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मानसिक रूप से कमजोर बच्चों को आत्मनिर्भर बना रही है 60 साल की महिला

मानसिक रूप से कमजोर बच्चों को आत्मनिर्भर बना रही है 60 साल की महिला

Thursday November 03, 2016 , 5 min Read

मधु गुप्ता को जब पता चला कि उनके बेटे को डाउन सिंड्रोम है जिसकी वजह से वो बौद्धिक और शारीरिक तौर पर कमजोर है तो वो टूटी नहीं बल्कि उन्होने फैसला लिया कि वो अपने बेटे को इस काबिल बनाएंगी की वो अपना काम खुद कर सके। मधु गुप्ता की यही जिद्द रंग लाई और आज वो अपने बेटे के अलावा 46 लड़के-लड़कियों को आत्मनिर्भर बनना सीखा रही हैं जिनको इस तरह की बीमारी से पीड़ित हैं।


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मधु गुप्ता गाजियाबाद के सुभाष नगर इलाके में रहती हैं। एमए बीएड तक की पढ़ाई करने वाली मधु को साल 1980 में जब बेटा हुआ तो वो दूसरे बच्चों की तरह सामान्य नहीं था। इससे उनको अपने बेटे गौरव को बड़ा करने में काफी परेशानी हुई। वो बताती हैं कि “गौरव ने 3 साल की उम्र में बैठना शुरू किया और 5 साल की उम्र में चलना। वो कुछ भी काम अपने आप नहीं कर पाता था। यहां तक की आज तक भी उसे भूख का अहसास नहीं है। उसे जब तक खाने के लिए नहीं कहा जाता वो तब तक खाना नहीं खाता है।” ये वो दौर था जब ऐसे बच्चों के लिए ज्यादा स्कूल भी नहीं होते थे। बहुत कोशिशों के बाद उन्हें एक सरकारी स्कूल मिला जो कि ऐसे ही असमान्य बच्चों के लिए था, लेकिन वहां पर बच्चों को बहुत ही गंदे माहौल में रखा जाता था। एक दिन जब वो बच्चों को देखने के लिए स्कूल पहुंची तो सबसे पहले तो स्कूल वालों ने बच्चों से मिलने की इजाजत नहीं दी, लेकिन किसी तरह जब वो बच्चों की क्लास में पहुंची तो वहां का नजारा देख हक्का बक्का रह गई। वहां पर बच्चों ने काफी गंदगी की हुई थी तो कोई बच्चा रो रहा था। ऐसे माहौल में वहां पर साफ सफाई और देखभाल करने वाला कोई भी नहीं था। ये नजारा देख उन्होंने ऐसे स्कूल में अपने बच्चे का दाखिला नहीं किया।


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समय के साथ गौरव अब बड़ा हो रहा था और काफी कोशिशों के बाद जब मधु गुप्ता को अपने बेटे गौरव के लिए कोई ठीक ठाक स्कूल नहीं मिला तो उन्होने फैसला लिया कि वो खुद ही उसे पढ़ाने का काम करेंगी। तब तक गौरव की उम्र 17 साल हो गई थी। मधु ने अपने बच्चे को पढ़ाने से पहले एक कोर्स किया, ताकि वो जान सकें कि मानसिक रूप से कमजोर बच्चों को कैसे पढ़ाया जा सकता है। इस दौरान उन्होने जाना कि हर बच्चा अलग तरीके का व्यवहार करता है, साथ ही उन्होने ये भी जाना कि इनकी परेशानियां किस तरह की होती हैं। पर्याप्त जानकारी इकट्ठा करने के बाद मधु गुप्ता ने जब ऐसे बच्चों के लिए स्कूल खोलने की कोशिश की तो उनके पति ने उनके इस फैसले में साथ देने से इंकार कर दिया, क्योंकि उनका कहना कि वो एक बच्चे को संभालने में जब इतनी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है तो कैसे और बच्चों को संभाला जा सकता है। बावजूद मधु गुप्ता अपने निर्णय पर कायम रहीं। इस तरह उन्होने साल 2000 में अपने बेटे के साथ 5-6 दूसरे बच्चों को भी पढ़ाने का काम शुरू किया। जिनकी संख्या आज बढ़कर 46 हो गई है। इन बच्चों में से 15 लड़कियां और 31 लड़के हैं। इन सब की उम्र 2 साल से 32 साल के बीच है। अपने इस स्कूल को उन्होने नाम दिया है ‘एजुकेटम स्पेशल स्कूल’। ये स्कूल सुबह 9 बजे से दिन के 2 बजे तक लगता है और शनिवार और रविवार यहां पर छुट्टी होती है।


