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मैं अपनी इच्छाएँ कागज पर छींटता हूँ: आचार्य विश्वनाथ प्रसाद तिवारी

हिंदी के प्रतिष्ठित कवि-आलोचक आचार्य विश्वनाथ प्रसाद तिवारी के जन्मदिन पर विशेष...

मैं अपनी इच्छाएँ कागज पर छींटता हूँ: आचार्य विश्वनाथ प्रसाद तिवारी

Wednesday June 20, 2018 , 7 min Read

हिंदी के प्रतिष्ठित कवि-आलोचक आचार्य विश्वनाथ प्रसाद तिवारी का 20 जून को जन्मदिन होता है। 'अपने-अपने अजनबी' कविता में आचार्य तिवारी लिखते हैं - 'मैं अपनी इच्छाएँ कागज पर छींटता हूँ, मेरी पत्नी अपनी हँसी दीवारों पर चिपकाती है और मेरा बच्चा कभी कागजों को नोचता है, कभी दीवारों पर थूकता है।'

विश्वनाथ प्रसाद तिवारी

विश्वनाथ प्रसाद तिवारी


आचार्य तिवारी के चालीस वर्षों से ऊपर के सक्रिय कवि-कर्म के सफर को देखते हुए कहा जा सकता है कि अपने समकालीनों के बीच रहते हुए भी उन्होंने अपने समकालीनों का अतिक्रमण किया।

बेतियाहाता, गोरखपुर (उ.प्र.) में रह रहे एवं हिंदी साहित्य अकादमी के अध्यक्ष पद से हाल ही निवृत्त हुए हिंदी की प्रतिष्ठित कवि, पत्रिका 'दस्तावेज' के संपादक आचार्य विश्वनाथ प्रसाद तिवारी का आज (20 जून) जन्मदिन है। डॉ तिवारी अंतरराष्ट्रीय पुश्किन पुरस्कार, सरस्वती सम्मान, व्यास सम्मान, साहित्य भूषण सम्मान, हिंदी गौरव सम्मान आदि से समादृत हो चुके हैं। वह मूलतः भेड़िहारी, देवरिया (उ. प्र.) के रहने वाले हैं। सृजन की तीन प्रमुख विधाओं कविता, आलोचना और संस्मरण पर अनवरत कलम चलाते रहे डॉ तिवारी की अब तक कविता संग्रहों में 'आखर अनंत', 'चीजों को देखकर', 'फिर भी कुछ रह जाएगा', 'बेहतर दुनिया के लिए', 'साथ चलते हुए', 'शब्द और शताब्दी', आलोचना में 'आधुनिक हिंदी कविता', 'समकालीन हिंदी कविता', 'रचना के सरोकार', 'कविता क्या है', 'गद्य के प्रतिमान', 'आलोचना के हाशिए पर', 'छायावादोत्तर हिंदी गद्य-साहित्य', 'नए साहित्य का तर्क-शास्त्र', 'हजारीप्रसाद द्विवेदी' आदि, यात्रा-संस्मरणों में 'आत्म की धरती', 'अंतहीन आकाश', 'संस्मरण : एक नाव के यात्री', 'अन्य : मेरे साक्षात्कार' आदि पाठकों एवं कवि-साहित्यकारों के बीच चर्चित रही हैं।

आचार्य विश्वनाथ प्रसाद तिवारी एक लोकप्रिय शिक्षक भी रहे हैं। वह गोरखपुर विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के अध्यक्ष पद से वर्ष 2001 में सेवानिवृत्त हुए। उन्होंने गांव की धूल भरी पगडण्डी से इंग्लैण्ड, मारीशस, रूस, नेपाल, अमरीका, नीदरलैण्ड, जर्मनी, फ्रांस, लक्जमबर्ग, बेल्जियम, चीन, आस्ट्रिया, जापान और थाईलैण्ड की जमीन नापी है। उन्होंने उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान के कई सम्मान हासिल किए। उन्हें केंद्रीय हिंदी संस्थान द्वारा महापंडित सांकृत्यायन सम्मान, महादेवी वर्मा गोइन्का सम्मान, भारतीय भाषा परिषद का कृति सम्मान मिल चुका है। छंदमुक्त रचना के क्षेत्र में आचार्य तिवारी ऐसे विरल कवि हैं, जिनकी छोटी-छोटी कविताएं स्यात कंठस्थ हो जाती हैं। ऐसी ही उनकी एक कविता है 'अभी' -

