खुशी से रुला देती है कचरा बीनने वाले के बेटे की कामयाबी की दास्तान
कचरा बीनने वाले के उस बेटे ने क्वालिफाई कर ली एम्स एमबीबीएस की परीक्षा...
एम्स क्वालिफाई करने वाले आशाराम की दास्तान किसी की भी आंखें गीली कर सकती है। उनके पिता कचरा बीन-बेचकर घर चलाने के साथ ही सभी बच्चों को एजुकेट कर रहे। एम्स में चयन के बाद जब आशाराम ने पिता से कहा कि अब आप कचरा बीनना छोड़े दें, वह उनके लिए सब्जी की छोटी सी दुकान खोल देंगे तो पूरा परिवार खुशी से रो पड़ा। कलक्टर ने स्वयं रेल टिकट देकर अपने मातहत अधिकारी के साथ आशाराम को एम्स, जोधपुर भेजने का इंतजाम किया।
आशाराम की प्राथमिक शिक्षा गांव के ही एक सरकारी स्कूल में हुई। उसके बाद आगे की पढ़ाई देवास के एक अन्य स्कूल से की। अपनी सफलता पर फूले नहीं समा रहे आशाराम कहते हैं कि एमबीबीएस की पढ़ाई के लिए एम्स में चयनित होने की खुशी वह शब्दों में प्रकट नहीं कर पा रहे हैं।
बच्चे हर देश की धरोहर होते हैं और हर देश का भविष्य बच्चों पर ही निर्भर करता है। वही बड़े होकर देश के भाग्य विधाता बनते हैं, घर-परिवार ही नहीं, पूरे समाज को विकास की राह पर ले जाते हैं। आसान और अनुकूल परिस्थितियों में तो किसी भी बच्चे को बेहतर राह मिल जाती है लेकिन कठिन परिस्थितियों से लड़ते हुए जो बच्चा माता-पिता और अपने भविष्य के सपनों को पंख लगा लेता है, वह आम बच्चा नहीं होता। कचरा बीनकर घर-गृहस्थी चला रहे देवास (मध्य प्रदेश) पिता की संतान आशाराम चौधरी ऐसे ही प्रतिभावान छात्र हैं, जिन्होंने फटेहाली के बावजूद अपनी कड़ी मेहनत से एम्स क्वालिफाई किया है। ओबीसी वर्ग में उनकी 141वीं रैंक आई है। उनका चयन एम्स, जोधपुर में एमबीबीएस की पढ़ाई के लिए हुआ है।
जब आशाराम का चयन एम्स के लिए हो गया, तो उन्होंने अपने पिता से कहा कि 'अब आप कचरा बीनने का काम छोड़ दें। वह उनके लिए सब्जी की एक छोटी सी दुकान खोल देंगे।' आशाराम जैसे बेटे ही तो नए जमाने के श्रवण कुमार हैं। जब उन्होंने अपने पिता का दुख सब्जी की दुकान खोलने के आश्वासन के साथ साझा किया तो पूरे परिवार की पलकें भीग गईं। पिता तो बरबस रो पड़ें अपनी संतान की ऐसी लायकियत पर। मां भी भावुक हो गईं। जब आशाराम की इस कामयाबी का शासन और प्रशासन को पता चला तो उच्चाधिकारी भी मुग्ध हो उठे। आशाराम ने ही बताया कि कलक्टर ने स्वयं उनके लिए जोधपुर तक का रेल टिकट खरीदा। साथ ही उन्हें जोधपुर पहुंचाने के लिए अपना मातहत अधिकारी भी भेजा कि वह उन्हें एम्स तक पहुंचाकर आएं। प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह ने भी आशाराम की पीठ थपथपाई है।
हौसले बुलंद हो, तो गरीबी भी बाधा नहीं बनती है। बस मन में जज्बा और अपने ऊपर आत्मविश्वास होना चाहिए। देश में ऐसे तमाम बच्चे हैं जो अपनी प्रतिभा और मेहनत से घर-परिवार का नाम रोशन कर रहे हैं। घाघरा (झारखंड) के घोर उग्रवाद प्रभावित नवनी गांव के रमेश साहू ने लॉर्ड बुद्धा इंटर कॉलेज से इंटर में 377 अंक प्राप्त कर गुमला जिला टॉप किया तो लोग इस बात पर नाज करने लगे कि मजदूरी करने वाले लक्ष्मण साहू के पुत्र ने कमाल कर दिया है। लक्ष्मण अपने गांव से तीन किलो मीटर दूर एक ईंट भट्ठे पर मजदूरी करते हैं और रमेश मेलों में गुब्बारे, खिलौने बेचकर अपनी पढ़ाई का खर्च निकालता है। जिस समय उसका इंटर का रिजल्ट आया था, उस वक्त भी वह मेले में खिलौने बेच रहा था। ऐसी ही दास्तान दौसा (राजस्थान) के गांव नागलमीणा निवासी सुनील कुमार की है। उनके माता-पिता नरेगा में मजदूरी करते हैं।
