दूसरों के दिल के दर्द को अपना समझता है दिल के डॉक्टर खलीलुल्लाह का दिल
मोहम्मद खलीलुल्लाह उस अति-विशिष्ट व्यक्तित्व का नाम है जिन्होंने दिल के डॉक्टरों की एक ऐसी बड़ी और असरदार फौज तैयार की है जो देश और दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में दिल की बीमारियों से लड़ते हुए लाखों लोगों की जान बचा रही है। वे भारत में पहली पीढ़ी के ‘दिल का डॉक्टर’ यानी कार्डियोलॉजिस्ट हैं। अगर वे चाहते तो अपने ज़माने के दिल के डॉक्टरों की तरह मरीजों का इलाज करते हुए खूब धन-दौलत और शोहरत कमा सकते थे। लेकिन, उन पर उनके गुरुओं का प्रभाव कुछ इस कदर पड़ा कि उन्होंने डॉक्टरी विद्यार्थियों का ‘गुरु’ बनाने का फैसला किया और ज़िंदगी में वो मुकाम हासिल किया जोकि बड़े-बड़े सूरमाओं को भी नहीं मिलता है। भारत में दिल की बीमारियों के इलाज की प्रक्रिया को आसान बनने में भी खलीलुल्लाह की काफी महत्वपूर्ण भूमिका है। उनकी पहल की वजह से ही भारत में पहली बलून एंजियोप्लास्टी हुई और इसके बाद से बिना सर्जरी के भी दिल की बीमारियों के इलाज की कार्य-विधि शुरू हुई। खलीलुल्लाह सही मायने में भारत में इंटरवेंशन्ल कार्डियोलॉजी के जनक भी है। उनकी जिद और मेहनत का ही नतीजा है दिल की बीमारियों के इलाज की अत्याधुनिक और सर्वश्रेष्ट चिकित्सा-पद्धतियाँ भारत में भी अमल में लाई जानी शुरू हुईं। उन्होंने दिल्ली के गोविंदवल्लभ पंत अस्पताल को भारत में दिल की बीमारियों के इलाज से जुड़ा सबसे बड़ा और असरदार शोध,अनुसंधान और चिकित्सा-संस्थान बनाने में सबसे अहम किरदार निभाया। खलीलुल्लाह के जीवन में नायाब कामयाबियों की एक बहुत ही बड़ी फेरिस्त है। चिकित्सा-विज्ञान के क्षेत्र में भारत को विकसित देशों के मुकाबले ला खड़ा करने में खलीलुल्लाह की मेहनत भी है। और, ऐसा भी नहीं है कि खलीलुल्लाह ने अपनी ज़िंदगी में बस कामयाबियां ही कामयाबियां देखी हैं। उनकी इन बड़ी कामयाबियों के पीछे संघर्ष, मेहनत और दृढ़ संकल्प की एक बेजोड़ कहानी है। एक ऐसी कहानी जिसमें मध्यमवर्गीय परिवार के संघर्षों के बावजूद एक वालिदा के अपने बच्चे को डॉक्टर बनाने की जिद है, वालिदा के सपने को पूरा करने के लिए एक बच्चे की दिन-रात की मेहनत है। खलीलुल्लाह की कहानी में विपरीत परिस्थितियों को अनुकूल बनाने के नुसखें हैं, ज़िंदगी को कामयाब और उपकारी बनाने के मंत्र हैं।
जीवन को आदर्श बनाने का रास्ता दिखाने और अच्छा काम करने की प्रेरणा देने वाली कहानी के नायक खलीलुल्लाह का जन्म 6 जून, 1936 को महाराष्ट्र के नागपुर शहर में हुआ। उनके वालिद मोहम्मद कलीमुल्लाह सरकारी कर्मचारी थे और उद्योग विभाग में काम किया करते थे। वालिदा फज़लुन्निसा बेगम गृहिणी थीं। खलीलुल्लाह अभी चार साल के भी नहीं हुए थे कि उनके पिता का साया उनके सिर पर से उठ गया। दिल का दौरा पड़ने की वजह से खलीलुल्लाह के वालिद की 41 साल की उम्र में ही मृत्यु हो गयी थी। खलीलुल्लाह और उनके दो छोटे भाइयों की परवरिश करने की सारी ज़िम्मेदारी वालिदा पर आ गयी थी। मायकेवालों के कहने पर वालिदा अपनी तीनों संतानों को लेकर अपने पिता और भाइयों के पास रहने कामटी चली गयीं। कामटी नागपुर से करीब 16 किलोमीटर है।