कुछ शब्द लिखे जाएँगे अभी

कुछ बच्चे पैदा होंगे अभी

कुछ सपने नींद में नहीं आए अभी

कुछ प्रेम कथाएँ शुरू नहीं हुईं अभी

कुछ रंग फूलों में नहीं उभरे अभी

कुछ किरणें धरती पर नहीं पहुँचीं अभी

असंभव नहीं कि रह जाए वही

जो नहीं है अभी।

उनका रचनाकर्म देश और भाषा की सीमायें तोड़ता है। उड़िया अनुवाद के रूप में इनकी कविताओं के दो संकलन प्रकाशित हुए। हजारी प्रसाद द्विवेदी पर लिखी इनकी आलोचना पुस्तक का गुजराती और मराठी भाषाओं में अनुवाद हुआ है। इसके अलावा रूसी, नेपाली, अंग्रेजी, मलयालम, पंजाबी, मराठी, बांग्ला, गुजराती, तेलुगु, कन्नड़, तमिल, असमिया व उर्दू में भी इनकी रचनाओं का अनुवाद हुआ है। आचार्य तिवारी की एक अविस्मरणीय कविता है 'रुपया' -

ओ कागज के गंदे टुकड़े,

उठो,

शैतान तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहे हैं

उठो और चल पड़ो।

चल पड़ो

हवा में मूँछें लहराते

सीना ताने

किसी भी बँगले का

कोई भी प्रहरी

तुम्हें रोक नहीं सकता

तुम ब्रह्मास्त्र हो अमोघ

कवच कुंडल हो अवेध्य

कोई भी शस्त्र नहीं छेद सकता तुम्हें

जला नहीं सकती कोई भी आग

कोई भी जल नहीं गला सकता तुम्हें

सुखा नहीं सकती कोई भी वायु

ओ महासमर के

एकमात्र बच गए योद्धा

चल पड़ो तुम

धरती को कुचलते

और दिशाओं को कँपाते हुए

जिधर भी बढ़ोगे

वहीं बन जाएगा स्वर्ग पथ

उसी पर उतरेंगे धर्मराज

तुम्हारे स्वागत के लिए।

आचार्य तिवारी के चालीस वर्षों से ऊपर के सक्रिय कवि-कर्म के सफर को देखते हुए कहा जा सकता है कि अपने समकालीनों के बीच रहते हुए भी उन्होंने अपने समकालीनों का अतिक्रमण किया। वे अपनी पीढ़ी के उन कवियों में शुमार किया जाता है, जिनके मितकथन और मितभाषा के प्रयोग सघन और ताकतवर हैं, जो आज उनकी काव्योपलब्धि के रूप में रेखांकित किए जा सकते हैं। उनके कवि-कर्म के सरोकारों की गहरी छानबीन की जाए तो उसकी मुख्य थीम में तीन प्रस्थान-बिन्दु चिह्नित होते हैं—स्वाधीनता, स्त्री-मुक्ति और मृत्यु-बोध। गौर से देखें तो उनकी समूची काव्य-यात्रा इन तीन प्रस्थान-बिन्दुओं को लेकर गहन अनुसन्धान करती है।

वह इन तीनों जीवन-दृष्टियों का बोध भारतीय अंत:करण से कराते हैं। स्त्री-अस्मिता की खोज उनके कवि-कर्म के बुनियादी सरोकारों में सबसे अहम है। उनकी कविता के घर में स्त्री के लिए जगह ही जगह है। उनकी दृष्टि में स्त्री के जितने विविध रूप हैं, वे सब सृष्टि के सृजनसंसार हैं। उनके कवि की समूची संरचना देशज और स्थानीयता के भाव-बोध के साथ रची-बसी है, काव्यानुभूति से लेकर काव्य की बनावट तक। भोजपुरी अंचल में पले-बढ़े और सयाने हुए आचार्य तिवारी के मनोलोक की पूरी संरचना भोजपुरी समाज के देशज आदमी की है। उनकी कविताओं में इस समाज का आदमी प्राय: विपत्ति में लाठी की तरह दन्न से तनकर निकल आता है। उनकी एक कविता है 'आरा मशीन' -

