बहनों ने कॉरपोरेट की नौकरी छोड़ शुरू किया अपना बिजनेस, आज है 50 करोड़ का टर्नओवर

सुजाता और तानिया विश्‍वास के स्‍टार्ट-अप सुता को है जल्‍द ही यूनीकॉर्न होने की उम्‍मीद.

बहनों ने कॉरपोरेट की नौकरी छोड़ शुरू किया अपना बिजनेस, आज है 50 करोड़ का टर्नओवर

Monday February 20, 2023,

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सुता (Suta) यानी सूत. इस बांग्‍ला देशज शब्‍द का अर्थ है धागा. एक छोटा, महीन, बारीक सा धागा. अकेला हो तो कोई बिसात नहीं और जो अपने जैसे और हजारों रंग-बिरंगे धागों के साथ मिल जाए तो कलाकारी की ऐसी अनूठी छवि कि देखते हुए आंख न झपके.

कुछ ऐसी ही हैं सुता की साडि़यां. मानो वस्‍त्र नहीं, चलता-फिरता कला का नमूना हो. इतनी नर्म और मखमली कि हाथ लगाओ तो हथेली नर्म हो जाओ. ऐसे शांत, सौम्‍य रंग कि आंखों को ठंडक आ जाए. एक-एक साड़ी मानो हाई स्‍पीड प्रोडक्‍शन वाली रुखी बेजान मशीनों से नहीं, बल्कि हाथों की मेहनत, कारीगरी और लगन से बनी हो. हर साड़ी के पीछे एक कहानी है. एक सोच, एक कविता.

पेशे से बिजनेस वुमेन और मिजाज से कलाकार

सुता की साडि़यों जैसी ही सौम्‍य और कलाकारी से भरी हैं सुता की फाउंडर दोनों बहनें. सुजाता और तानिया बिस्‍वास. पेशे से बिजनेस वुमेन और मिजाज से कलाकार. सुता की साडि़यों में एक खास तरह की महक होती है. पैकेट खोलते ही पूरा कमरा मानो उसकी खुशबू में सराबोर हो जाता है. बाकी कपड़ों से भी महक आती है, लेकिन पैकेट, मशीनों और केमिकल्‍स की. लेकिन सुता की साडि़यों से कभी जैसमीन, कभी मोगरे तो कभी हरसिंगार की महक उठती है.

ये कपड़ों को यूं खुशबुओं में लपेटकर बेचने का आइडिया कैसे आया. इस सवाल के जवाब में वो कहती हैं, “बचपन में जब हम बगीचे में छुपम-छुपाई या आइस-पाइस खेलते थे तो तार पर सूख रहे गीले कपड़ों के बीच दौड़ा करते थे. उन कपड़ों की महक आज भी मेरे जेहन में बसी है. बस उसी की याद में हमने सोचा कि हमारे कपड़ों की पहचान भी एक महक होनी चाहिए. परफ्यूम की महक नहीं, यादों की महक.”

women start-up founders suta sujata and Taniya biswas

सात साल पहले शुरू हुआ एक सफर

तारीख थी 1 अप्रैल, साल 2016, जब सुजाता और तानिया ने कॉरपोरेट की द‍ुनिया में अपने बसे-बसाए कॅरियर को छोड़कर एक दुनिया बसाने की शुरुआत की. अपना खुद का स्‍टार्टअप. पैरेंट्स को शुरू में यह बात समझने में मुश्किल हुई. बंगाली परिवार में पहले कभी किसी ने बिजनेस नहीं किया था. पिता रेलवे की नौकरी में थे. घर में संगीत का, साहित्‍य का, कला का माहौल था. व्‍यापार को किसी दूसरी दुनिया की चीज थी.