अपने कठिन हालात में वह बच्चों को पढ़ा रहे हैं। इस त्याग का उन्हें फल भी मिल रहा है। हाल ही में जेईई-एडवांस्ड-2018 में एलन कॅरियर इंस्टीट्यूट के छात्र सुनील कुमार मीणा ने 245 अंक प्राप्त कर एसटी वर्ग में अखिल भारतीय स्तर पर चौथा स्थान और सामान्य श्रेणी में 347वीं रैंक प्राप्त की है। चितौड़गढ़ (राजस्थान) के कस्बा रावतभाटा के भी एक मजदूर परिवार की छात्रा दीपांशी सिसोदिया ने अपने आसपास रोशनी बिखेरी है। उसे हर महीने 54 हजार रुपए से ज्यादा के मासिक स्कॉलरशिप पर कनाडा में पढ़ाई का अवसर मिला है। दीपांशी सूरत एनआईटी इंजीनियरिंग कॉलेज में पढ़ाई के दौरान तीसरे वर्ष की टॉपर रही हैं।
प्रतिभा के आगे किसी की एक नहीं चलती है। वह गरीबी को भी पछाड़ कर आगे निकल जाती है। इसकी ताजा मिसाल हैं आशाराम चौधरी। वह कचरा बीनने वाले घर पैदा हुए। पूरी पढ़ाई भीषण तंगहाली में गुजरी। अभी घर के वैसे ही हालात हैं। पिता रणजीत चौधरी कचरा बीन-बेचकर पैसे लाते हैं तो घर में चूल्हा जलता है। ऐसे माहौल में आशाराम ने अपने पहले ही प्रयास में एम्स का एग्जॉम क्वालिफाई कर लिया। उनकी ओबीसी वर्ग में 141वीं रैंक रही। देवास के विजयागंज मंडी गांव में आशाराम के पिता की घास-फूस की एक झोपड़ी है, जिसमें न तो शौचालय है, न बिजली कनेक्शन। मां ममता बाई गृहिणी हैं। छोटा भाई सीताराम नवोदय विद्यालय में 12वीं की पढ़ाई कर रहा है और बहन नर्मदा भी नौवीं में पढ़ रही है। पिता की हिम्मत तो देखिए कि अपनी लाख तंगहाली के बावजूद उन्होंने अपनी संतानों को एजुकेट करना अपनी जिंदगी का मकसद बना लिया। घर में कमाई का जरिया सिर्फ कचरा बीनना, बेचना है। ऐसे में आशा राम की कामयाबी समाज के लिए प्रेरणा का स्रोत बनी।
आशाराम की प्राथमिक शिक्षा गांव के ही एक सरकारी स्कूल में हुई। उसके बाद आगे की पढ़ाई देवास के एक अन्य स्कूल से की। अपनी सफलता पर फूले नहीं समा रहे आशाराम कहते हैं कि एमबीबीएस की पढ़ाई के लिए एम्स में चयनित होने की खुशी वह शब्दों में प्रकट नहीं कर पा रहे हैं। उनका अगला सपना न्यूरो सर्जन बनना है। उनकी इच्छा है कि एमबीबीएस के बाद वह न्यूरोलॉजी में मास्टर ऑफ सर्जरी करें। वह अपना सपना पूरा करने के लिए विदेश नहीं जाएंगे, न पढ़ाई पूरी करने के बाद विदेश में जाकर बसना चाहेंगे। पढ़ाई खत्म करने के बाद वह अपने गांव आकर अपना पूरा जीवन क्षेत्र के गरीबों के दवा-इलाज में बिताना चाहेंगे। वह अपने गांव विजयागंज मंडी में खुद का एक अस्पताल खोलेंगे। उनके परिवार की आर्थिक स्थिति बिल्कुल भी अच्छी नहीं है। पिताजी पन्नियां, खाली बोतलें और कचरा बीनकर घर का खर्च चला रहे हैं। इतना ही नहीं, उन्ही के पैसों से उन्हे और अपने भाई-बहनों को पढ़ने का अवसर मिला है।
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