बंगाल का भीषण अकाल और विंस्टन चर्चिल का सवाल ‘गांधी अब तक क्यों नहीं मरे?’ कौन थे विंस्टन चर्चिल?
विंस्टन चर्चिल (Winston Churchil) साधारणतः ब्रिटेन और दुनिया के इतिहास में सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण नेता माने जाते रहे हैं. दुसरे विश्व युद्ध के दौरान वे यूनाइटेड किंगडम के प्रधानमंत्री (United Kingdom's primeminister) थे. वे एक ऐसी शख़्सियत के रूप में याद किए जाते रहे हैं जिसने द्वितीय विश्वयुद्ध (World War II) के नाज़ी-विरोधी संघर्ष में ब्रिटेन को अडिग रखा वो भी ऐसे समय में जब सत्ता और स्थापना से जुड़े बहुत सारे लोग शांति चाहते थे.
लेकिन नाज़ी-विरोधी संघर्ष के महान ‘नायक’ विंस्टन चर्चिल की साम्राज्यवाद धारणाएं स्वतंत्रता और लोकतंत्र के मोर्चे पर पर हमेशा लड़खड़ाईं.
चर्चिल साम्राज्यवाद के कट्टर समर्थक थे और उनके द्वारा कहे गए शब्द ही ख़ुद उन्हें नस्लवाद और यहूदी-विरोध का दोषी ठहराते हैं. वे लोगों को “नस्ल के रूप में कमतर” मानते थे उनके ऊपर साम्राज्यवादी ताकतों का मालिकाना हक सही मानते थे. उन्होंने कहा था, “मैं स्वीकार नहीं करता,” कि “अमेरिका के रेड इंडियंस या ऑस्ट्रेलिया के अश्वेत लोगों के साथ कुछ गलत हुआ है, क्योंकि एक ऊंची और अधिक ताकतवर नस्ल ने उनकी जगह कमान संभाली है.” अफ़गानिस्तान के लिए चर्चिल के शब्द थे कि पश्तूनों के लिए “[ब्रिटिश] नस्ल की श्रेष्ठता को पहचानना आवश्यक है” और “ऐसा कोई भी व्यक्ति जो इसका विरोध करेगा बिना किसी संकोच मारा जाएगा”.
चर्चिल मानते थे कि “केवल शब्द ही हैं जो हमेशा ज़िंदा रहते हैं.”
सही कहते थे चर्चिल. “अमानुषिक धर्म को मानने वाले अमानुषिक लोग”, जैसा कि उन्होंने लोकप्रिय रूप से कहा था, आज भी भारतीयों को याद हैं. चर्चिल की प्रतिष्ठा पर भारत जैसे दूसरे स्थानों में किए गए हमलों पर क्या कहा जाए?
विंस्टन चर्चिल का मानना था कि भारतीयों में शासन करने की योग्यता नहीं है. और अगर भारत को स्वतंत्र भी कर दिया जाए तो भारत पर शासन नहीं कर पाएंगे. भारतीयों के प्रति उनकी अरुचि ('वे जानवर जैसे लोग हैं और उनका धर्म भी पशुओं जैसा है') और महात्मा गांधी के प्रति उनकी घृणा इतिहास में दर्ज है.
इतना ही नहीं, इतिहास में तो ये भी दर्ज़ है कि दूसरे विश्व युद्ध में जब हिन्दुस्तानी फ़ौजी अंग्रेजों की तरफ़ से लड़ते हुए उनकी जीत के लिए जान दांव पर लगा रहे थे, तब भी चर्चिल का दिल हिन्दुस्तान के लिए नहीं पसीजा. ब्रिटेन के ही मीडिया हाउस बीबीसी की रिपोर्ट में ज़िक्र है, चर्चिल के दौर में बंगाल में पड़े भयानक अकाल का. इस अकाल के दौरान क़रीब तीस लाख लोग भूख से मारे गए थे. यह तादाद दूसरे विश्व युद्ध में ब्रिटिश सम्राज्य के अंदर मारे गए लोगों से क़रीब छह गुना ज़्यादा है.
बंगाल के अकाल में 30 लाख से अधिक मौतें
युद्ध की जीत और उसमें हुए नुक़सान को तो याद किया जाता है लेकिन दूसरे विश्व युद्ध के दौरान ही ब्रितानी हुकूमत वाले बंगाल में हुई इतनी बड़ी मानवीय त्रासदी को लगभग भुला दिया जाता है. 1943 का बंगाल का अकाल (Bengal famine) औपनिवेशिक इतिहास का काला अध्याय है. प्रत्यक्षदर्शी उस दौर को याद करते हुए बताते हैं कि कैसे खेतों में लाशें पड़ी हुई थीं. नदियों में मरे हुए लोगों की लाशें तैर रही थीं और कैसे कुत्ते और गिद्ध लाशों को नोचकर खा रहे थे. इतने बड़े पैमाने पर किसी की भी न हिम्मत थी उन लाशों के अंतिम क्रिया क्रम करने की और ना ही सामर्थ्य.
कुछ लोगों का कहना है कि चर्चिल ने भले ही भारत के बारे में अशोभनीय टिप्पणी की होगी लेकिन उन्होंने मदद करने की भी कोशिश ज़रूर की थी. युद्ध की वजह से इसमें देरी हुई. हम चर्चिल को अकाल के लिए किसी भी तरह से दोषी नहीं ठहरा सकते हैं.
लेकिन क्या हम इतना भी नहीं कह सकते कि सक्षम होने के बावजूद चर्चिल ने अकाल में राहत पहुंचाने की कोशिश नहीं की. क्या यह अन्यायपूर्ण नहीं था जब चर्चिल ने जानबूझकर भारतीय नागरिकों के लिए ज़रूरी अनाज को उन तक पहुंचने से रोका और यह अनाज उन्होंने ग्रीस और अन्य जगहों पर यूरोपीय भंडार को भरने के लिए भेजा. क्या यह अन्यायपूर्ण नहीं था जब भारत के अपने अतिरिक्त खाद्यान्न सीलोन निर्यात किए गए थे या जब बंगाल में भूखमरी थी तब ब्रिटिश सरकार ने भारतीय बाज़ार में अनाज के लिए बढ़ी कीमतें तय कीं, जिससे यह अनाज आम भारतीयों के लिए महंगा और उनकी पहुंच से बाहर हो गय और भारतीय मरते गए या यूं कहें….मारे गए.
जब कुछ ब्रिटिश अधिकारियों ने प्रधानमंत्री चर्चिल को एक टेलीग्राम के ज़रिए बताया कि उनके फैसलों से भारत में कितने बड़े पैमाने पर त्रासदी फैली है तो चर्चिल की केवल एक प्रतिक्रिया थी, जिसमें उन्होंने वायसराय, लॉर्ड वेवेल से पूछा: ‘गांधी अब तक क्यों नहीं मरे?’