नेहरू को भी टोकने से बाज न आए जोश मलीहाबादी
पद्मविभूषण उर्दू शायर जोश मलीहाबादी के जन्मदिन पर विशेष...
जोश साहब उर्दू साहित्य पर अपनी गहरी पकड़, साथ ही उसके व्याकरण की बारीकियां अख्तियार रखने के लिए भी चर्चित रहे हैं। देश के मशहूर शायर पद्मविभूषण जोश मलीहाबादी का आज (5 दिसम्बर) जन्मदिन है। आईये उनकी शेरो-शायरी का लुत्फ लेते हुए, एक नज़र दौड़ाते हैं उनके जिंदगीनामे पर भी...
जोश साहब के बारे में एक बात बड़ी मशहूर है कि उर्दू शब्दों का ग़लत उच्चारण करने पर वह बड़े-बड़ों का ज्ञान बेपर्दा करने में तनिक भी नहीं हिचकते थे। वह गज़लें और नज्में तखल्लुस 'जोश' के नाम से लिखते, साथ ही और अपने जन्म स्थान का नाम भी अपने तखल्लुस में जोड़ दिया मलिहाबादी।
सन 1925 में जोश उस्मानिया विश्वविद्यालय हैदराबाद रियासत में अनुवाद देखने लगे। एक दिन उनकी रियासत के शासक के खिलाफ लिखी नज्म के कारण से उनको राज्य से निकाल दिया गया। इसके बाद उन्होंने एक पत्रिका में खुलेआम ब्रिटिश राज के खिलाफ लेख लिखा।
देश के मशहूर शायर पद्मविभूषण जोश मलीहाबादी का आज (5 दिसम्बर) जन्मदिन है। आज का दिन तो शायर मजाज लखनवी और व्यंग्यकार शरद जोशी को भी दिल से याद करने का है लेकिन फिलहाल जोश साहब की शेरो-शायरी का लुत्फ लेते हैं, साथ ही उनके जिंदगीनामे पर भी हल्की नजर दौड़ाते हैं। जोश साहब उर्दू साहित्य पर अपनी गहरी पकड़, साथ ही उसके व्याकरण की बारीकियां अख्तियार रखने के लिए भी चर्चित रहे हैं। भाषा को लेकर उनकी सनक इस हद तक थी कि एक बार उन्होंने सरेआम साहिर लुधियानवी को उनकी मशहूर नज़्म 'ताजमहल' में एक शब्द ग़लत उच्चारित करने के लिए टोका था।
अपनी कलम से हिंदुस्तान की आजादी की लड़ाई लड़ने वाले जोश, सन 1921 में प्रकाशित अपने शायराना संकलन में छपीं रचनाओं शोला-ओ-शबनम, जुनून-ओ-हिकमत, फ़िक्र-ओ-निशात, सुंबल-ओ-सलासल, हर्फ़-ओ-हिकायत, सरोद-ओ-खरोश, इरफ़ानियत-ए-जोश से पहली बार साहित्यक जमातों की सुर्खियों में फैले। पुणे में रहते हुए उन्होंने फिल्मों के लिए गीत भी लिखे और उसी दौरान उनके खुद के जिंदगीनामे की किताब आई 'यादों की बारात।' जोश साब का असली नाम शब्बीर हसन खां रहा है। वह बीसवीं शताब्दी के उन महान शायरों में एक रहे। देश का बंटवारा हुआ तो 1958 के बाद वह पकिस्तान को चले गए। उसके बाद वह दो-तीन बार भारत आए थे। जवाहर लाल नेहरू और मौलाना आजाद के देहावसान के दिनो में और एकाध बार और संभवतः 1967 में।
जोश साहब उस दौरे में कुछ दिन दिल्ली के एक होटल में ठहरे। उसी होटल में ठहरे हुए थे सीनियर जर्नलिस्ट आरवी स्मिथ। वह बताते हैं - 'सूरज ढलते ही जोश स्कॉच पीना शुरू करते थे। उनके लिए दरियागंज के मोतीमहल रेस्तरॉं के मालिक खाना भिजवाते थे मुर्ग़, नान, बिरयानी और कबाब। वो जल्दी सोने जाते थे, लेकिन सुबह चार बजे उठ कर लिखना शुरू कर देते थे और साढ़े छह बजे तक लिखते रहते थे। फिर वो करीम से नहारी मंगवा कर खाते थे।
इसके बाद नहा धो कर अपने दोस्त अहबाबों से मिलने जाते थे। दो या तीन बार वो इंदिरा गांधी से मिलने गए और हर बार उन्होंने वापस आ कर उनकी तारीफ़ की। एक शाम वो अकेले बैठे लोगों को पतंग उड़ाते देख रहे थे। उन्होंने मुझे बुलाया और पूछा, मेरे दोस्त तुम क्या करते हो? मैंने कहा, मैं एक पत्रकार हूँ। उन्होंने पूछा, किस रिसाले के लिए लिखते हो? मैंने कहा, स्टेट्समैन। यह सुनते ही वो दहाड़े, ये तो अंग्रेज़ी का अख़बार है। एक ज़माने में यहाँ सिर्फ़ अंग्रेज़ काम किया करते थे। ये बताओ, तुम पढ़ते क्या हो और लिखते क्या हो? क्योंकि आजकल तो नौजवानों का अच्छे पढ़ने लिखने से कोई वास्ता ही नहीं है?'