ऐसे में जब एक दिन मि. बिस्‍वास की बेटियों ने घोषणा की कि अब वो लाखों के पैकेज वाली नौकरी छोड़कर, अपनी जमा पूंजी लगाकर खुद का बिजनेस करेंगी तो पहाड़ तो गिरना ही था. माता-पिता ने बेमन से स्‍वीकारा, लेकिन उन्‍हें क्‍या पता था कि एक दिन उन्‍हें न सिर्फ अपनी बेटियों के उसी फैसले पर गर्व होगा, बल्कि ताउम्र हाउस वाइफ रही मां को भी पहली नौकरी बेटियों के स्‍टार्ट-अप में ही मिलेगी.   

तानिया की मॉडलिंग और सुजाता की फोटोग्राफी

तो इस तरह एक दिन सुता की शुरुआत हुई, बल्कि यूं कहें कि 2016 में सुता के शुरू होने से काफी पहले ही उसकी शुरुआत हो चुकी थी. तानिया को सुंदर कपड़े पहनकर सजने, मॉडलिंग करने का बड़ा शौक था और स्‍वभाव से थोड़ा संकोची, शर्मीली सुजाता को तस्‍वीरें खींचने का. तानिया अपने कपड़े भी खुद डिजाइन किया करती थीं.

इस दिलकश मॉडल के पास फोटो खिंचाने के लिए अलग से कोई जगह भी नहीं थी तो कभी घर की छत पर, गली में, सड़क पर, किसी पुरानी खंडहर दुकान के सामने, बरगद के पेड़ के नीचे या समंदर के किनारे. तानिया अपने डिजाइन किए हुए कपड़े पहनकर मॉडलिंग करतीं और सुजाता फोटो खींचती.

जब फेसबुक पर लोग देने लगे कपड़ों के ऑर्डर

फिर उन्‍होंने एक दिन यूं ही शौक-शौक में ये तस्‍वीरें फेसबुक पर डाल दीं. वहां आई प्रतिक्रियाओं से लगा कि यह काम लोगों को पसंद आया है. धीरे-धीरे लोग पूछने लगे कि ये ड्रेस कहां से बनवाई. फिर ठीक वैसी ही ड्रेस की डिमांड भी आने लगी. एक भूरे और काले रंग की दाबू प्रिंट की ड्रेस थी, जो 1400 रुपए में बिकी. इस तरह शौक में शुरू हुए एक काम ने एक छोटे से बिजनेस का रूप ले लिया.

women start-up founders suta sujata and Taniya biswas

उस वक्‍त दोनों बहनें नौकरी कर रही थीं. सो छुट्टी वाले दिन दोनों सेंटा क्रूज से लोकल ट्रेन पकड़कर क्रॉफर्ड मार्केट जातीं और वहां से थोक में कपड़ों की खरीदारी करतीं. ट्रेलर को एक-एक डीटेल बताकर उससे ड्रेस बनवातीं और फेसबुक पर डालतीं.

अब वो हर नई पोशाक के साथ उसके बनने की कहानी, डिजाइन की डीटेल और प्राइस भी लिखने लगीं. धीरे-धीरे डिमांड भी बढ़ी. लोग जुड़ते गए, कारवां बनता गया.

इस काम ने जैसे-जैसे आकार लेना शुरू किया, उन्‍हें लगा कि अगर वो हफ्तों के सातों दिन और चौबीसों घंटे यही काम करें तो इसे एक बड़े प्रॉफिटेबल बिजनेस में बदल सकती हैं. बस थोड़ी सी हिम्‍मत चाहिए थी, थोड़ी जमा पूंजी और थोड़ा सा लोन.

पश्चिम बंगाल के गांवों में बुनकरों की खोज

शुरुआत हुई पश्चिम बंगाल के शांतिपुर में बुनकरों को ढूंढने से. उमस भरी गर्मी में एक पूरी दोपहर शांतिपुर के फूलिया गांव में भटकने के बाद उनकी मुलाकात हुई सूरज और मालिनी से, जो इनके लिए साडि़यां बुनने को तैयार हो गए. उन्‍होंने कहा कि उन्‍हें बिलकुल सादी बिना स्‍टार्च वाली साड़ी चाहिए. एक हरी, एक गुलाबी और 4 सफेद साडि़यों का पहला ऑर्डर दिया. अपनी वेबसाइट बनाई और पहले प्रोडक्‍ट की तस्‍वीरें पोस्‍ट कीं.

