जिस क्षेत्र को लाखों लोगों की जीवन रेखा होना चाहिए था, वो आज एक ऐसा रक्त पिपासु परजीवी हो गया है , जो लाखों जिंदगियों की कीमत पर जीवित है। दुव्र्यवस्था का आलम ये है, कि आम आदमी को पीड़ा से मुक्ति दिलाने के लिये डॉक्टरी पर्चे पर लिखे गये नुस्खे की दवा में भी मुनाफे और मिलावट के सॉल्ट मौजूद रहते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, सारे संसार में नकली दवाइयों का 35 फीसदी हिस्सा भारत से ही जाता है और इसका करीब 4000 करोड़ रुपए के नकली दवा बाजार पर कब्जा है। भारत में बिकने वाली लगभग 20 फीसदी दवाइयां नकली होती हैं। सिर दर्द और सर्दी-जुकाम की ज्यादातर दवाएं या तो नकली होती हैं या फिर भी घटिया किस्म की होती हैं।
खाद्य सुरक्षा एवं औषधि प्रशासन विभाग के आंकड़ों के मुताबिक सूबे के दवा बाजार में दस फीसद से अधिक नकली दवाएं झोंक दी गयी हैं और 38 फीसद दवाएं मानकों के अनुरूप न होने के कारण पर्याप्त असर नहीं करती हैं।
वर्ष 2015 में उत्तर प्रदेश खाद्य सुरक्षा एवं औषधि प्रशासन विभाग ने वर्ष समाप्ति पर अपने कामकाज का जो ब्यौरा जारी किया, उसके मुताबिक आठ महीने में विभाग की ओर से छापेमारी कर जांच के लिए प्रदेश भर से दवाओं के 5150 और कास्मेटिक्स उत्पादों के 301 नमूने प्रयोगशालाओं को भेजे गए, जिनमें से 4723 नमूनों की जांच रिपोर्ट ही चौंकाने वाली थी।
मरीज के असली दर्द को असली दवा मिलना आज बड़ी चुनौती बन गया है। बाजार में दवाओं के खेल तो बड़े ही निराले हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात ये है कि प्रशासन सभी प्रकार के खेलों के वाकिफ है। दवा बाजार में नकली दवाओं का बोलबाला हो गया है। खाद्य सुरक्षा एवं औषधि प्रशासन विभाग के आंकड़ों के मुताबिक सूबे के दवा बाजार में दस फीसद से अधिक नकली दवाएं झोंक दी गयी हैं और 38 फीसद दवाएं मानकों के अनुरूप न होने के कारण पर्याप्त असर नहीं करती हैं। ज्ञात हो कि वर्ष 2015 में उत्तर प्रदेश खाद्य सुरक्षा एवं औषधि प्रशासन विभाग ने वर्ष समाप्ति पर अपने कामकाज का जो ब्यौरा जारी किया, उसके मुताबिक आठ महीने में विभाग की ओर से छापेमारी कर जांच के लिए प्रदेश भर से दवाओं के 5150 और कास्मेटिक्स उत्पादों के 301 नमूने प्रयोगशालाओं को भेजे गए, जिनमें से 4723 नमूनों की जांच रिपोर्ट ही चौंकाने वाली थी। इनमें से 506 दवाएं नकली निकली हैं। इस तरह बाजार में दस फीसद से अधिक नकली दवाएं मौजूद होने की पुष्टि हुई है। इनके अलावा महज 2902 नमूने ही मानक स्तर के अनुकूल पाए गए हैं। शेष 1821 नमूने मानकों पर खरे नहीं उतरे।
आंकड़े इस बात की पुष्टि करते हैं, कि 38 फीसद से अधिक दवाएं घटिया हैं और संभवत: यही कारण है कि तमाम बार दवाएं असर नहीं करतीं और लोगों को परेशान होना पड़ता है। दुर्भाग्यपूर्ण पहलू ये है कि खाद्य सुरक्षा एवं औषधि प्रशासन विभाग भी इन दवाओं पर नियंत्रण के लिए कोई ठोस प्रयास नहीं कर रहा है। अधिकारी इसके लिए कर्मचारियों की कम संख्या को जिम्मेदार ठहराते हैं। औषधि निरीक्षकों की कमी के कारण अपेक्षा के अनुरूप जांच पड़ताल नहीं हो पाती और तमाम प्रकरण औषधि निरीक्षकों के स्तर पर ही विवेचना की प्रतीक्षा किया करते हैं।
केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के निर्देश पर नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ बायोलॉजिकल्स ने 2014-2016 में देश भर में सर्वे किया। सर्वे के दौरान सरकारी अस्पतालों, डिस्पेंसरियों और दवा की दुकानों से 47,954 सैंपल लिए गए। जिनके नतीजे चौंकाने वाले निकले। बाजार से ज्यादा दवाओं की खराब गुणवत्ता सरकारी अस्पतालों में मिली। केमिस्ट की दुकानों पर जहां तीन फीसदी दवाओं की गुणवत्ता खराब थी, तो वहीं सरकारी अस्पतालों में इसका आंकड़ा 10 फीसदी था। सर्वे के दैरान फुटकर दुकानों में 0.023 फीसदी नकली दवाएं पाई गईं। जबकि सरकारी केंद्रो में 0.059 फीसदी। यानि कि फुटकर दुकानों से औसतन दोगुना। सर्वे के अनुसार स्थिति में फिलहाल सुधार हो रहा है।
