क्या भारतीय कानून लिव-इन में महिला को कोई कानूनी अधिकार और सुरक्षा देता है ?
घरेलू हिंसा और संपत्ति के अधिकार पर लिव-इन में क्या हैं महिलाओं के कानूनी अधिकार.
पिछले 30 सालों में पूरी दुनिया में धीरे-धीरे विवाह संस्था कमजोर हुई है और लिव इन रिश्तों का चलन बढ़ा है. विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की एक स्टडी के मुताबिक आज पश्चिमी देशों में 70 फीसदी युवा आबादी लिव इन रिश्तों को वरीयता दे रही है. अमेरिका, कनाडा, फ्रांस, जर्मनी, स्पेन, नीदरलैंड और न्यूजीलैंड और स्कैंडिनेवियन देशों (डेनमार्क, स्वीडन, नॉर्वे और फिनलैंड) में 20 से 40 आयु वर्ष की तकरीबन 74 फीसदी आबादी लिव-इन रिश्तों को प्राथमिकता दे रही है. लिव इन को स्वीकारने, पॉपुलर करने और इसे कानूनी दर्जा देने में स्कैंडिनेवियन देश सबसे आगे रहे हैं.
मिडिल ईस्ट (यूएई को छोड़कर) के सभी देशों में लिव इन रिश्तों को कानूनी दर्जा हासिल न होने और इसे अपराध की श्रेणी में गिने जाने के कारण वहां इस तरह का चलन नहीं है. मिडिल ईस्ट को छोड़कर यूरोप, अमेरिका, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया और एशिया के कुछ देशों में लिव-इन रिलेशनशिप को कानूनी दर्जा हासिल है.
भारत में भी लिव इन रिलेशनशिप तेजी से बढ़ता हुआ चलन है. खासतौर पर महानगरों में इसका चलन बढ़ रहा है. हालांकि भारतीय समाज के पारंपरिक सांस्कृतिक ढांचे में आज भी इसकी स्वीकृति नहीं है. घरों से दूर महानगरो में लिव इन में रह रहे युवा अकसर यह बात अपने घरवालों से छिपाकर रखते हैं.
हालांकि भारत में ऐसा कोई सर्वे नहीं हुआ है, जो इस तथ्य को आंकड़ों में साबित कर सके, लेकिन हम अपने आसपास की दुनिया के अनुभवों से यह समझ सकते हैं. हाल ही में दिल्ली में हुई निक्की यादव की हत्या के केस में उसके परिवार वालों का कहना है कि उन्हें बेटी के लिव-इन रिलेशनशिप के बारे में कोई जानकारी नहीं थी.
लिव इन को लेकर एक नैतिकतावादी नजरिया ही श्रद्धा वॉकर और निक्की यादव जैसे केस होने पर यह निष्कर्ष निकालता है कि इस हिंसा के लिए लिव-इन के नाम पर हो रहा परंपराओं और मूल्यों का पतन जिम्मेदार है.
फिलहाल किसी नैतिक बहस में उलझने के बजाय तथ्यों और तर्कों पर रहते हैं. यह बात दीगर है कि लिव-इन बदलती दुनिया की रिएलिटी है. लेकिन इस रिएलिटी के बीच सबसे जरूरी सवाल ये है कि भारत में लिव-इन रिश्तों का लीगल स्टेटस क्या है. हमारे सवाल हैं-
1. क्या भारत में लिव इन रिलेशनशिप को कानूनी दर्जा हासिल है?
2. क्या लिव इन रिश्ते खत्म होने पर विवाह की तरह की महिलाओं को कोई कानूनी सुरक्षा और अधिकार मिला है.
3. यदि लिव-इन में महिला के साथ घरेलू हिंसा हो तो क्या उसे कोई कानूनी अधिकार और सुरक्षा हासिल है ?
4. लिव-इन रिश्तों से पैदा होने वाले बच्चों का कानूनी स्टेटस क्या है?
5- कानूनी अधिकारों के लिहाज से लिव-इन और शादी में क्या फर्क है?
इंडियन पीनल कोड (भारतीय दंड संहिता) लिव-इन के बारे में क्या कहती है
भारत में लिव-इन रिलेशनशिप को कानूनी दर्जा हासिल है. हालांकि इसके बारे में इंडियन पीनल कोड में कोई निश्चित परिभाषा नहीं दी गई है और न ही अलग से कानून की कोई धारा लिव-इन के कानूनी अधिकारों को परिभाषित करती है.
