिंदगी का सौवां साल पूरा कर रही हैं। उन्होंने भोपाल के ओल्ड सुभाष नगर स्थित इस गुरुद्वारे का स्वयं निर्माण कराया है।
प्रद्युम्न सिंह कौर की जिंदगी के रास्ते बड़े आसामान्य, टेढ़े-मेढ़े से रहे हैं। देश के बंटवारे और कश्मीरी हिंदू-सिख समुदाय पर अत्याचार की दास्तान सुनातीं प्रद्युम्न कौर बताती हैं कि ये गुरुद्वारा 1960 में पाक अधिकृत कश्मीर स्थित डेरा गुफा मुज्जफराबाद की याद में उन्होंने बनवाया है।
अक्टूबर 1947 में पाकिस्तानी सेना ने मुज्जफराबाद के गुरुद्वारे को कबाइलियों की मदद से फूंक दिया था। उनके मन में आज भी मुज्जफराबाद और गुरुद्वारे पर हमले की वे बर्बर यादें कौंधती रहती हैं। उस समय मुज्जफराबाद काफी खुशहाल इलाका था। वहां से सीधे एबटाबाद और रावलपिंडी जाना-आना होता था। वह भी कई उन दोनों शहरों तक पर जा चुकी हैं।
उन दिनों भारत की आजादी का वक़्त था। कश्मीर में काफी हलचल थी। हालात बिगड़ रहे थे। अफवाहें खौफ पैदा कर रही थीं। वहीं पर उनके परदादा जोगा सिंह ने गुरुद्वारा बनवाया, जो उस समय पंजाब समेत पूरे कश्मीर में संत की तरह ख्यात रहे। उस समय आस-पास के इलाकों से करीब तीन सौ लोग गुरुद्वारे में आ गए थे। संत बाबा किशन सिंह सब संभाल रहे थे।
कौर बताती है कि उनके परिवार के लोगों ने किशन सिंह को मुज्जफराबाद छोड़ने कहा तो वह नहीं माने। बोले कि मौत से क्या डरना। वह अपने गुरु को छोड़कर कहीं नहीं जाएंगे। वह अक्टूबर का महीना था। अचानक तोप गरजने लगी। कौर बताती हैं कि उन्होंने तुरंत गुरुद्वारे की खिड़की खोली तो देखा कि पाकिस्तानी फौज मुज्जफराबाद में घुसी आ रही है।
थोड़ी देर बाद ही वह गुरुद्वारे पर आ गई। फायरिंग करने लगी। उस समय किशन सिंह गुरुग्रंथ साहिब का पाठ कर रहे थे। गोली लगने से गिर गए। गुरुद्वारे में शवों का ढेर लग गया। गुरुद्वारे के पिछले दरवाजे के रास्ते वह महिलाओं के साथ वहां से बच निकलीं। पाकिस्तानी सैनिक और कबाइली पीछा करने लगे। बाकी महिलाएं गोलियों से ढेर हो गईं।
एक गोली उनकी भी पीठ में लगी। पीठ पर हाथ लगाया तो दूसरी गोली हथेली चीरकर पीठ में धंस गई। कुल चार गोलियां लगीं। सैनिक उनको पाकिस्तान उठा ले गए। वहां उनके प्रति व्यवहार अच्छा रहा क्योंकि वे मेरे परिवार को जानते थे। कुछ महीने बाद उन्होंने मुझे भारत भेज दिया।
कौर बताती हैं कि भारत आकर कुछ दिन बाद उन्हे पता चला कि मुज्जफराबाद का गुरुद्वारा पाकिस्तानियों ने लूटकर फूंक दिया है। उस घटना के लगभग सालभर बाद उनकी पहले से परिचित जसवंत सिंह से शादी हो गई। उसके बाद वह उनके साथ भोपाल चली आईं। यहां उस समय दो या तीन गुरुद्वारे थे।
फिर वह और उनके पति ने सन् 1960 में गोविंदपुरा गांव में जमीन लेकर अपने दादाजी की याद में ये जोगासिंह गुरुद्वारा बनवाया। वही जोगा सिंह, जिन्हें आज भी कश्मीर और पंजाब के लोग संत और पीर के रूप में याद करते हैं। मानसेरा, हरिपुर, हवेलियां, गली तेलीया, लूण मंडी, अमृतसर, फतेहकदल, श्रीनगर, मुज्जफराबाद, कश्मीर में बाबा जोगा सिंह के बनवाए डेरे आज भी उनकी याद दिलाते हैं।