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मंचों पर सम्मोहक प्रस्तुतियां देने वाले 'गीत ऋषि' रमानाथ अवस्थी

मधुवन में सोए गीत हज़ारों हैं, जो भी तुमसे जग जाएँ, जगा लेना...

मंचों पर सम्मोहक प्रस्तुतियां देने वाले 'गीत ऋषि' रमानाथ अवस्थी

Thursday June 29, 2017 , 5 min Read

'मेरी रचना के अर्थ बहुत से हैं, जो भी तुमसे लग जाए लगा लेना, ...मधुवन में सोए गीत हज़ारों हैं, जो भी तुमसे जग जाएँ, जगा लेना।' ऐसे मधुर गीतों के यशस्वी रचनाकार रमानाथ अवस्थी दशकों तक हिंदी पट्टी के साहित्यिक मंचों और कविसम्मेलनों से पूरे देश में मुखरित होते रहे हैं। 'सुमन- सौरभ, 'आग और पराग, 'राख और शहनाई', 'बंद न करना द्वार' आदि काव्य-कृतियों के इस लोकप्रिय प्रणेता की आज पुण्यतिथि है।

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"अजब रसायन के रचनाकार लगते हैं मुझे पंडित रमानाथ अवस्थी, जिसमें पाँच ग्राम निराला, सात ग्राम बाबा तुलसीदास, दो ग्राम कबीर और डेढ़ ग्राम रविदास के साथ आधा ग्राम 'ठाकुरजी' को खूब बारीक कपड़े से कपड़छान करके आधा पाव इलाचंद्र जोशी में मिलाया जाए तथा इस सबको अंदाज़ से बच्चन जी में घोलकर खूब पकाया जाए: डॉ. कन्हैयालाल नंदन"

कवि रमानाथ अवस्थी के शब्द मंत्रवत मन को आज भी आलोड़ित करते हैं। मंचों पर उनकी प्रस्तुतियां भी सम्मोहक रही हैं। उनके कविता पाठ के समय श्रोता मंत्रमुग्ध-से हो जाया करते थे। उनकी रचनाओं में, सहजता भी, उनके सृजन की एक खास विशेषता रही है।

'सो न सका कल याद तुम्हारी आयी सारी रात, और पास ही बजी कहीं शहनाई सारी रात...।' कवि रमानाथ अवस्थी की इन पंक्तियों को आज भी लोग गुनगुनाते रहते हैं। उनके शब्द मंत्रवत मन को आलोड़ित करते हैं। मंचों पर उनकी प्रस्तुतियां भी सम्मोहक रही हैं। उनके कविता पाठ के समय श्रोता मंत्रमुग्ध-से हो जाया करते थे। उनकी रचनाओं में, सहजता भी, उनके सृजन की एक खास विशेषता रही है। अपने मंचीय जीवन में उन्होंने आज की तरह कभी धन अथवा यश के लिए अप्रिय-अस्वीकार्य उपायों का सहारा नहीं लिया। इसलिए यह भी उल्लेखनीय है कि उनको लोक जीवन में बलबीर सिंह रंग, गोपालदास नीरज, रामावतार त्यागी, सोम ठाकुर, किशन सरोज जैसे प्रख्यात कवियों की धारा में अपार ख्याति मिली।

रमानाथ अवस्थी को मंचों पर 'गीत ऋषि' कहकर बुलाया जाता था। वह अपनी रचनाओं में जितने मीठे और सरल थे, स्वभाव में भी उन्हीं शब्दों की तरह मुलायम और तरल। देश के शीर्ष साहित्यकार-पत्रकार कन्हैयालाल नंदन के साथ उनकी गहरी आत्मीयता थी। वह जिस कवि सम्मेलन में आमंत्रित किए जाते, चाहते थे कि नंदनजी को भी उसमें अवश्य बुलाया जाए। बॉयपास सर्जरी के दिनो में वह काव्य-पाठ से परहेज करने लगे थे।