खलीलुल्लाह का सारा बचपन अपने नाना के यहाँ ही बीता। उनकी स्कूली शिक्षा भी कामटी में ही हुई। खलीलुल्लाह का दाखिला कामटी के सरकारी स्कूल में करवाया गया था और यहीं पर उन्होंने पहली से लेकर ग्यारहवीं तक की पढ़ाई की। सारी स्कूली शिक्षा उर्दू मीडियम में हुई। खलीलुल्लाह ने बताया कि उन दिनों कामटी में कोई साइंस स्कूल नहीं था इसी वजह से उन्हें ‘आर्ट्स’ लेना पड़ा था। और, पहली से ग्यारहवीं तक उर्दू, फारसी, अंग्रेजी, हिस्ट्री, सोशल स्टडीज उनकी पढ़ाई-लिखाई के विषय हुआ करते थे। खलीलुल्लाह शुरू से ही पढ़ाई में काफी तेज़ थे। उन पर एक जुनून सवार था – खूब मन लगाकर पढ़ना और फिर बड़ा होकर बड़ा आदमी बनना।
खलीलुल्लाह अपनी वालिदा से बहुत प्रभावित थे। वालिद साहब के गुज़र जाने के बाद जिस तरह से वालिदा ने उनकी और उनके दोनों भाइयों की परवरिश ही थी, उसने खलीलुल्लाह के दिलोदिमाग पर गहरी छाप छोड़ी थी। बचपन से ही खलीलुल्लाह ने अपनी वालिदा को हमेशा मेहनत करते हुए देखा था। पिता के न होने की वजह से कमाई का कोई जरिया भी नहीं था। नाना और मामा की मदद से किसी तरह गुज़र-बसर हो रही थी। खलीलुल्लाह बताते हैं,“वालिदा ने हमें कभी भी ऐसा महसूस होने नहीं दिया कि उन्हें कोई परेशानी है। उन्होंने हमारी हर ज़रुरत को पूरा किया। हमें तालीम दिलावाई।” वालिदा की हौसला-अफजाही से खलीलुल्लाह ने स्कूल के दिनों में कुछ तरह से मेहनत की कि नवीं क्लास में वे स्कालरशिप के हकदार हो गए। परीक्षाओं में खलीलुल्लाह के नंबर इतने अच्छे होते थे कि उन्हें देखकर सरकार ने उन्हें हर महीने पांच रुपये बतौर स्कालरशिप देना शुरू किया। खलीलुल्लाह कहते हैं, “उन दिनों पांच रूपये बहुत बड़े थे।”
वालिदा के कहने पर ही खलीलुल्लाह ने डॉक्टर बनने और लोगों की सेवा करने की ठानी थी। वालिदा के डॉक्टर बनने का मशवरा देने के पीछे दो बड़ी दिलचस्प वजहें थीं। सबसे बड़ी वजह थी डॉ. एन. डबल्यू. सिग्नापुरकर का वालिदा पर प्रभाव। डॉ. सिग्नापुरकर खलीलुल्लाह के नाना के पारिवारिक चिकित्सक हुआ करते थे। किसी के बीमार पड़ने पर वे घर आकर मरीज का परीक्षण करते थे और बीमारी को दूर करने के लिए दवाइयां देते थे। ज़रुरत पड़ने पर सुई भी लगाते थे। डॉ. सिग्नापुरकर खलीलुल्लाह की वालिदा को अपनी बहन मानते थे और उनका इलाज भी वे ही करते थे। डॉ. सिग्नापुरकर की काबिलियत और उनके सेवा-भाव से खलीलुल्लाह की वालिदा इतना प्रभावित थीं कि उन्होंने अपने बड़े बेटेखलीलुल्लाह को डॉक्टर बनाने का सपना देखना शुरू कर दिया था। वालिदा चाहती थीं कि उनका लाड़ला बेटा खलील भी सिग्नापुरकर की तरह चिकित्सक बने और लोगों का दुःख-दर्द और उनकी बीमारियाँ दूर करते हुए समाज में खूब अच्छा नाम कमाए। दूसरी वजह ये थी कि खलीलुल्लाह पढ़ाई में काफी तेज़ थे। वे शुरू से ही अपनी क्लास में अव्वल रहे। क्लास में या तो वे फर्स्ट आते या सेकंड, इससे नीचे वे कभी गए ही नहीं। खलील खूब मन लगाकर पढ़ा करते थे। वालिदा को लगता था कि उनके लाड़ले में भी डॉक्टर बनने की काबिलियत है। खलीलुल्लाह भी ये अच्छे से जानते थे कि उनके घर-परिवार, ख़ास तौर पर वालिदा की तकलीफों को दूर करना है तो उन्हें अच्छे से पढ़ना है और बड़ी नौकरी पानी है।
