एक कविता किसान के नाम - मैं किसान हूँ!
देश में किसानो की स्थिति सही नहीं है, सरकार की तमाम कोशिशों और दावों के बावजूद कर्ज के बोझ तले दबे किसानों की आत्महत्या का सिलसिला नहीं रूक रहा। राष्ट्रीय अपराध लेखा कार्यालय के आँकड़ों के अनुसार देश में हर महीने 70 से अधिक किसान आत्महत्या कर रहे हैं।
जलते हुए मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र की तस्वीरें बयां करती हैं की कहीं तो चूक हुई है। पांच बार कृषि कर्मण पुरस्कार जिस राज्य ( म.प्र.) को मिला सबसे बढ़िया गेहूं उत्पादन के लिए उसी राज्य में किसान नाखुश क्यों हैं ? मध्यप्रदेश, तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश और पंजाब ये वो राज्य हैं जिन्हे इस बार कृषि कर्मण पुरष्कार दिया गया है देश में कृषि के क्षेत्र में अभूतपूर्व योगदान के लिए ।
शिवराज सिंह चौहान जी के दावे काफी हद तक सही हैं कि कृषि में मध्य प्रदेश की स्थिति बदतर से बेहतर हुई है और राज्य अब बीमारू राज्यों को श्रेणी से बहार आगया है , फिर भी ये आंदोलन, ये असंतोष और किसान की वर्त्तमान स्थिति सरकारी आंकड़ों का समर्थन करती नहीं दिख रही ।
हल ही में तमिलनाडु के किसानों ने जंतर मंतर, दिल्ली में अजीबो गरीब ढंग से प्रदर्शन किया और अपनी स्थिति से देश को अवगत करवाया, इसके बाद अब महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश का किसान आंदोलन ।
हालाँकि किसानों की इस आवाज का कुछ विशेष राजनितिक दल राजनीतिकरण कर रहे हैं, अपनी राजनितिक रोटियां सेंकने में मशगूल ये दल शायद ये भूल गए हैं की इस देश का अस्तित्व ही किसानी से है और उनसे गद्दारी सही नहीं है ।
खैर ! कुछ शब्द हैं जो मैंने किसानों की मनोदशा को समझाने के लिए संजोये हैं , आप भी पढ़ें :
मैं किसान हूँ !
बंजर सी धरती से सोना उगाने का माद्दा रखता हूँ,
पर अपने हक़ की लड़ाई लड़ने से डरता हूँ.
ये सूखा, ये रेगिस्तान, सुखी हुई फसल को देखता हूँ,
न दीखता कोई रास्ता तभी आत्महत्या करता हूँ .
उड़ाते हैं मखौल मेरा ये सरकारी कामकाज ,
बन के रह गया हूँ राजनीती का मोहरा आज .
क्या मध्य प्रदेश क्या महाराष्ट्र , तमिलनाडु से लेकर सौराष्ट्र ,
मरते हुए अन्नदाता की कहानी बनता, मै किसान हूँ !
साल भर करूँ मै मेहनत, ऊगाता हूँ दाना ,
ऐसी कमाई क्या जो बिकता बहार रुपया पर मिलता चार आना.
न माफ़ कर सकूंगा, वो संगठन वो दल,
राजनीती चमकाते बस अपनी, यहाँ बर्बाद होती फसल.
डूबा हुआ हूँ कर में , क्या ब्याज क्या असल,
उन्हें खिलाने को उगाया दाना, पर होगया मेरी ही जमीं से बेदखल.
बहुत गीत बने बहुत लेख छपे की मै महान हूँ,
पर दुर्दशा न देखी मेरी किसी ने, ऐसा मैं किसान हूँ !
लहलहाती फसलों वाले खेत अब सिर्फ सनीमा में होते हैं,
असलियत तो ये है की हम खुद ही एक-एक दाने को रोते हैं.
अब कहाँ रास आता उन्हें बगिया का टमाटर,
वो धनिया, वो भिंडी और वो ताजे ताजे मटर.
आधुनिक युग ने भुला दिया मुझे मै बस एक छूटे हुए सुर की तान हूँ,
बचा सके तो बचा ले मुझे ए राष्ट्रभक्त, मैं किसान हूँ !
आगे बढ़ते हैं और नज़र डालते हैं कुछ आंकड़ों पर।
राष्ट्रीय अपराध लेखा कार्यालय(NCRB) के आँकड़ों के अनुसार भारत भर में 2008 में 16196 किसानों ने आत्महत्याएँ की थी। 2009 ई. में आत्महत्या करने वाले किसानों की संख्या में 1172 की वृद्धि हुई। 2009 के दौरान 17368 किसानों द्वारा आत्महत्या की आधिकारिक पुष्टि हुई।
सरकारी आँकड़ों के अनुसार 1994 से 2011 के बीच 17 वर्ष में 7 लाख, 50 हजार, 860 किसानों ने आत्महत्या की है। भारत के सबसे धनि और विकसित प्रदेश महाराष्ट्र में अब तक किसानों की आत्महत्याओं का आँकड़ा 50 हजार 860 तक पहुँच चुका है। 2011 में मराठवाड़ा में 434, विदर्भ में 226 और खानदेश (जलगाँव क्षेत्र) में 133 किसानों ने आत्महत्याएँ की है। आंकड़े बताते हैं कि 2004 के पश्चात् स्थिति बद से बदतर होती चली गई।
2001 की जनगणना के आंकड़े बताते हैं कि पिछले दस वर्षों में 70 लाख किसानों ने खेती करना बंद कर दिया। 2011 के आंकड़े बताते हैं कि पाँच राज्यों क्रमश: महाराष्ट्र, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में कुल 1534 किसान अपने प्राणों का अंत कर चुके हैं।
न जाने कब अन्नदाता की स्थिति सुधरेगी ? न जाने कब भारत एक बार फिर से कृषि प्रधान देश बनेगा ? इन प्रश्नों के साथ आप से विदा लेता हूँ फिर मिलेंगे एक नए लेख और कविता के साथ ।
जय जवान-जय किसान !