चल रही है वह

इतने दर्प में कि चिनगारियाँ छिटकती हैं उससे

दौड़े आ रहे हैं

अगल-बगल के यूकिलिप्टस

और हिमाचल के देवदारु

उसके आतंक में खिंचे हुए

दूर-दूर अमराइयों में

पक्षियों का संगीत गायब हो गया है

गुठलियाँ बाँझ हो गई हैं

उसकी आवाज से

मेरा छोटा बच्चा देख रहा है उसे

कौतुक से

कि कैसे चलती है वह

कैसे अपने आप एक लकड़ी

दूसरी को ठेलकर आगे निकल जाती है

और अपना कलेजा निकालकर

संगमरमर की तरह चमकने लगती है

मेरा बच्चा देख रहा है अचरज से

अपने समय का सबसे बड़ा चमत्कार

तेज नुकीले दाँत

घूमता हुआ पहिया और पट्टा

बच्चा किलकता है ताली बजाकर

मैं सिहर जाता हूँ

अभी वह मेरे सीने से गुजरेगी

मेरे भीतर से एक कुर्सी निकालेगी

राजा के बैठने के लिए

राजा बैठेगा सिंहासन पर

और वन-महोत्सव मनाएगा।

आचार्य तिवारी 'अपने-अपने अजनबी' कविता में लिखते हैं - 'मैं अपनी इच्छाएँ कागज पर छींटता हूँ, मेरी पत्नी अपनी हँसी दीवारों पर चिपकाती है और मेरा बच्चा कभी कागजों को नोचता है, कभी दीवारों पर थूकता है।' जब गद्यवत लिखी कोई कविता पद्यवत मन में उतरती चली जाए, शायद वह आज की सबसे कठिन साहित्य साधना की उपज होती है। क्षणिका जैसी उनकी एक और कविता है 'अमर प्रेम का क्षण', जैसे गागर में सागर -

कुछ भी नहीं था बाहर

सारा ब्रह्मांड सिमट आया था

शरीर में

कुछ भी नहीं था भीतर

सारी चेतना उड़ गई थी

अंतरिक्ष में

कौन-सा क्षण था वह

हमारे अमर प्रेम का

जिसका नहीं किया हमने

अनुभव।

आचार्य तिवारी भारतीय साहित्य की सर्वाधिक सम्मानित एवं प्रतीष्ठित हिंदी साहित्य अकादमी का अध्यक्ष चुने जाने वाले हिंदी के वह पहले लेखक हैं। इससे पहले वह अकादमी के प्रथम हिंदी भाषी उपाध्यक्ष भी रहे। आचार्य तिवारी कहते हैं कि ऐसे समय में जबकि देश में साहित्य की तमाम संस्थाओं, अकादमियों पर निष्क्रियता के आरोप लगते हैं, साहित्य अकादमी अपनी स्वायत्त सक्रियता बनाए हुए है। इसमें अध्यक्ष, उपाध्यक्ष और सभी भाषाओं के संयोजक मतदान द्वारा चुने जाते हैं। मतदान करने वाले भी लेखक ही होते हैं। अकादमी की स्थापना देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु ने की थी। दस वर्षों (मृत्यु पर्यंत) तक वे स्वयं इसके संस्थापक अध्यक्ष रहे। उनके निर्देशन में अकादमी का संविधान और सारा ढांचा लोकतांत्रिक पद्धति पर बना है। मुझे प्रसन्नता है कि अकादमी अभी तक उस लोकतांत्रिक ढांचे को बनाए हुए है। इसके क्रियाकलापों में सरकार का कोई हस्तक्षेप नहीं है।

साहित्य अकादमी के मुख्य रूप से तीन काम हैं। एक तो पूरे देश में साहित्यिक कार्यक्रमों का आयोजन, देश की 24 भाषाओं में महत्वपूर्ण कृतियों के प्रकाशन और उनके परस्पर अनुवाद कराना और इन भाषाओं की श्रेष्ठ कृतियों को पुरस्कृत करना। इन तीनों क्षेत्रों में अकादमी बहुत अच्छा काम कर रही है। छिटपुट विरोध तो होते हैं मगर उन्हें नगण्य समझना चाहिए। अकादमी के पुरस्कारों की प्रतिष्ठा हमेशा से सर्वोपरि रही है। इसी प्रकार इसके कार्यक्रम भी बहुत प्रतीष्ठित माने जाते हैं। साहित्य के सामने सबसे बड़ी चुनौती है कि इसके पाठकों की संख्या घट रही है। हमारी नई पीढ़ी मेडिकल और प्रौद्योगिकी शिक्षा की ओर तेजी से आकर्षित हो रही है। प्रतिभावान बच्चे अपने करियर के लिए चिंतित हैं। बहुत से प्रांतों में साहित्य के पठन-पाठन का सिलसिला कम होते जा रहा है। यह साहित्य के सामने एक बड़ी चुनौती बनी हुई है।

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