खलीलुल्लाह की मेहनत और लगन का ही नतीजा था कि उन्होंने हाई स्कूल की परीक्षा फर्स्ट क्लास में पास की थी और दो सब्जेक्ट में उन्हें डिस्टिंक्शन मिला था। ये वो ज़माना था जब हाई स्कूल पास करना ही बड़ी कामयाबी मानी जाती थी। बहुत ही कम बच्चे हाई स्कूल की परीक्षा में पास हो पाते थे। फर्स्ट डिवीज़न में पास होना तो बहुत ही बड़ी कामयाबी समझी जाती थी। इतना ही नहीं, उन दिनों दसवीं पास कर लेने के बाद नौकरी भी आसानी से मिल जाती थी और फर्स्ट डिवीज़न में दसवीं पास करने का मतलब होता – अच्छी नौकरी पक्की है। जब खलीलुल्लाह ने हाई स्कूल की परीक्षा पास की और वो भी फर्स्ट डिवीज़न में तब उनके नाना, मामा और दूसरे रिश्तेदारों ने फौरी तौर पर नौकरी पर लग जाने की सलाह दी। घर-परिवार की हालत कुछ ऐसी थी कि खलीलुल्लाह के लिए नौकरी करना ही सबसे बेहतर काम लग रहा था। लेकिन, वालिदा की जिद थी कि खलीलुल्लाह आगे भी पढ़ाई करेंगे और डॉक्टर बनेंगे। जब वालिदा और उनके मायकेवालों के बीच टकराव की स्थिति आ गयी तब सही फैसले के लिए सभी ने अपने चहेते डॉक्टर सिग्नापुरकर से मशवरा लेने का मन बनाया। डॉ. सिग्नापुरकर भी खलीलुल्लाह की काबिलियत, उनकी मेहनत से भली-भांति परिचित थे, इसी वजह से उन्होंने कहा कि बच्चे की बुद्धि तेज़ है और वो डॉक्टर बन सकता है। डॉ. सिग्नापुरकर ने खलीलुल्लाह को आगे पढ़ाने की ही सलाह दी। घर में सभी डॉ. सिग्नापुरकर की बहुत इज्ज़त करते थे और उनकी बात पत्थर की लकीर मानी जाती थी। उनकी सलाह के खिलाफ जाने का सवाल ही पैदा नहीं होता था। डॉ. सिग्नापुरकर की सलाह पर खलीलुल्लाह को साइंस कॉलेज में दाखिला दिलवाने की कोशिश शुरू हुई। सबसे नज़दीकी साइंस कॉलेज नागपुर में था। बावजूद इसके कि खलीलुल्लाह की स्कूली पढ़ाई-लिखाई का मुख्य विषय साइंस नहीं बल्कि आर्ट्स था, फिर भी परीक्षा में मिले उनके शानदार नंबरों को देखते हुए उन्हें साइंस कॉलेज में दाखिला दे दिया गया। दाखिले के समय हुए इंटरव्यू में साइंस कॉलेज के प्रिंसिपल ने खलीलुल्लाह से पूछा कि वे इंग्लिश मीडियम से पढ़ना चाहेंगे या मराठी मीडियम में, तब खलीलुल्लाह का जवाब था - इंग्लिश मीडियम। खलीलुल्लाह को लगा कि इंटर कॉलेज में पढ़ाई-लिखाई इंग्लिश मीडियम से करने पर डॉक्टरी की पढ़ाई में आसानी होगी। उनका फैसला आगे चलकर सही साबित हुआ। लेकिन, साइंस कॉलेज के शुरूआती दिनों में खलीलुल्लाह को काफी मशक्कत करनी पड़ी। उर्दू मीडियम से सीधे इंग्लिश मीडियम की क्लास में पहुंचे खलीलुल्लाह को सबसे ज्यादा मैथ्स और वो भी ट्रिग्नोमेट्री यानी त्रिकोणमिति ने परेशान किया। एक बेहद ख़ास मुलाक़ात में खलीलुल्लाह ने कहा, “मैथ्स की क्लास में