आशा और विश्वास का एक युग
आज जब मैं ये लेख लिख रहा हूं तो भारत आर्थिक उदारीकरण का रजत जयंती वर्ष मना रहा है। मैंने पिछले 25 सालों में भारत को बदलते हुए देखा है। आज भारत को ग़रीब देश के तौर पर नहीं जाना जाता। बल्कि इसे भविष्य का सुपर पॉवर समझा जाता है। समाज में एक नया मध्यम वर्ग पैदा हुआ है। आम आदमी के पास ख़रीददारी की ताकत बढ़ी है। आज बाहर जाकर खाना, खाना विलासिता नहीं समझा जाता। लोग दुनिया भर के महंगे ब्रांड ख़रीद रहे हैं। देश में कहीं ना कही रोज़ नए मॉल खुल रहे हैं। भारत उपभोक्ता हब के रूप में बदल रहा है। आज भारतीय कंपनियां विदेशों में जाकर अंतर्राष्ट्रीय कंपनियों को कड़ी टक्कर दे रही हैं। भारतीय सीईओ को विदेशों में काफी सम्मान मिलता है तभी तो विदेशी मल्टीनेशनल कंपनियों जैसे गूगल, माइक्रोसॉफ्ट, पेप्सी जैसी कंपनियों को भारतीय सीईओ ही चला रहे हैं। वहीं सिलिकॉन वैली में आई क्रांति में भारतीयों ने अहम भूमिका निभाई है।
मैं एक ऐसे विश्वविद्यालय में पढ़ाई कर रहा था, जो वामपंथी विचारधारा के लिए प्रसिद्ध था। जब मैंने कैम्पस में दाख़िला लिया, तब मार्क्सवाद-लेनिनवाद प्रचलन में था। तब सोवियत संघ प्रमुख वैश्विक शक्ति के तौर पर जाना जाता था, हालांकि उसके टूटने के पर्याप्त संकेत भी मिल रहे थे। सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव मिखाइल गोर्बाचेव सोवियत समाज और राजनीति के पुनर्गठन के लिए पेरिस्त्रोइका के बारे में बात कर रहे थे। बावजूद इसके किसी को भी इस बात का अंदाजा नहीं था कि अचानक इतनी जल्द सोवियत संघ पूर्वी यूरोप के दूसरे साम्यवादी ब्लॉक के साथ टूट का सामना करेगा। उस दौरान भारत में निजीकरण और बाज़ार की अर्थव्यवस्था के बारे में कोई ज्यादा बात नहीं करता था। भारत कामयाबी के साथ तीसरी दुनिया के देशों को एक मॉडल के तौर पर मिश्रित अर्थव्यवस्था के लिए प्रेरित कर रहा था, लेकिन जब मैंने साल 1994 में जेएनयू को छोड़ा तो राष्ट्रीय बहस के मुद्दे बदल चुके थे। बाज़ार को अब अभिशाप नहीं समझा जाता था। निजीकरण को बढ़ावा दिया जा रहा था। उद्योगों को छूट दी जा रही थी और अर्थव्यवस्था को लाइसेंस और परमिट राज से छुटकारा मिल रहा था। भारतीय अर्थव्यवस्था अब उड़ान भरने को तैयार थी।
जब मैंने 80 के दशक के अंतिम सालों में विश्वविद्यालय में दाख़िला लिया था, तब एसटीडी बूथ लोगों के लिए नई चीज थी। दिल्ली के हर इलाके में ये कुकरमुत्तों की तरह पैदा हो गये थे। कैम्पस के अंदर लोग रात के 11 बजने का इंतजार करते थे ताकि एसटीडी के दाम घट कर एक चौथाई रह जायें। ये वो ज़माना था, जब मोबाइल फोन, व्हाट्सएप नहीं था। आज की तरह ये वो दौर नहीं था, जब कोई अपने स्मार्ट फोन से दुनिया के किसी भी कोने में रहने वाले व्यक्ति से बात कर सकता है। उस वक्त एक शहर से दूसरे शहर में बात करने का मतलब दो-तीन घंटे बर्बाद करना था। अपने जानने वालों से बात करने के लिए तब लोग ट्रंक कॉल बुक करते थे और इसके लिए भी उनको घंटों इंतजार करना पड़ता था।