खराब दवाओं की गुणवत्ता के मामले में उत्तर प्रदेश, पंजाब, उत्तराखंड, मिजोरम, तेलंगाना, मेघालय, नागालैंड और अरूणाचल प्रदेश अव्वल हैं। यहां पर 11.39-17.39 फीसदी दवाएं खराब थीं। जबकि दिल्ली, ओडिशा, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल और चंडीगढ़ में 7.39 फीसदी थी।
विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, सारे संसार में नकली दवाइयों का 35 फीसदी हिस्सा भारत से ही जाता है और इसका करीब 4000 करोड़ रुपए के नकली दवा बाजार पर कब्जा है। भारत में बिकने वाली लगभग 20 फीसदी दवाइयां नकली होती हैं। सिर दर्द और सर्दी-जुकाम की ज्यादातर दवाएं या तो नकली होती हैं या फिर घटिया किस्म की होती हैं। इन नकली दवाइयों का जाल भारत में कश्मीर से कन्याकुमारी तक फैला हुआ है। उत्तरी भारत में दिल्ली में भागीरथ पैलेस को नकली दवाइयों के व्यापार का गढ़ माना जाता है। दिल्ली के अलावा उत्तर प्रदेश के लखनऊ, गुजरात के अहमदाबाद और मध्य प्रदेश के इन्दौर से पूरे देश को नकली दवाइयों की सप्लाई होती है। ज्यादातर नकली दवाएं झुग्गी-झोपडिय़ों में बहुत ही प्रदूषित वातावरण में तैयार की जाती हैं। इन नकली दवाओं की मांग दक्षिण अफ्रीका, रूस और उजबेकिस्तान के साथ-साथ हमारे पड़ोसी देशों जैसे, म्यांमार, नेपाल और बांग्लादेश में भी तेजी से बढ़ रही है। नकली दवाओं के फैलते कारोबार पर सरकार, उपभोक्ता संगठनों और चिकित्सकों ने चिंता जताई है, लेकिन सच्चाई ये है कि सरकार और प्रशासन की शिथिलता और उदासीन रवैए के कारण ही ये धंधा फलफूल रहा है।
डॉक्टर नकली दवाइयां बनाने वाली कम्पनियों से महंगे-मंहगे उपहारों के लालच में मरीजों को ये नकली दवाइयां लिखते हैं। उपभोक्ता संगठनों के एक आंकलन के अनुसार ग्रामीण क्षेत्रों में बेची जाने वाली 40 फीसदी से ज्यादा दवाएं नकली और घटिया होती हैं। घोटाले दवा के क्षेत्र में हैं तो दवा की दुकाने कहां से बेदाग होंगी।
अब इसे नियमों की लाचारी कहें या संक्रमित व्यवस्था का दोष कि उत्तर प्रदेश में तकरीबन एक लाख दवा की दुकानें अवैध ढंग से चल रही हैं। 20 जून 2015 को खाद्य एवं औषधि प्रशासन द्वारा दवा दुकानों के नवीनीकरण के लिए ऑनलाइन आवेदन अनिवार्य करने से ये तथ्य सामने आने शुरू हुए कि राज्य में अवैध दवा दुकानों की भरमार है और खाद्य एवं औषधि प्रशासन भी इस दिशा में कोई कार्रवाई नहीं कर रहा है।
आंकड़ों के अनुसार उत्तर प्रदेश के 75 जिलों में सवा लाख से अधिक दवा की दुकानें हैं। इसके विपरीत महज 71,400 दुकानों को लाइसेंस जारी हुए हैं। लगभग 60 हजार दुकानें तो बिना लाइसेंस ही चल रही हैं। इन सभी दुकानों में फार्मेसिस्ट होने चाहिए, किन्तु उत्तर प्रदेश में फार्मेसिस्ट ही इतने नहीं हैं। उत्तर प्रदेश फार्मेसी काउंसिल में मात्र 60 हजार फार्मेसिस्ट पंजीकृत हैं। इनमें से 15 हजार सरकारी नौकरी में हैं। दस हजार फार्मेसिस्ट हरियाणा, जम्मू-कश्मीर, हिमांचल प्रदेश, मध्य प्रदेश, सिक्किम व मुंबई आदि दूसरे प्रदेशों के दवा कारखानों में नौकरी कर रहे हैं। लगभग पांच हजार फार्मेसिस्ट या तो सेवानिवृत्त हो चुके हैं या उनकी मृत्यु हो चुकी है। इस तरह दवा दुकानों के लिए 30 हजार फार्मेसिस्ट ही बचते हैं। शेष तकरीबन एक लाख दवा दुकानें ड्रग एंड कास्मेटिक एक्ट का उल्लंघन कर बिना फार्मेसिस्ट के ही चल रही हैं, ऐसे में ये सभी दुकानें अवैध हैं।
दवा दुकानों को स्थापित किए जाने को लेकर फार्मेसी काउंसिल ऑफ इंडिया ने जो मानक तय किए हैं, उनका भी उल्लंघन हो रहा है। इन मानकों के मुताबिक एक दुकान से लेकर दूसरी दुकान के बीच तीन सौ मीटर की दूरी होनी चाहिए, लेकिन भारत में एक ही साथ तीन से लेकर दस दुकानें मिल जाएंगी। एक थोक विक्रेता के पीछे कम से कम छह खुदरा दवा दुकानें होनी चाहिए, लेकिन हकीकत में ऐसा नहीं है। मानकों के उल्लंघन के बावजूद फलफूल रहा दवा उद्योग, सरकारी उदासीनता का परिणाम नहीं वरन व्यवस्था में शामिल भ्रष्टाचार है।