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डॉ. कन्हैयालाल नंदन लिखते हैं - अजब रसायन के रचनाकार लगते हैं मुझे पंडित रमानाथ अवस्थी, जिसमें पाँच ग्राम निराला, सात ग्राम बाबा तुलसीदास, दो ग्राम कबीर और डेढ़ ग्राम रविदास के साथ आधा ग्राम 'ठाकुरजी' को खूब बारीक कपड़े से कपड़छान करके आधा पाव इलाचंद्र जोशी में मिलाया जाए तथा इस सबको अंदाज़ से बच्चन जी में घोलकर खूब पकाया जाए। रमानाथ जी का मानसिक रचाव कुछ ऐसे ही रसायन से हुआ है। वे निराला के स्वाभिमान को अपने अंतर्मन में इतना गहरे जीते हैं कि अनेक लोग सकते में आ जाते हैं। उनकी कविता की ख़ासियत है कि लगता है ,जैसे बतियाते अंदाज़ में वाक्य उठाकर कविता की पंक्ति बना दिए गए हैं।

रमानाथ अवस्थी उन गीतकारों में से थे, जिनको सुनते समय लगता था, मानो समय ठहर-सा गया है। मैंने उनके साथ, उनकी कविताएं सुनते हुए जिया है। उनके शब्दों की कशिश कुछ ऐसी है कि ख़त्म होते ही दुबारा गुनगुनाने का मन करता है। जिन्होंने भी उनके गीत सुने हैं, वे ही उनको महसूस कर सकते हैं: अनूप कुमार शुक्ल

रमानाथ अवस्थी आकाशवाणी, दिल्ली में पदस्थ रहे। अपने कार्यकाल में उन्हें तरह-तरह से विभागीय असम्मान का सामना करना पड़ा लेकिन अपनी उन विपरीत परिस्थितियों से उन्होंने कभी हार नहीं मानी। उनका मानना था कि मनुष्य को जिंदगी के व्यवहार जगत में इस तरह के हालात कभी सताते, कभी दुलराते रहते हैं। हार जाना यंत्रणा की जीत होती है और डटे रहना सद्भावना की सफलता। तभी तो वह कहते हैं- दुनिया बेपहचानी ही रह जाती, यदि दर्द न होता मेरे जीवन में

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देश ने बार-बार उन्हें दिल्ली के लाल किले से सुना और सराहा। वह झूम-झूम कर कविताएं सुनाते थे। जब तक वह कविता पाठ करते, तालियां थमने का नाम नहीं लेती थीं। इसी क्रम में एक बार तत्कालीन प्रधानमंत्री चंद्रशेखर के सामने लाल किले से जब वह कविता पाठ कर रहे थे- 'वह जो नाव डूबनी है मैं उसी को खे रहा हूँ, तुम्हें डूबने से पहले एक भेद दे रहा हूँ, मेरे पास कुछ नहीं है जो तुमसे मैं छिपाता, मेरे पंख कट गए हैं वरना मैं गगन को गाता....' कविता पाठ खत्म होने के बाद प्रधानमंत्री ने पूछा था- 'रमानाथ जी, क्या ये पंक्तियाँ आपने मेरे लिए लिखी हैं?'

उनका यह गीत देश के मंचों से बार-बार गूंजा है। उनसे सुन चुके साहित्य प्रेमी, सुधी आज भी इसकी पंक्तियां भूल नहीं पाते हैं-

मेरी रचना के अर्थ बहुत से हैं, जो भी तुमसे लग जाए लगा लेना।

मैं गीत लुटाता हूँ उन लोगों पर, दुनिया में जिनका कोई आधार नहीं,

मैं आँख मिलाता हूँ उन आँखों से, जिनका कोई भी पहरेदार नहीं,

आँखों की भाषाएँ तो अनगिन हैं, जो भी सुंदर हो, समझा देना।

पूजा करता हूँ उस कमज़ोरी की, जो जीने को मज़बूर कर रही है,

मन ऊब रहा है अब उस दुनिया से, जो मुझको तुमसे दूर कर रही है,

दूरी का दुख बढ़ता ही जाता है, जो भी तुमसे घट जाए घटा लेना।

कहता है मुझसे उड़ता हुआ धुआँ, रुकने का नाम न ले तू उड़ता जा,

संकेत कर रहा नभ वाला घन, प्यासे प्राणों पर मुझ सा गलता जा,

पर मैं खुद ही प्यासा हूँ मरुथल-सा, यह बात समंदर को समझा देना।

चाँदनी चढ़ाता हूँ उन चरणों पर, जो अपनी राहें आप बनाते हैं,

आवाज़ लगाता हूँ उन गीतों को, जिनको मधुवन में भौंरे गाते हैं,

मधुवन में सोए गीत हज़ारों हैं, जो भी तुमसे जग जाएँ जगा लेना।