ब्रैक्जिट में भारत के लिए बहुत हैं इशारे
ब्रैक्जिट की घटना भारत के लिए आर्थिक परिणामों से अधिक सामाजिक सरोकारों से जुड़ी है, जहाँ बड़ा ख़तरा मंडरा रहा है।
ग्रेट ब्रिटेन ने एक राष्ट्रव्यापी जनमत संग्रह में यूरोपीय संघ से अलग होने का फैसला किया है। यह बर्लिन की दीवार के गिरने के बाद सबसे भयावह घटना है। हालांकि यह एक शुद्ध जीत है, फिर भी पासा फेका जा चुका है और ब्रिटेन के लिए हालात फिर कभी पहले की तरह नहीं होंगे। इसका असर निश्चित रूप से विश्व की अर्थव्यवस्था पर पड़ेगा; और एक नई मंदी की संभावना से भी इंकार नहीं किया जा सकता। दुनिया पहले से ही दहशत और ख़ौफ़ के माहौल में है; विशेषज्ञ क़यामत की भविष्यवाणी कर रहे हैं। भविष्य गंभीर और अनिश्चित लग रहा है। समय इससे ख़राब नहीं हो सकता। लगातार तीन दशकों की विकासात्मक गति के बाद चीन की अर्थव्यवस्था में गिरावट दिखाई दे रही है। ब्राजील एक गंभीर राजनीतिक संकट से गुज़र रहा है और भारत में बड़े बड़े दावों के बावजूद, ज़मीनी स्तर पर सकारात्मक विकास दिखाई नहीं दे रहा है।
इस जनमत संग्रह के कारण आर्थिक कम और राजनीतिक अधिक हैं। इससे तीन बातें स्पष्ट रूप से रेखांकित की जा सकती हैं –
1. वैश्विक पलायन एक गंभीर मुद्दा है और यहाँ तक कि सबसे विकसित समाजों के बारे में जो समझा जा रहा था वे भी उतनी समावेशी नहीं बन पायी हैं।
2. निम्न वर्ग और अमीर के बीच एक स्पष्ट विभाजन है। लंदन अपनी गति से आगे चलेगा, लेकिन कम विकसित और आर्थिक रूप से कमज़ोर क्षेत्रों का यूरोपीय संघ के साथ कोई भविष्य नहीं दिख रहा है;
3. राष्ट्रवाद एक राजनीतिक अनिवार्यता के रूप में वैश्वीकरण की प्रक्रिया से कहीं अधिक प्रभावित करने वाला है। जब अर्थ व्यवस्था उम्मीद खो देती है तो कृत्रिम रूप से बनाया गया सुप्रा-नेशनलिज्म अपने में आकर्षण नहीं रखता।
जैसा कि भारतीय प्रतिष्ठान भारत के बारे में सबसे तेजी से विकास की ओर बढ़ती अर्थव्यवस्था होने के दावा कर रहे हैं, इस घटना से निश्चित रूप से भारत भी प्रभावित होगा। यह ऐसे समय में हो रहा है, जब रिज़र्व बैंक के गवर्नर ने घोषणा की है कि वह एक और कार्यकाल के लिए नहीं रहेंगे और उन्होंने फिर से "विचारों के दुनिया में' वापिस जाने को प्राथमिकता दी है। रघुराम राजन का बैंकिंग के शीर्ष पर न रहना अच्छी खबर नहीं है। मेरी राय में भारत को कहीं अधिक गंभीरता से ब्रैक्जिट को समझने की जरूरत है। भारतीय संदर्भ में कई विभाजनकारी अंतर्धाराओं और गलत दिशाओं के संकेत ब्रेक्जिट से लिए जा सकते हैं । ब्रैक्जिट की घटना भारत के लिए आर्थिक परिणामों से अधिक सामाजिक सरोकारों से जुड़ी है, जहाँ बड़ा ख़तरा मंडरा रहा है। मैं विशेषज्ञों की उस बात से सहमत नहीं हुँ, जो इस घटना को बड़ी आसानी से केवल विद्वेष और अति राष्ट्रवाद की अभिव्यक्ति के रूप में देख रहे हैं। यह एक बहुत ही जटिल सामाजिक-राजनीतिक मुद्दे की सबसे सीधी व्याख्या है; व्याख्या अपनी प्रकृति में न केवल तीखी है, बल्कि बहुत ही कड़वी सच्चाई को प्रतिबिंबित करते हुए विश्व की ओर ताक रही है।
ब्रैक्जिट गहरी अस्वस्थता का एक पृथक उदाहरण भर नहीं है। रिपब्लिकन पार्टी के शीर्ष अधिकारियों के विरोध के बावजूद अमेरिका में डोनाल्ड ट्रम्प का उदय भी इसी तरह की घटना से जुड़ा हुआ है। फ्रांस में दूर-दक्षिणपंथी मरीन ली पेन अगले राष्ट्रपति पद की उम्मीदवार के रूप में उभर रही हैं और यदि किस्मत ने साथ दिया तो, वह अगले राष्ट्रपति हो सकती हैं। भारत का नेतृत्व आरएसएस के हाथ में है, यह दक्षिणपंथी शक्ति इसे एक हिंदू राष्ट्र बनाना चाहती है। मीडल ईस्ट में आईएसआईएस के कट्टर प्रयोगों से दुनिया पहले ही आहत है। कोई भी देश और कोई भी नागरिक सुरक्षित नहीं है। इन सब में एक बात समान है। वे सब 20 वीं सदी की दुनिया की बानगी, समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व को परिभाषित करने वाली "विविधता और बहुलवाद" से घृणा करते दिखाई दे रहे हैं।