जब साइन, कोस, टैन्जन्ट के बारे में बताना शुरू किया गया तब मुझे लगा कि मैं इंग्लिश मीडियम की किसी क्लास में हूँ या फिर ग्रीक या लैटिन वाली क्लास में। शुरू के दिनों में तो मेरे लिए सब कुछ ग्रीक और लैटिन जैसा ही लग रहा था।” और तो और, कॉलेज के कुछ बच्चे इस बात को लेकर भी खलीलुल्लाह की हंसी उड़ाया करते थे कि एक उर्दू मीडियम के बच्चे ने इंग्लिश मीडियम में एडमिशन लिया है और वो भी साइंस में। खलीलुल्लाह को ये हंसी पसंद नहीं थी और न ही कभी उन्होंने इसकी परवाह की।
डॉक्टर बनाने के वालिदा के सपने को पूरा करना का जुनून खलीलुल्लाह पर कुछ इस तरह से सवार था कि उन्होंने पढ़ाई-लिखाई में दिन-रात एक कर दिए। देर रात तक वे किताबों में उलझे रहते। खलीलुल्लाह बताते हैं, “उन दिनों बॉल पेन नहीं हुआ करती थीं। मैं काली पटिया पर लिखा करता था। कॉलेज के दिनों में मैंने काली पटिया पर ही फिजिक्स के प्रॉब्लम सोल्व करना सीखा है। मैं स्लेट पर प्रॉब्लम लिखता और फिर उसका सलूशन निकालने की कोशिश करता। मैं स्लेट पर लिखता, मिटाता और ऐसा उस समय तक करता जब तक प्रॉब्लम सोल्व नहीं हो जाती। साइंस को भी मैंने चाक और स्लेट के ज़रिये ही सीखा।”
ऐसा भी बिलकुल नहीं था कि पढ़ाई-लिखाई में मशरूफ होकर खलीलुल्लाह ने खेल के मैदान का रुख किया ही नहीं। उन्हें जब अभी मौका मिलता वे दोस्तों के साथ खेलते-कूदते भी। उन्हें बैडमिंटन खेलना खूब पसंद था। बचपन में हॉकी और फुटबाल भी उन्होंने खेली। लेकिन, एक डर था जो उन्हें खेल के मैदान से अमूमन दूर रखता था। खलीलुल्लाह को लगता था कि अगर मैदान में किसी वजह से वे खेलते समय चोटिल हो जाएँ तब उन्हें स्कूल से छुट्टी लेनी पड़ेगी। छुट्टी का मतलब था पढ़ाई से दूर रहना। खलीलुल्लाह नहीं चाहते थे कि उनकी ज़िंदगी में एक दिन भी ऐसा आये जब उन्हें स्कूल न जाना पड़े। चोटिल होने और चोट की वजह से स्कूल न जा पाने के डर से खलीलुल्लाह ने खुद को कई बार खेल के मैदान से दूर रखा।
बड़ी बात ये है कि खलीलुल्लाह ने पढ़ाई के मामले में कभी भी कोई समझौता नहीं किया। कॉलेज के दिनों में उनका बस एक ही मकसद हुआ करता था – डॉक्टर बनना और वालिदा का सपना पूरा करना। खलीलुल्लाह की मेहनत इतनी तगड़ी थी कि उन्हें साइंस कॉलेज की परीक्षाओं में उम्दा नंबर मिले। हाई स्कूल तक आर्ट्स के विद्यार्थी रहे खलीलुल्लाह ने इंटर की पढ़ाई के दौरान फिजिक्स में उम्दा नंबरों से एग्जाम पास किया था। इंटर की परीक्षाओं में मिले नंबरों के आधार पर उन्हें मेडिकल कॉलेज में भी सीट मिल गयी। साल 1956 में उनका दाखिला नागपुर मेडिकल कॉलेज में हुआ। खलीलुल्लाह के मुताबिक, “उन दिनों भी मेडिकल कॉलेज में एडमिशन पाना आसान नहीं था। अब की तरह उस ज़माने में एंट्रेंस टेस्ट नहीं हुआ करते थे। मेरिट के आधार पर एडमिशन होता था मेडिकल कॉलेज में। उन दिनों भी स्पोर्ट्स और एनसीसी कोटा होता था। मैंने मेहनत की थी और मुझे मेडिकल कॉलेज में सीट मिल गयी।” खलीलुल्लाह ने ये भी बताया कि उन दिनों एमबीबीएस की पढ़ाई के लिए मेडिकल कॉलेज की सालाना फीस साढ़े तीन सौ रुपये हुआ करती थी।