जोश साहब के बारे में एक बात बड़ी मशहूर है कि उर्दू शब्दों का ग़लत उच्चारण करने पर वह बड़े-बड़ों का ज्ञान बेपर्दा करने में तनिक भी नहीं हिचकते थे। वह गज़लें और नज्में तखल्लुस 'जोश' के नाम से लिखते, साथ ही और अपने जन्म स्थान का नाम भी अपने तखल्लुस में जोड़ दिया मलिहाबादी। तो इस तरह उनका पूरा नाम बन गया, जोश मलिहाबादी। मलिहाबाद आजकल लखनऊ (उत्तर प्रदेश) से सटा नगर है। उनकी पढ़ाई आगरा के सेंट पीटर्स कॉलेज में हुई। वह छह महीने रविंद्रनाथ टैगोर के विश्वविद्यालय शांतिनिकेतन में भी रहे। आइए, जोश साहब के कुछ शेरों से गुजरते हैं-
सोज़े-ग़म देके उसने ये इरशाद किया ।
जा तुझे कश्मकश-ए-दहर से आज़ाद किया ।।
वो करें भी तो किन अल्फ़ाज में तिरा शिकवा,
जिनको तिरी निगाह-ए-लुत्फ़ ने बर्बाद किया ।
दिल की चोटों ने कभी चैन से रहने न दिया,
जब चली सर्द हवा मैंने तुझे याद किया ।
इसका रोना नहीं क्यों तुमने किया दिल बरबाद,
इसका ग़म है कि बहुत देर में बरबाद किया ।
इतना मासूम हूँ फितरत से, कली जब चटकी
झुक के मैंने कहा, मुझसे कुछ इरशाद किया
मेरी हर साँस है इस बात की शाहिद-ए-मौत
मैंने ने हर लुत्फ़ के मौक़े पे तुझे याद किया।
मुझको तो होश नहीं तुमको खबर हो शायद
लोग कहते हैं कि तुमने मुझे बर्बाद किया।
वो तुझे याद करे जिसने भुलाया हो कभी
हमने तुझ को न भुलाया न कभी याद किया।
कुछ नहीं इस के सिवा 'जोश' हारीफ़ों का कलाम
वस्ल ने शाद किया, हिज्र ने नाशाद किया।
सन 1925 में जोश उस्मानिया विश्वविद्यालय हैदराबाद रियासत में अनुवाद देखने लगे। एक दिन उनकी रियासत के शासक के खिलाफ लिखी नज्म के कारण से उनको राज्य से निकाल दिया गया। इसके बाद उन्होंने एक पत्रिका में खुलेआम ब्रिटिश राज के खिलाफ लेख लिखा। इससे उनके रिश्ते कांग्रेस विशेषकर जवाहर लाल नेहरु से मजबूत हुए। एक बार जवाहरलाल नेहरू को जब उन्होंने अपनी एक किताब दी तो उन्होंने कहा, 'मैं आपका मशकूर हूँ।' जोश ने उन्हें फ़ौरन टोका, 'आपको कहना चाहिए था शाकिर हूँ।'
जोश अपनी आत्मकथा 'यादों की बारात' में लिखते हैं कि 1948 में उन्होंने सब्ज़ियाँ बेचने का ख़्याल छोड़ कर दिल्ली आने का फ़ैसला किया। वो सीधे जवाहरलाल नेहरू से मिलने गए। नेहरू ने उनसे कहा कि वो सूचना मंत्रालय में सचिव अज़ीम हुसैन से मिल लें। अजीम हुसैन ने 'आजकल' पत्रिका के संपादक की नौकरी के लिए उन्हें एक इंटरव्यू में बुलाया। जब वह वहाँ पहुंचे तो देखा कि वहाँ बहुत सारे लोग इंटरव्यू देने आए हैं। जब वह कमरे में घुसे तो देखा कि वहाँ अज़ीम हुसैन और अजमल खाँ के अलावा पाँच और लोग उनका इंटरव्यू लेने बैठे हैं।