तब देश में कुछ ही एयरपोर्ट थे, जिनकी हालत ज्यादा बेहतर नहीं थी। बावजूद दिल्ली का अंतर्राष्ट्रीय एयपोर्ट, नई दिल्ली रेलवे स्टेशन से थोड़ा बेहतर स्थिति में था। तब मध्यमवर्गीय व्यक्ति मुश्किल से कभी हवाई यात्रा करता था। हवाई यात्रा को विलासिता के साथ जोड़ा जाता था और ऐसा माना जाता था कि ये सिर्फ संपन्न वर्ग के लिए ही है। तब आज की तरह ढेरों निजी एयरलाइंस कंपनियां नहीं हुआ करती थीं। उस वक्त एयर इंडिया और इंडियन एयरलाइंस ही उड़ान भरते थे और ये भी काफी कम शहरों के साथ जुड़े हुए थे। उस दौर में हमने कभी भी मल्टीप्लेक्स सिनेमा हॉल के बारे में सुना तक नहीं था, क्योंकि तब सिंगल स्क्रीन वाले सिनेमा हॉल ही चलते थे। मैं तब जवान लड़का था और तब मैं फिल्मों के सिर्फ चार शो 12 से 3, 3 से 6, 6 से 9 और 9 से 12 के बारे में ही जानता था।
परिवार के साथ फिल्में देखना तब बड़ी बात मानी जाती थी। तब कहीं भी केबल टीवी नहीं था और सिर्फ दूरदर्शन अकेला चैनल था, जिसमें सप्ताह में एक दिन रविवार को फिल्म दिखाई जाती थी। समाचार देने का अकेला साधन दूरदर्शन ही था। तब कहीं कोई प्राइम टाइम डिबेट नहीं होती थी। तब आज की तरह टीवी स्टूडियो में कहा-सुनी नहीं होती थी। तब टीवी स्क्रीन में न्यूज़ रीडर बड़े ही सलीके से पेश होते थे। तब कोई टीआरपी की दौड़ भी नहीं होती थी। मैंने पहली बार अगर किसी केबल न्यूज़ चैनल का नाम सुना तो वो था सीएनएन। ये पहले खाड़ी युद्ध की बात है। तब भारत ने पहली बार इस तरह कोई लाइव कवरेज देखी थी।
उस वक्त भारत एक बढ़ती हुई अर्थव्यवस्था नहीं था, बल्कि उसकी पहचान एक ऐसे ग़रीब देश के तौर पर थी, जो सपेरों, साधु और सड़कों पर गायों के लिए प्रसिद्ध था। तब दुनिया दो धड़ों सोवियत संघ और अमेरिका के बीच बंटी हुई थी। यानी कम्युनिस्ट और पूँजीवादी। तब भी भारत में भ्रष्टाचार इतना ही था और बोफोर्स कांड कांग्रेस पार्टी के लिए अभिशाप बन गया था। 1991 से हालात बदलने शुरू हुए, जब नरसिम्हा राव देश के प्रधानमंत्री बने। तब देश दिवालिया होने की कगार पर था और अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में भुगतान करना मुश्किल हो रहा था। तब कई कड़े फैसले लिये गये और तब तक कम्युनिस्ट मॉडल भी आकर्षण खो चुका था। भारत का मिश्रित अर्थव्यवस्था का तजुर्बा भी बुरी तरह फेल हो गया था। ऐसे में अर्थव्यवस्था को खोलने के अलावा दूसरा कोई विकल्प नहीं था। तब लाइसेंस और परमिट राज पुरानी बात हो गई थी। बाज़ार में प्रतिस्पर्धा और मुनाफ़ा मुख्य मकसद हो गया। तब नरसिम्हा राव ने एक बड़ा क़दम उठाया और देश के वित्त मंत्री के तौर पर एक टेक्नोक्रेट को बैठा दिया। मेरी नजर में ये एक काफी महत्वपूर्ण फैसला था। जिसने आज़ादी के बाद देश की तस्वीर ही बदल डाली।
राव के लिए ये इतना आसान नहीं था। उस वक्त मैं एक युवा पत्रकार था और मुझे अब तक अच्छी तरह याद है कि उस वक्त देश में कंप्यूटर को लेकर काफी विरोध हो रहा था। इस विरोध में पत्रकार भी शामिल थे। उस वक्त ये समझा जाता था कि कंप्यूटर लोगों की नौकरियाँ खा जायेगा। आमतौर पर लोगों की धारणा थी कि कंप्यूटर से बेरोज़गारी पैदा होगी। उस वक्त ये समझा गया कि अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व बैंक, विश्व व्यापार संगठन भारत को पूंजीवाद की ओर धकेल कर उसे फिर से उपनिवेश के रूप में बदलना चाहते हैं। तब ये समझा गया कि बाजार कुछ पूंजपतियों के हाथ में रह जाएगा। इतना ही नहीं कोई एक बड़ी मल्टी नेशनल कंपनी एक बार फिर भारत को ईस्ट इंडिया कंपनी की तरह अपना दास बना लेगी, जैसा तीन सौ साल पहले हुआ था, लेकिन राव अपने फैसले पर अडिग थे। इसके बाद उन्होंने खुद राजनीति को संभालने का काम किया और मनमोहन सिंह अर्थव्यवस्था को संभालने का काम करने लगे। बावजूद इसके थोड़े वक्त बाद नरसिम्हा राव अपनी पार्टी के साथ देश की जनता का विश्वास खो चुके थे। वहीं भारतीय अर्थव्यवस्था अब उस रास्ते पर चल पड़ी थी, जहां से लौटना मुश्किल था।