पलायन मानव विकास के लिए विकास का इंजन माना गया है। दुनिया में न केवल सस्ते श्रम का ही पलायन हुआ है, बल्कि नए विचार भी इसी से दुनिया के एक भाग से दूसरे भाग में आये हैं। नए विचार जीने की नयी राह बताते हैं। विचारों के फ्यूजन से नई सफलताओं को प्राप्त किया जा सकता है, जो समाज को न केवल अधिक प्रतिस्पर्धी बनाते हैं, बल्कि नई चुनौतियों का सामना करने का हौसला भी देते हैं।
पलायन दो तरह का होता है। एक अपने भूभाग के भीतर और एक बाहरी भूभाग में। भारतीयों ने बेहतर उज्ज्वल भविष्य और नयी संभावनाओं की तलाश में अपने सुरक्षित क्षेत्र से बाहर की राह ली। उत्तर प्रदेश और बिहार से लोग केवल लखनऊ और पटना ही नहीं गये, बल्कि ये लोग केरल के समुद्री किनारों और बेंगलुरू की सड़कों पर भी दिखाई देते हैं। वे पहले से ही मुंबई और दिल्ली की भीड़ का हिस्सा हैं। इसी तरह तमिलनाडु और केरल के लोग दिल्ली के खान मार्केट में बटर चिकन और डोंबीवली, मुंबई में वड़ा पाव का आनंद लेते दिखाई देते हैं।
सत्या नड़ेला और सुंदर पिचाई जैसे लोग आज माइक्रोसॉफ्ट और गूगल के युग में सबसे बड़ी प्रौद्योगिकी कंपनियों के प्रमुख हैं। अगर इंदिरा नूरी पेप्सी की प्रमुख हैं, तो निकेश अरोड़ा कुछ दिन पहले तक तीन सबसे अधिक वेतन पाने वाले अधिकारियों में से एक और एक जापानी कंपनी के गोल्डन ब्वॉय थे। यह सब पलायन के कारण ही संभव हो पाया है। पूर्व और पश्चिम, दोनों इस मिश्रण से लाभान्वित हुए हैं। अमेरिका ने पिछली दो सदियों पर राज किया। यह प्रवासियों का देश है। दुर्भाग्य से ब्रैक्जिट ने एक नई कहानी बुनी है। यह पूरी दुनिया कह रही है कि पलायन अच्छा नहीं है और प्रवासियों का स्वागत नहीं होना चाहिए। जनमत संग्रह में ब्रैक्जिट के समर्थकों में यूरोपीय संघ में आप्रवासियों की आज़ादी की भी मौलिक शिकायत की गई है। जब दुनिया लंदन के मेयर के रूप में एक मुस्लिम के चुने जाने का जश्न मना रही थी तो समाज के एक वर्ग के भीतर इसके प्रति विरोध भी था।
यह कहानी शिवसेना और राज ठाकरे के नेतृत्व वाली महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के कई वर्षों में तैयार किये गये मजबूत कथानक की तरह है। बाला साहेब ठाकरे ने खुले तौर पर 60 और 70 के दशक में दक्षिण भारतीयों की निंदा की और फिर उत्तर भारतीयों को निशाना बनाना शुरू कर दिया। राज ठाकरे और उसके समर्थकों ने खुले तौर पर हिंसा फैलायी। भारतीय संविधान अपने नागरिकों को देश भर में मुक्त आवाजाही की अनुमति देता है और हर नागरिक देश के किसी भी हिस्से में रहने बसने के लिए स्वतंत्र है, लेकिन हर समय "हम बनाम वो " का मुद्दा छिड़ जाता है। राजनेता दिल्ली में बिगड़ती कानून-व्यवस्था के लिए कई बार उत्तर भारतीयों को दोषी ठहराते रहे हैं। भारत के बाकी हिस्सों में भी उत्तर पूर्वी राज्यों के नागरिकों और मूल निवासियों के बीच संघर्ष एक नए संकट के रूप में उभर रहा है। हम इसको प्रतिगामी करार दे सकते हैं और स्थानांतरित भी कर सकते हैं, लेकिन हमें ऐसा अपने स्वयं जोखिम लेकर करना पड़ेगा।
वैश्विक गांव के इस युग में "अपनी धरती से प्रेम और निवासियों का सम्मान" ..सच्चाई यह है कि आज भी "पहचान" मानव के लिए एकमात्र परिभाषित करने वाली सुविधा है। मिश्रण इस हद तक स्वीकार्य है कि इससे सामूहिक रूप से समाज और विशेष रूप से व्यक्ति के लिए कोई ख़तरा न हो। कठिन आर्थिक वास्तविकताएँ असंतोष की प्रक्रिया के इशारे हैं। विविधता को अचानक ख़तरों का सामना है। कभी-कभी बहुलवाद भी सबसे विकसित समाज के लिए एक अभिशाप बन जाता है। विविधता भारत की सबसे बड़ी ताकत है, लेकिन पहचान की ताकतें इसे राजनीतिक कारणों से या मनोवैज्ञानिक कारणों से इसे सबसे बड़े अभिशाप में बदल सकते हैं। एक राष्ट्र के रूप में, हम ब्रैक्जिट से उत्पन्न खतरे से सफलतापूर्वक निपटने के लिए इसे बेहतर तौर पर समझने की कोशिश करते हैं।
(यह लेख आम आदमी पार्टी के नेता आशुतोष ने लिखा है)