केरल और कर्नाटक हाईकोर्ट की चीफ जस्टिस रह चुकी न्यायमूर्ति वी.एस. मलिमथ के सुझाव पर कानून में पत्नी की परिभाषा को ज्यादा विस्तृत किया गया. उनके सुझाव पर CRPC (The Code Of Criminal Procedure) की धारा 125 में हुए संशोधन के बाद लिव-इन में रह रही महिला का दर्जा भी पत्नी के बराबर हो गया. संशोधन ने लिव-इन में रह रही महिला को भी संबंध खत्म होने पर भरण-पोषण का अधिकार दिया.
वर्ष 1978 में सुप्रीम कोर्ट ने पहली बार लिव-इन रिश्तों को कानूनी मान्यता दी थी. बद्री प्रसाद बनाम डिप्टी डायरेक्टर ऑफ कंसोलिडेशन (1978) केस में सुप्रीम कोर्ट ने लिव-इन रिश्तों को कानूनी तौर पर मान्य माना.
वर्ष 2010 में एक हाई प्रोफाइल केस एस. खुशबू बनाम कन्नियाम्मल में सुप्रीम कोर्ट ने एस. खुशबू के पक्ष में फैसला सुनाते हुए लिव-इन रिश्तों को कानूनी तौर पर मान्य माना. न्यायालय का कहना था कि हो सकता है कि एक परंपरावादी और नैतिकतावादी समाज इस तरह के रिश्तों को स्वीकार न करे, लेकिन यह “अवैध या गैरकानूनी नहीं” है.
अपने फैसले में चीफ जस्टिस केजी बालाकृष्णन, दीपक वर्मा और बी. एस. चौहान की तीन जजों की बेंच ने कहा, “दो वयस्क अपनी मर्जी से साथ रहते हुए भारत के किसी कानून का उल्लंघन नहीं करते.” बेंच ने कहा, "जब दो वयस्क साथ रहना चाहते हैं तो इसमें गलत क्या है. यह अपराध नहीं हो सकता. पौराणिक कथाओं के अनुसार भगवान कृष्ण और राधा भी बिना विवाह के एक साथ थे.”
ऐसे और भी कई मामलों में न्यायालय ने समय-समय पर लिव-इन रिश्तों को कानूनी दर्जा दिया है. वर्ष 2001 में पायल शर्मा बनाम नारी निकेतन केस में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने लिव-इन को लीगल करार दिया. वर्ष 2006 में लता सिंह बनाम यूपी सरकार में सुप्रीम कोर्ट ने इसे कानूनी रूप से वैध बताया.
यदि लिव रिश्तों में महिला घरेलू हिंसा का शिकार हो तो ?
लिव-इन रिश्तों को लेकर एक और बहस रही है, जो घरेलू हिंसा कानून से जुड़ी है. भारत का घरेलू हिंसा कानून, 2005 (Protection of Women from Domestic Violence Act 2005) एक विवाहित महिला को पति और सुसराल वालों के दुव्यर्वहार के खिलाफ कानूनी सुरक्षा प्रदान करता है. लेकिन क्या यह सुरक्षा तब भी मिलेगी, जब कपल कानूनी तौर पर विवाहित न हों.
वर्ष 2013 में इंदिरा शर्मा बनाम वी.के. शूर्मा केस में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि प्रोटेक्शन ऑफ विमेन फ्रॉम डोमेस्टिक वॉयलेंस एक्ट, 2005 के तहत डोमेस्टिक रिलेशनशिप (घरेलू रिश्ते) की परिभाषा में लिव-इन रिश्ते भी शामिल हैं. यानि यह कानून लिव इन में रह रही महिला को भी घरेलू हिंसा के खिलाफ कानूनी सुरक्षा प्रदान करता है.
वर्षा कपूर बनाम भारत संघ केस में दिल्ली हाईकोर्ट ने कहा था कि लिव-इन रिश्ते में रह रही महिला के पास अपने पुरुष साथी के साथ-साथ उसके परिवार और रिश्तेदारों के खिलाफ भी घरेलू हिंसा की शिकायत दर्ज करने का अधिकार है.
