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नक्सलबाड़ी: विद्रोह की चिंगारी की हताशा में खुदकुशी

बन्दूक को हाथों में थाम कर, हथियारबंद लश्कर के माध्यम से हिंसक कार्यवाहियों को अंजाम देकर व्यवस्था परिवर्तन का सपना देखने वालों का जब भी जिक्र होगा तब स्वत: ही नक्सलबाड़ी का नाम फिजाओं में गूंजेगा। दरअसल नक्सलबाड़ी नाम हैं उन बहके हुए कदमों का, जो बारूद के गोलों से पैदा हुई आग को रोशनी समझने की गलती कर बैठे! नक्सलबाड़ी नाम है उन ख्वाबों का, जिनकी रातों की कभी सुबह नहीं होती! नक्लबाड़ी नाम है उस समझ का, जो फरार को हिजरत कह रही थी...!

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60 के दशक में पूरा देश भूमि सुधार की असफलता, युद्ध, अकाल, भूखमरी, भ्रष्टाचार और बेरोजगारी जैसी समस्याओं से जूझ रहा था। आजादी के बाद देखे गए सपने टूट रहे थे, लिहाजा देश में कायम सुव्यवस्थित दुव्र्यवस्था की कोख ने आज से 50 साल पहले 25 मई को प्रसव किया एक हथियारबंद विप्लव का, जो उत्तरी बंगाल के नक्सलबाड़ी थाने के तहत पडऩे वाले गांवों में खुद को क्रांतिकारी कहने वाले कम्युनिस्टों की अगुआई में आदिवासी किसानों ने चीन में हुई क्रांति की तर्ज पर शुरू की।

नक्सलबाड़ी नामक जगह के नाम पर हुए आंदोलन को 'नक्सलबाड़ी का विद्रोह' कहा गया और इसमें भाग लेने वाले लोगों को 'नक्सली'।

नक्सलबाड़ी का जन्म यूं ही नहीं हुआ, दरअसल इसके पीछे वक्त का तकाजा और व्यवस्था से मोहभंग के कारण उपजी रिक्तता को भरने की आकांक्षा भी थी। 60 के दशक में पूरा देश भूमि सुधार की असफलता, युद्ध, अकाल, भुखमरी, भ्रष्टाचार और बेरोजगारी जैसी समस्याओं से जूझ रहा था। आजादी के बाद देखे गए सपने टूट रहे थे, लिहाजा देश में कायम सुव्यवस्थित दुव्र्यवस्था की कोख ने आज से 50 साल पहले 25 मई को प्रसव किया एक हथियारबंद विप्लव का, जो उत्तरी बंगाल के नक्सलबाड़ी थाने के तहत पड़ने वाले गांवों में खुद को क्रांतिकारी कहने वाले कम्युनिस्टों की अगुआई में आदिवासी किसानों ने चीन में हुई क्रांति की तर्ज पर शुरू की। उन दिनों का जो चित्र उभरता है उसके अनुसार भुखमरी, भ्रष्टाचार और बेरोजगारी के खिलाफ तनी हुई मुर्तियों का सामूहिक प्राकट्य था नक्सलबाड़ी। शायद इसी कारण नक्सलबाड़ी आंदोलन को बौद्धिक वर्ग का जबरदस्त समर्थन प्राप्त हुआ।

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दरअसल, उन दिनों पश्चिम बंगाल में कम्युनिस्टों के सत्ता में होने के कारण जुझारू किसान आंदोलन अपने उफान पर था। इससे घबराए जमींदारों ने बटाईदारों को बेदखल करना शुरू कर दिया था। बटाईदार किसान कभी आंदोलन के जरिए, तो कभी अदालत के माध्यम से अपने हकों के लिए लड़ रहे थे। इन्हीं में से एक किसान था बिगुल, जिसने अपने पक्ष में दीवानी अदालत का आदेश प्राप्त कर लिया था। बिगुल मार्क्सवादी कम्युनिस्ट का पार्टी सदस्य भी था, पर जमींदार ईश्वर टिर्की उसे कब्जा देने के लिए तैयार नहीं हुआ। उस वक्त सीपीएम पश्चिम बंगाल सरकार में शामिल थी और उसने इस आंदोलन को अपना समर्थन देने से मना कर दिया। इस वजह से सीपीएम के भीतर फूट पड़ गई। चारू मजूमदार, कानू सान्याल, सरोज दत्त और जंगल संथाल जैसे स्थानीय नेताओं ने इस सशस्त्र विद्रोह का समर्थन किया। गौरतलब है कि चीन के अखबार ने इसे 'बसंत का वज्रनाद' कहा।