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मधु गुप्ता कहती हैं कि “हम समझते हैं कि ये बच्चे पागल हैं लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं है अगर इन बच्चों पर मेहनत की जाये तो ये बहुत से काम अपने आप करने लगते हैं। जैसे कि दरवाजा खोलना, मेहमानों को पानी पिलाना और घर के दूसरे छोटे मोटे काम करना आदि।” हालांकि काफी सारे माता पिता इनसे छुटकारा पाने के लिए ऐसे बच्चों को टीवी के पास छोड़ देते हैं। मधु गुप्ता के मुताबिक ये काम बहुत गलत है क्योंकि ऐसे बच्चे गलत चीजों से बहुत जल्दी प्रभावित होते हैं। इसलिए जरूरी है कि इन बच्चों को दूसरे कामों में लगाया जाये ताकि इनका दिमाग गलत रास्ते में ना जाये। मधु गुप्ता के मुताबिक मानसिक तौर पर कमजोर बच्चों को अलग अलग वर्गों में बांटा जा सकता है। इनमें से कुछ बच्चे सिर्फ 5 क्लास तक की पढ़ाई कर सकते हैं तो कुछ 8वीं और 10वीं तक की पढ़ाई करने में सक्षम होते हैं, जबकि कुछ बच्चे ऐसे भी होते हैं जिन पर अगर थोड़ा ज्यादा ध्यान दिया जाए तो वो 12 तक की भी पढ़ाई पूरी कर सकते हैं। मधु गुप्ता का मानना है कि ऐसे बच्चों के साथ सबसे ज्यादा दिक्कत तब आती है जब उनके भाई बहनों की शादी होती है। क्योंकि ये भी अपने को सामान्य बच्चों की तरह ही मानते हैं। जबकि वास्तविकता तो ये होती है कि इनका दिमाग सामान्य बच्चों कि तरह नहीं होता।


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इन्ही बातों को ध्यान में रखते हुए मधु गुप्ता इन बच्चों को तीन तरह से शिक्षित करने का काम करती हैं- एजुकेशनल, वोकेशनल और डोमेस्टिकल। इन बच्चों को इनके आई क्यू के हिसाब से पढ़ाया जाता है। इसलिए बच्चों के प्रवेश के समय सबसे पहले उनका असेसमेंट किया जाता है। उनकी कोशिश होती है कि ऐसे बच्चे अपने रोजमर्रा के काम खुद कर सकें। ताकि जब कभी इनकी मां बीमार हो तो ये बच्चें घर के छोटे मोटे काम खुद ही कर सकें। वो कहती है कि मेहनत करने पर इन बच्चों पर इसका असर दिखायी देता है।


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इस स्कूल को चलाने के लिए मधु गुप्ता को कहीं से कोई आर्थिक मदद नहीं मिलती है, इसलिए वो मानती हैं कि इन बच्चों के साथ जो काम रोज होना चाहिए वो हफ्ते में केवल तीन दिन ही हो पाता है। इनके स्कूल में स्पीच थैरेपी और साइकोलॉजिस्ट की खास सुविधा उपलब्ध है। हालांकि वो ये बच्चों को रोज उपलब्ध नहीं करा पाती हैं, मधु गुप्ता का कहना है कि जब तक वो जिन्दा हैं इस काम को करती रहेगीं भले ही उनके सामने कितनी भी चुनौतियां क्यों ना आए।