इस दिलकश मॉडल के पास फोटो खिंचाने के लिए अलग से कोई जगह भी नहीं थी तो कभी घर की छत पर, गली में, सड़क पर, किसी पुरानी खंडहर दुकान के सामने, बरगद के पेड़ के नीचे या समंदर के किनारे. तानिया अपने डिजाइन किए हुए कपड़े पहनकर मॉडलिंग करतीं और सुजाता फोटो खींचती.   जब फेसबुक पर लोग देने लगे कपड़ों के ऑर्डर   फिर उन्‍होंने एक दिन यूं ही शौक-शौक में ये तस्‍वीरें फेसबुक पर डाल दीं. वहां आई प्रतिक्रियाओं से लगा कि यह काम लोगों को पसंद आया है. धीरे-धीरे लोग पूछने लगे कि ये ड्रेस कहां से बनवाई. फिर ठीक वैसी ही ड्रेस की डिमांड भी आने लगी. एक भूरे और काले रंग की दाबू प्रिंट की ड्रेस थी, जो 1400 रुपए में बिकी. इस तरह शौक में शुरू हुए एक काम ने एक छोटे से बिजनेस का रूप ले लिया.

साड़ी की कीमत थी 1313 रुपए. यह बिलकुल अलग तरह की मुल कॉटन की साडि़यां थीं. उस वक्‍त उनके पास कोई कर्मचारी नहीं था. ऑर्डर लेना, पैक करना, भेजना सारा काम वो अपने हाथों से करती थीं.

जैसे-जैसे ऑर्डर बढ़ने लगे, और बुनकरों की जरूरत महसूस हुई. शुरुआत बंगाल से हुई थी, धीरे-धीरे बिहार, पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, तेलंगाना, ओडिशा, कश्मीर और तमिलनाडु के बुनकर भी साथ जुड़ते गए. आज बंगाल में उनके दो खुद के कारखाने हैं. एक धनियाखली में और दूसरा नदिया जिले में.

2000 बुनकर, 180 कर्मचारी और 50 करोड़ का टर्नओवर

आज 2000 से ज्‍यादा बुनकर उनके लिए काम कर रहे हैं. चूंकि दोनों बहनों का मकसद सिर्फ मुनाफा कमाना नहीं था और उन्‍होंने इस बात का भी ख्‍याल रखा कि बुनकरों को उनका वाजिब दाम मिलना चाहिए. इसलिए जो भी बुनकर एक बार उनके साथ जुड़ गया, उसने फिर काम छोड़ा नहीं. उन्‍हें एक साड़ी का दूसरी जगहों के मुकाबले ज्‍यादा पैसा मिल रहा था.  

यहां तक कि कोविड पैनडेमिक के दौरान भी जब सुता थोड़े आर्थिक संकट से गुजर रहा था और बुनकरों का पेमेंट पेंडिंग हो गया था, तब भी उन्‍होंने काम नहीं छोड़ा. सुजाता कहती हैं, “यह संबंध भरोसे और ईमानदारी की नींव पर बना था. उन्‍हें पता था कि यहां उनकी मेहनत जाया नहीं जाएगी.”

आज सुता का सालाना टर्नओवर 50 करोड़ के पार है. मुंबई, कोलकाता, पटियाला, विशाखपट्टनम और भुवनेश्‍वर समेत देश के कई शहरों में सुता के ऑफिस हैं. झारखंड में भी उनकी एक फैक्‍ट्री है. सुता में 180 कर्मचारी हैं, जिसमें से एक उनके मम्‍मी और पापा भी हैं. दोनों बाकायदा कंपनी के पेरोल पर काम कर रहे कर्मचारी हैं. सुजाता और तानिया की मां की तो यह पहली नौकरी है.