25 मई, 1967 को नक्सलबाड़ी में भूमि विवाद के बाद एक जमींदार के भाड़े के लोगों ने एक किसान पर हमला किया। किसानों ने एकजुट होकर जमींदारों से लोहा लेने की ठानी। बंगाल पुलिस के जवानों ने 11 किसानों की हत्या कर दी। यहीं से पूरे बंगाल में चारु मजूमदार, जंगल संथाल और कानू सान्याल की अगुवाई में नक्सलवाद की चिंगारी भड़की, जो आज देश की सबसे खतरनाक समस्या बन गई है।

माओ जे दांग से प्रभावित चारू मजूमदार ने किसानों का आह्वान किया, कि वे सरकार और ऊंची जातियों के दबदबे वाली राजनीतिक व्यवस्था को पलट दें। 1969 में कानू व चारु ने सीपीआई -एमएल का गठन किया और सशस्त्र क्रांति के जरिए बदलाव की मुहिम जारी रखी। सान्याल ने सशस्त्र संघर्ष के लिए खुलेआम चीन से मदद मांगी और वे बीजिंग भी गए, हालांकि ये साफ नहीं हो पाया कि चीन ने उनकी किसी तरह से मदद की या नहीं। कानू सान्याल अगस्त 1970 में भूमिगत रहने के दौरान ही गिरफ्तार कर लिए गए। सन 1972 में चारु मजूमदार को गिरफ्तार कर लिया गया और एक पखवाड़े के बाद ही कोलकाता में पुलिस हिरासत में उनकी मौत हो गई। तीसरे बड़े नेता जंगल संथाल एक दशक तक जेल में रहने बाद जब बाहर आए, हताशा का शिकार होकर शराब के नशे में चूर रहने लगे और किडनी का फेल होना उनकी मौत का कारण बना।

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23 मार्च 2010 को कानू सान्याल ने भी हताशा के आलम में आत्म हत्या कर ली। कानू सान्याल जैसे जीवट व्यक्ति का आत्म हत्या करना समझ में नहीं आता है किंतु शायद खुदकुशी के माध्यम से भी वह संदेश देना चाहते थे। यह संदेश क्या हो सकता है? यह भी तो हो सकता है कि हिंसा किसी मसले का हल नहीं है। अपनी मृत्यु से कुछ माह पहले एक समाचार पत्र को एक साक्षात्कार में भी कानू ने इस बात को स्वीकार किया था कि आज किसानों मजदूरों के सामने वैसी समस्याएं नहीं हैं, जो 40 साल पहले थीं। जाहिर है हिंसा और खून-खराबे से कुछ हासिल करने की कोशिश हताशा ही पैदा करेगी। कभी हर समय घनघनाते रहने वाले कानू सान्याल का फोन (0353-2004020) भी पावर ऑफ हो गया है। हो भी क्यों नहीं, कभी लाखों दिलों में ऊर्जा का संचार करने वाला वह शख्स अब रिसीवर उठाने के लिए मौजूद जो नहीं है।

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नक्सलबाड़ी किसान विद्रोह (1967) ने भारत की एक नई कल्पना का सृजन किया जिसने कला, संस्कृति और साहित्य पर गहरा अखिल भारतीय असर डाला। किसी आंदोलन में उतार-चढ़ाव, आत्म-संघर्ष, निराशा, बिखराव और उत्साह के तमाम मंजर आते और जाते रह सकते हैं, लेकिन नक्सलबाड़ी से प्रेरित आंदोलनों के भू-राजनीतिक विस्तार से कहीं बड़ा रहा है उसकी सृजनात्मक कल्पना और सपनों का आकाश