यही वजह थी कि एच डी देवेगौड़ा और इन्द्र कुमार गुजराल सरकार ने भी उसी नीति का पालन किया, जबकि इन दोनों की सरकार ने निजीकरण का विरोध करते हुए सरकार बनाई थी। इतना ही नहीं इन सरकारों को कम्युनिस्ट पार्टियों का समर्थन हासिल था। इनके बाद वाजपेयी सरकार ने भी इसी रफ्तार को बनाये रखा और बुनियादी ढांचे के विकास पर ज्यादा ज़ोर दिया। साल 2004 में वाजपेयी सरकार ने जनता का विश्वास खो दिया। वहीं भारतीय अर्थव्यवस्था परवान चढ़ रही थी। अगर साल 2008 को छोड़ दिया जब वैश्विक अर्थव्यवस्था मंदी के दौर पर थी तो देश की अर्थव्यवस्था साल 2011 तक 9 प्रतिशत की रफ्तार से बढ़ रही थी। आज देश की अर्थव्यवस्था दुनिया की तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं में से एक है।
आज जब मैं ये लेख लिख रहा हूं तो भारत आर्थिक उदारीकरण का रजत जयंती वर्ष मना रहा है। मैंने पिछले 25 सालों में भारत को बदलते हुए देखा है। आज भारत को ग़रीब देश के तौर पर नहीं जाना जाता। बल्कि इसे भविष्य का सुपर पॉवर समझा जाता है। समाज में एक नया मध्यम वर्ग पैदा हुआ है। आम आदमी के पास खरीददारी की ताकत बढ़ी है। आज बाहर जाकर खाना, खाना विलासिता नहीं समझा जाता। लोग दुनिया भर के महंगे ब्रांड ख़रीद रहे हैं। देश में कहीं ना कही रोज़ नए मॉल खुल रहे हैं। भारत उपभोक्ता हब के रूप में बदल रहा है। आज भारतीय कंपनियां विदेशों में जाकर अंतर्राष्ट्रीय कंपनियों को कड़ी टक्कर दे रही हैं। भारतीय सीईओ को विदेशों में काफी सम्मान मिलता है तभी तो विदेशी मल्टीनेशनल कंपनियों जैसे गूगल, माइक्रोसॉफ्ट, पेप्सी जैसी कंपनियों को भारतीय सीईओ ही चला रहे हैं। वहीं सिलिकॉन वैली में आई क्रांति में भारतीयों ने अहम भूमिका निभाई है।
साल 1991 तक हमारे आस पड़ोस में कुछ लोगों के पास कारें होती थी, लेकिन आज हर किसी के पास कार है। कई परिवार तो ऐसे हैं जहाँ पर एक से ज्यादा कारें हैं। भारत आज एक भरोसेमंद देश है, जो मुकाबले से नहीं घबराता और आज कोई ये बात भी नहीं करता कि कोई एमएनसी देश को ग़ुलाम बना लेगी। दुनिया भर में भारत का सम्मान बढ़ा है यही वजह है कि आज विदेशी निवेश के मामले में भारत प्रमुख देश के तौर पर उभर रहा है। बाज़ार को अब कोई बुरा नहीं कहता। बावजूद इसके अब भी काफी कुछ करने की जरूरत है। यहाँ बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार है, अमीर और गरीब के बीच की खाई दिनों दिन बढ़ रही है, बुनियादी ढांचा खस्ता हाल है और लालफीताशाही जारी है। भारत को अगर दुनिया जीतनी है तो उसे शिक्षा और स्वास्थ्य पर ज्यादा ध्यान देना होगा। हमारे लोकतंत्र में कई गड़बड़ियाँ है, लेकिन पिछले 25 साल आशा और विश्वास का एक युग रहे हैं। वर्तमान में तमाम दिक्कतों के बावजूद मैं देश के बेहतर भविष्य को लेकर आशावान हूं।
लेखक व पत्रकार आशुतोष आम आदमी पार्टी के नेता हैं।
अंग्रेज़ी से अनुवाद- गीता बिष्ट