फांसी की सजा के बावजूद भी हर रोज क्यों दोहराए जाते हैं निर्भया कांड!
एक साल में महिलाओं के खिलाफ अत्याचार के 3.39 लाख मामले और 1.10 लाख मामले रेप के, सवाल सामने है कि आखिर इस दरिंदगी का इंतहा क्या है?
ये क्या हो रहा है? क्यों फांसी की सजा तक का प्रावधान भी धरा रह गया है? अब तो लगता ही नहीं कि हम किसी सभ्य समाज में हैं। मानो देश नहीं, कोई कबीला हो। ऐसे हालात के खुलासे कोई दुश्मन व्यक्ति नहीं, दुनिया भर की शोध-सर्वे एजेंसियां कर रही हैं कि महिला असुरक्षा में भारत नंबर वन है। रोजाना सुबह-सुबह अखबार हर देशवासी को डराने लगे हैं।
दावा किया जाता है कि हमारी सभ्यता पांच हजार वर्ष पुरानी है। इस देश की संस्कृति में 135 करोड़ की देवी-देवताओं के मंत्र गूंजते हैं। एक ओर बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ का राष्ट्रीय मिशन चल रहा है, दूसरी तरफ भारत महिला तस्करी का भी सबसे बड़ा बाजार बनता जा रहा है।
एक साल में महिलाओं के खिलाफ अत्याचार के 3.39 लाख मामले और 1.10 लाख मामले रेप के, सवाल सामने है कि आखिर इस दरिंदगी का इंतहा क्या है? इन वास्तविक आकड़ों के साथ एक सचाई और जुड़ी है कि रेप के ज्यादातर मामले पुलिस तक पहुंचते ही नहीं हैं। एक सवाल और उठता है- निर्भया कांड के बाद तमाम कानूनों में संशोधन, तो फिर फांसी तक की सजा के कानून का भी अब क्या मतलब निकलता है। ऐसी अनहोनियों से अखबार रोजाना सुबह-सुबह हर देशवासी को डराने लगे हैं। एक ओर केंद्र सरकार ने बारह साल से कम उम्र की बच्चियों के साथ रेप के मामलो में फांसी की सजा का प्रावधान किया है, दूसरी तरफ कठुआ में आठ साल की बच्ची से गैंगरेप-हत्या, मध्य प्रदेश में सात साल की बच्ची से गैंगरेप, बिहार में स्कूल प्रिंसिपल और उसके गुर्गों का छात्रा से महीनों गैंगरेप, चेन्नई में किशोरी से सात महीने तक गैंग रेप, तमिलनाडु में रूसी महिला से गैंगरेप, यह सब आए दिन होने लगा है। अपना हर शहर, हर गांव असुरक्षित हो चुका है। लगता ही नहीं कि हम सभ्य समाज में जी रहे हैं। मानो देश नहीं, किसी कबीले में रहे हों हम।
ऐसे हालात के खुलासे कोई दुश्मन नहीं, बल्कि दुनिया भर की शोध-सर्वे एजेंसियां कर रही हैं। कुछ दिन पहले ही थॉमसन रॉयटर्स की साढ़े पांच सौ रिसर्चर्स द्वारा तैयार एक सर्वे रिपोर्ट में बताया गया है कि महिला असुरक्षा के मामले में भारत पूरी दुनिया में नंबर वन बन चुका है। अफगानिस्तान दूसरे, सीरिया तीसरे, तसोमालिया चौथे, साऊदी अरब पांचवें, पाकिस्तान छठवें, डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ कॉगो सातवें, यमन आठवें, नाइजीरिया नौवें और अमेरिका दसवें नंबर पर बताया गया है। सर्वे रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत देश में हर घंटे चार महिलाओं का रेप होता है। 2007 से 2016 के बीच स्त्री-विरोधी अपराधों में 83 प्रतिशत इजाफा हुआ है। महिला बाल विकास मंत्रालय इस सर्वे रिपोर्ट पर चुप सा है। केंद्र सरकार का कहना है कि अपनी सर्वे रिपोर्ट जारी करने से पहले थॉमसन रायटर्स फाउंडेशन ने संबंधित मंत्रालय से संपर्क नहीं किया।
हमारे देश में रेप को सबसे जघन्य कृत्य, शर्म का मुद्दा माना जाता है। ऐसा कलंक का टीका, जो जीवन भर मिटाए न मिटे। महिलाओं के प्रति समाज के इस नजरिये का आखिर समाधान क्या है? अब तो अपराधी रेप के वीडियो वायरल करने की धमकी देते रहते हैं। निर्भया कांड पर गठित न्यायमूर्ति जेएस वर्मा समिति की 644 पेज की रिपोर्ट और उसके आधार पर आपराधिक कानून (संशोधन) अधिनियम, 2013 को याद करिए और सोचिए कि पिछले पांच वर्षों में हालात सुधरने की बजाय और ज्यादा बदतर क्यों हो चले हैं?
