आज "अज्ञेय" का जन्मदिन है!
अज्ञेय अपनी पीढ़ी के उन लेखकों में हैं या फिर कहें तो वे इकलौते लेखक हैं, जिन्होंने साहित्य-सृजन के बाहर स्वयं रचनात्मक-सृजन को अपना विषय बनाया। अपनी कविताओं के प्रति अज्ञेय जितने सचेत और जागरुक रहे हैं, शायद ही उनकी पीढ़ी का कोई अन्य लेखक रहा हो और यह बात इसलिए भी उल्लेखनीय लगती है, कि स्वयं विचारों से उनका गहरा संबंध रहा है। यही वजह है कि उनकी कविताएं बौद्धिक न होकर भी वैचारिक आलोक में लिपटी हुई हैं।
"अज्ञेय चोट खाकर परंपरा की तरफ नहीं मुड़ते, न किसी भविष्यवादी दर्शन की ओर... वह तो सिर्फ अपनी ओर मुड़ते हैं, जहां वह स्वतंत्र रूप से अपनी परंपरा से जुड़ सकते हैं और अपने भविष्य से चुन सकते हैं। आलोचकों ने जिसे अज्ञेय का अहं माना है, असल में वह उनका कवच है। स्वयं को सुरक्षित रखने का यंत्र नहीं, बल्कि उन मूल्यों को बचाये रखने का साधन भी जो खत्म होने की ओर बढ़ रहे थे और जिन्हें जानबूझ कर प्रगति, आधुनिकता और युग-धर्म के नाम पर नष्ट किया जा रहा था।"
अज्ञेय अपनी पीढ़ी के उन लेखकों में हैं या फिर कहें तो वे इकलौते लेखक हैं, जिन्होंने साहित्य-सृजन के बाहर स्वयं रचनात्मक-सृजन को अपना विषय बनाया। अपनी कविताओं के प्रति अज्ञेय जितने सचेत और जागरुक रहे हैं, शायद ही उनकी पीढ़ी का कोई अन्य लेखक रहा हो और यह बात इसलिए भी उल्लेखनीय लगती है, कि स्वयं विचारों से उनका गहरा संबंध रहा है। यही वजह है कि उनकी कविताएं बौद्धिक न होकर भी वैचारिक आलोक में लिपटी हुई हैं। अज्ञेय के जन्मदिन पर प्रस्तुत हैं उनकी तीन कविताएं शोषक भैया, साँप और हथौड़ा अभी रहने दो...
(1)
शोषक भैया
डरो मत शोषक भैया : पी लो
मेरा रक्त ताज़ा है, मीठा है हृद्य है
पी लो शोषक भैया : डरो मत।
शायद तुम्हें पचे नहीं-- अपना मेदा तुम देखो, मेरा क्या दोष है।
मेरा रक्त मीठा तो है, पर पतला या हल्का भी हो
इसका ज़िम्मा तो मैं नहीं ले सकता, शोषक भैया?
जैसे कि सागर की लहर सुन्दर हो, यह तो ठीक,
पर यह आश्वासन तो नहीं दे सकती कि किनारे को लील नहीं लेगी
डरो मत शोषक भैया : मेरा रक्त ताज़ा है,
मेरी लहर भी ताज़ा और शक्तिशाली है।
ताज़ा, जैसी भट्ठी में ढलते गए इस्पात की धार,
शक्तिशाली, जैसे तिसूल : और पानीदार।
पी लो, शोषक भैया : डरो मत।
मुझ से क्या डरना?
वह मैं नहीं, वह तो तुम्हारा-मेरा सम्बन्ध है जो तुम्हारा काल है
शोषक भैया!
(2)
साँप
साँप !
तुम सभ्य तो हुए नहीं
नगर में बसना
भी तुम्हें नहीं आया।
एक बात पूछूँ--(उत्तर दोगे?)
तब कैसे सीखा डँसना--
विष कहाँ पाया?
(3)
हथौड़ा अभी रहने दो
हथौड़ा अभी रहने दो
अभी तो हन भी हम ने नहीं बनाया।
धरा की अन्ध कन्दराओं में से
अभी तो कच्चा धातु भी हम ने नहीं पाया।
और फिर वह ज्वाला कहाँ जली है
जिस में लोहा तपाया-गलाया जाएगा-
जिस में मैल जलाया जाएगा?
आग, आग, सब से पहले आग!
उसी में से बीनी जाएँगी अस्थियाँ;
धातु जो जलाया और बुझाया जाएगा
बल्कि जिस से ही हन बनाया जाएगा-
जिस का ही तो वह हथौड़ा होगा
जिस की ही मार हथियार को
सही रूप देगी, तीखी धार देगी।
हथौड़ा अभी रहने दो:
आओ, हमारे साथ वह आग जलाओ
जिस में से हम फिर अपनी अस्थियाँ बीन कर लाएँगे,
तभी हम वह अस्त्र बना पाएँगे जिस के सहारे
हम अपना स्वत्व-बल्कि अपने को पाएँगे।
आग-आग-आग दहने दो:
हथौड़ा अभी रहने दो!