लिव-इन रिश्तों में बच्चों के कानूनी अधिकार
भारतीय कानून के मुताबिक कोई भी बच्चा इललीगल या अवैध नहीं है. बिना विवाह के लिव-इन रिश्तों में पैदा हुए बच्चों को भी वही कानूनी अधिकार हासिल है, जो विवाह से पैदा हुए बच्चों को हैं. लिव-इन रिश्ते समाप्त होने पर पिता बच्चे की परवरिश का खर्च उठाने के लिए कानूनी तौर पर बाध्य है. साथ ही बच्चे का पिता की अर्जित और पैतृक संपत्ति पर भी पूरा कानूनी अधिकार है.
वर्ष 2008 में Tulsa & Ors vs Durghatiya केस में सुप्रीम कोर्ट ने लिव-इन रिलेशनशिप से पैदा हुई संतान को पिता की संपत्ति में अधिकार दिया. केस का फैसला सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि लंबे समय तक विवाहित जोड़े की तरह बिना विवाह के लिव-इन रिश्तों में रहे कपल की संतान को नाजायज नहीं माना जा सकता. उस संतान का भी अपने पिता की संपत्ति पर बराबर अधिकार है.
लिव-इन रिश्ते खत्म होने पर महिलाओं का कानूनी अधिकार
जैसाकि भारतीय दंड संहिता में इस संबंध में स्पष्ट रूप से कोई कानून नहीं है. लेकिन अलग-अलग मामलों में कोर्ट ने कई बार लिव-इन रिश्ते टूटने पर भी महिला को गुजारे-भत्ते और भरण-पोषण का अधिकार दिया है.
मुंबई हाईकोर्ट में फैमिली लॉ प्रैक्टिस कर रही वकील राधी कार्तिकेय कहती हैं कि लिव-इन में रह रही महिला का भी पति की संपत्ति पर बराबर का अधिकार है. हालांकि वह पति की पैतृक संपत्ति पर कोई दावा नहीं कर सकती. हालांकि विवाहित स्त्री का पति की पैतृक संपत्ति में भी कानूनी अधिकार होता है.
लेकिन यहां यह स्पष्ट करना जरूरी है कि सीआरपीसी की धारा 125 के तहत फैमिली लॉ में जो राइट टू मेन्टेनेंस का अधिकार ‘पत्नी’ को दिया गया है, उस कानून में ‘पत्नी’ की परिभाषा बहुत सीमित है. उस परिभाषा के अंतर्गत लिव-इन में रह रही महिला को अभी तक शामिल नहीं किया गया है.
हालांकि कई केसेज में कोर्ट ने लंबे समय तक पति-पत्नी की तरह साथ रह रहे कपल में महिला पार्टनर को पति की अर्जित संपत्ति से लेकर रिश्ता टूटने पर गुजारे-भत्ते का अधिकार भी दिया है. लेकिन फिर भी कानून में इसकी कोई स्पष्ट व्याख्या नहीं है.
जैसेकि लिव इन रिश्तों से जुड़े किसी विवाद में यह बात मायने रखती है कि वह रिश्ता कितना पुराना है. क्या उस रिश्ते से पैदा हुए बच्चे के स्कूल में माता-पिता के रूप में दोनों का नाम लिखा है. क्या वह कपल समाज में, ऑफिस, परिवार और दोस्तों के बीच एक कपल की तरह ही रहता है और आसपास के लोग उन्हें कपल की तरह ट्रीट करते हैं. लिव-इन रिश्तों से जुड़े कई पहलू उसे थोड़ा जटिल भी बनाते हैं और महिला के अधिकारों को स्पष्ट रूप से सुरक्षित नहीं करते.
कानूनी अधिकारों के लिहाज से लिव-इन और शादी में क्या फर्क है?
1- लिव-इन और शादी में महिला के कानूनी अधिकारों को लेकर सीआरपीसी में परिभाषाएं स्पष्ट नहीं हैं.
2- पुरुष की संपत्ति में अधिकार देने के बावजूद कानून लिव-इन पार्टनर को पुरुष की पैतृक संपत्ति में अधिकार नहीं देता.
3- विवाह के अंतर्गत महिला पति के अन्य रिश्तों या एडल्ट्री के केस में न्यायालय का दरवाजा खटखटा सकती है. लिव-इन रिश्तों में महिला को यह अधिकार नहीं है.
4- पति की मृत्यु होने पर पत्नी पति की जगह नौकरी पा सकती है, लेकिन लिव-इन पार्टनर को यह अधिकार नहीं मिलता.