उन्होंने अपने आप को सहज करने के लिए अपना पानदान निकाला। तभी वहाँ एक मदरासी से दिखने वाले शख़्स ने अंग्रेज़ी में कहा कि आप यहाँ पान नहीं खा सकते। इस पर उन्होंने जवाब दिया कि हम एक आज़ाद मुल्क में रह रहे हैं और आपके लिए अब भी अंग्रेज़ों के बनाए तौर तरीक़े मायने रखते हैं। पान खाना मेरे लिए साँस लेने जैसा है। अगर आप को ये मंज़ूर नहीं है तो मैं चला जाता हूँ। वह जाने ही वाले थे कि अज़ीम हुसैन और अजमल खाँ ने हस्तक्षेप किया और कहा कि आप पान खा सकते हैं।
फिर अजमल खाँ बोले - जोश मलीहाबादी का क्या इंटरव्यू लिया जाए! चलिए आप निज़ाम के ख़िलाफ़ लिखी गई अपनी नज़्म ही सुना दीजिए। इस पर जोश साहब ने जवाब दिया- इससे फ़ायदा क्या। मेरी नज़्म का उन लोगों के लिए कोई मतलब नहीं, जो अब भी अंग्रेज़ों के बनाए तौर तरीक़ों से चलते हैं। इस पर वो सब एक स्वर में बोले- आप अपनी नज़्म कहिए। हम सब आप के प्रशंसक हैं। और नज़्म पढ़ने के साथ ही इंटरव्यू भी खत्म-
ख़ामोशी का समाँ है और मैं हूँ।
दयार-ए-ख़ुफ़्तगाँ है और मैं हूँ।
कभी ख़ुद को भी इंसाँ काश समझे
ये सई-ए-रायगाँ है और मैं हूँ ।
कहूँ किस से कि इस जमहूरियत में
हुजूम-ए-ख़सरवाँ है और मैं हूँ ।
पड़ा हूँ इस तरफ़ धूनी रमाये
अताब-ए-रहरवाँ है और मैं हूँ ।
कहाँ है हम-ज़बाँ अल्लाह जाने
फ़क़त मेरी ज़बाँ है और मैं हूँ ।
ख़ामोशी है ज़मीं से आस्माँ तक
किसी की दास्ताँ है और मैं हूँ ।
क़यामत है ख़ुद अपने आशियाँ में
तलाश-ए-आशियाँ है और मैं हूँ ।
जहाँ एक जुर्म है याद-ए-बहाराँ
वो लाफ़ानी-ख़िज़ाँ है और मैं हूँ ।
तरसती हैं ख़रीददारों की आँखें
जवाहिर की दुकाँ है और मैं हूँ।
नहीं आती अब आवाज़-ए-जरस भी
ग़ुबार-ए-कारवाँ है और मैं हूँ ।
म'अल-ए-बंदगी ऐ "जोश" तौबा
ख़ुदा-ए-मेहरबाँ है और मैं हूँ ।
भारत में ब्रिटिश शासन के समाप्त होने के बाद जोश आज-कल प्रकाशन के संपादक बन गए। जवाहर लाल नेहरु के मनाने पर भी जोश सन 1958 में पकिस्तान चले गए। उनका सोचना था कि भारत एक हिन्दू राष्ट्र है, जहां हिंदी भाषा को ज्यादा तवज्जो दी जायगी, न की उर्दू को, जिससे उर्दू का भारत में कोई भविष्य नहीं है। पकिस्तान जाने के बाद वह कराची में बस गए और मौलवी अब्दुल हक के साथ में "अंजुमन-ए-तरक्की-ए-उर्दू" के लिए काम करने लगे और मृत्युपर्यंत फरवरी 1982 तक इस्लामाबाद में ही रहे।
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