समाजविज्ञानी इस बात से चिंतित हैं कि हाल के महीनों में मासूम बच्चियों तक के साथ रेप की घटनाएं लगातार बढ़ती जा रही हैं। सरकारी आंकड़े भी इसकी पुष्टि कर रहे हैं। नेशनल क्राइम रिकार्ड्स ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़ों के मुताबिक देश में कुछ वर्ष पूर्ण के रेप के 24,923 मामलों के मुकाबले ऐसी घटनाओं की संख्या डेढ़ गुनी से भी ज्यादा बढ़ कर 38,947 तक पहुंच चुकी है। ये आंकड़ा भी पूरी तरह सही नहीं क्योंकि रेप के ज्यादातर मामले या तो पुलिस तक पहुंच नहीं रहे हैं, या किन्ही स्तरों पर दब-दबा दिए जा रहे हैं।
दावा किया जाता है कि हमारी सभ्यता पांच हजार वर्ष पुरानी है। इस देश की संस्कृति में 135 करोड़ की देवी-देवताओं के मंत्र गूंजते हैं। एक ओर बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ का राष्ट्रीय मिशन चल रहा है, दूसरी तरफ भारत महिला तस्करी का भी सबसे बड़ा बाजार बनता जा रहा है। वैदिक संस्कृति से लेकर वर्तमान के लोकतांत्रिक संविधान तक में महिला सम्मान और समानता पर जोर है लेकिन महिला विरोधी खतरनाक मानसिकता के हमले और ज्यादा तेजी से बढ़ते ही जा रहे हैं। इस मामले में भारतीय मीडिया की सबसे खतरनाक भूमिका सामने आ रही हैं। वह पूरी कट्टरता से बाजारवादी मूल्यों को हवा देते हुए स्त्रियों को पण्य-वस्तु बनाने पर आमादा है। अपसांस्कृतिक हमले की इस मुहिम के साथ इंटरटेनमेंट की एक मजबूत धुरी सिने निर्माताओं को भी फूहड़ता परोसने के लिए जैसे छुट्टा छोड़ दिया गया है। बौद्धिक वर्गों में कौतुहल है कि सेंसर बोर्ड किस चिड़िया का नाम है!
क्या बाबा तुलसीदास भले कि लिख गए - 'ढोल-गवार, शुद्र, पशु, नारी, सबहि ताड़ना के अधिकारी'? क्या 'यत्रनार्यस्तु पूज्यंते, रमंते तत्र देवता' सिर्फ कहने की बात? रेप और स्त्री-असुरक्षा की घटनाएं निरंतर बढ़ते जाने की कई वजहों में एक प्रमुख कारण हमारी हजारों साल पुरानी सभ्यता, पुरुष प्रधान सामाजिक-आर्थिक वर्चस्व की व्यवस्था है। चारो तरफ पुरुषों का बोलबाला है। इसीलिए कड़े से कड़े कानून और मुखर तमाम स्त्री-संगठन भी असहाय हैं। 'पद्मावत' जैसी फिल्मों में जौहर की गौरव गाथा गाई जा रही है। ऐसे में सवाल उठते हैं कि कौन रोके कन्या भ्रूण हत्या, मासूमों से रेप, बाल-विवाह, डायन-चुड़ैल व कुल-गोत्र-जाति के नाम पर महिलाओं की हत्या, विधवा-परित्यक्ताओं का शोषण, काशी-वृंदावन की ओर उनका बड़ी संख्या में पलायन।
अब तो पूरी तरह साबित हो चुका है कि सामाजिक-राजनीतिक संस्थाएं जितनी नैतिकतावादी, उतनी डरपोक। समाज विज्ञानी यौन अपराधों के लिए हमारी जाति व्यवस्था को बहुत हद तक जिम्मेदार मान रहे हैं। महिलाओं के खिलाफ होने वाली हिंसा में जातिगत दुश्मनी की भी अहम भूमिका सामने आ रही है। कश्मीर में आठ साल की बच्ची के साथ रेप का जातिगत कारण बताया जा रहा है। कथित उच्च जाति के पुरुष, दलित-आदिवासी समुदायों की महिलाओं को लगातार अपना निशाना बना रहे हैं। सतना (मध्य प्रदेश) की एक दलित लड़की ने पुलिस को बताया था कि उसका कई महीनों तक उच्च जाति के तीन लड़कों ने रेप किया।
छत्तीसगढ़ में 22 साल की एक महिला ने पंडित पर रेप का आरोप लगाया। देश में ऐसे मामलों की एक बड़ी लंबी फेहरिस्त है। हैरानी की बात तो ये है कि ऐसे यौन अपराधों को लेकर कोई मुकम्मल जातिगत आंकड़ा नहीं है। जातिवादियों ने यौन हिंसा को भी अपनी लड़ाई का एक कारगर हथियार बना लिया है। हैदाराबाद के एक ऐसे ही आपराधिक आकड़े के मुताबिक गुजरे तीन वर्षों में शहर की करीब 37 दलित और आदिवासी महिलाओं के साथ रेप किया गया। सभी आरोपी कथित उच्च जाति के रहे। देश की 10 करोड़ से अधिक दलित महिलाओं में से अधिकांश यौन अपराधियों के आतंक में जी रही हैं।
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