स्कूल और इंटर कॉलेज की तरह ही खलीलुल्लाह ने मेडिकल कॉलेज में भी जी-जान लगाकर पढ़ाई की। उनकी जिद थी कि मेडिकल कॉलेज में भी एक दिन ऐसा न जाय जब उन्हें किसी क्लास से छुट्टी लेने पड़े। और तो और, कॉलेज पहुँचने में देरी न हो जाय इस लिए कई बार खलीलुल्लाह को साइकिल चलाकर कॉलेज जाना पड़ता था। खलीलुल्लाह ने बताया, “कामती में मेरे घर से मेडिकल कॉलेज की दूरी करीब बीस किलोमीटर की थी। हर दिन सुबह हम ट्रेन पकड़कर कामती से नागपुर जाते थे और फिर नागपुर स्टेशन से कोई बस पकड़कर अपने मेडिकल कॉलेज जाया करते थे। और अगर ट्रेन लेट हो जाती तो हमारा कॉलेज लेट पहुंचना भी लाजमी था। ट्रेन के लेट होने पर मैं साइकिल लेकर मेडिकल कॉलेज चला जाता था। इसी वजह से कभी भी क्लास में लेट नहीं हुआ। क्लास में मेरा रोल नंबर 28 था और कभी ऐसा नहीं हुआ मैं अपना नंबर निकल जाने के बाद में कॉलेज पहुंचा हूँ।” मेडिकल कॉलेज को साइकिल से जाने वाला वाकया सुनाते समय खलीलुल्लाह बहुत भावुक हो जाते हैं। अमूमन हर बार उनकी आँखें-भर आती हैं। वे कहते हैं, “डॉक्टर बनने का इरादा पक्का था, और यही वजह थी कि मैंने अपनी ओर से कोई गलती होने नहीं दी।” यानी बात साफ़ है, ट्रेन के लेट होने पर खलीलुल्लाह बीस किलोमीटर साइकिल चलाकर कॉलेज पहुंचा करते थे और कॉलेज की क्लासें पूरे होने के बाद फिर 20 किलोमीटर साइकिल चलाकर घर पहुंचा करते थे। ट्रेन लेट होना का सीधा मतलब था – घर से कॉलेज आने जाने के लिए चालीस किलोमीटर से ज्यादा साइकिल चलाना।
महत्वपूर्ण बात ये भी है कि शुरू से ही खलीलुल्लाह नियम-कायदों के बहुत ही पक्के रहे हैं। अनुशासन की उनके जीवन में काफी अहमियत है। उनका स्वभाव ही मेहनती है। हर इरादा उनका पक्का होता है और वे अपने मकसद को पूरा करने के जी-जान लगा देते हैं। उनकी नीयत इतनी पाक-साफ़ है कि वे किसी का बुरा सोच भी नहीं सकते। दुनिया की बड़ी से बड़ी ताकत भी उन्हें उनकी मंजिल तक पहुँचने की कोशिश में उन्हें उनके राह से नहीं डगमगा सकती है। वे इकबाल की इन पंक्तियों कर यकीन करते हैं और अब भी इन्हीं पंक्तियों से प्रेरणा लेते हैं -
यकीन मोहकम अमल पैहम मोहब्बत फतेह-ए-आलम
जिहाद-ए-जिंदगानी में हैं ये मर्दों की शमशीरें
यही वजह थी कि खलीलुल्लाह ने अव्वल नंबरों से एमबीबीएस की परीक्षा भी पास की और मेडिकल कॉलेज में साढ़े पांच साल की कड़ी मेहनत के बाद वे डॉक्टर बने। एमबीबीएस की पढ़ाई के दौरान खलीलुल्लाह को नागपुर मेडिकल कॉलेज में बहुत कुछ नया देखने, समझने और सीखने को मिला था। चूँकि उनके पिता की मौत दिल का दौरा पड़ने से हुई थी, दिल की बीमारियों और उनके इलाज में उनकी दिलचस्पी शुरू से ही रही। खलीलुल्लाह को इलेक्ट्रोकार्डियोग्राम यानि ईसीजी की रिपोर्ट देखने और मरीज की बीमारी के बारे में पता लगाने में भी काफी दिलचस्पी थी। गौरतलब है कि इलेक्ट्रोकार्डियोग्राम द्वारा इंसानी दिल की धड़कनों और उससे निकलने वाली विद्युत तरंगों को समझकर दिल की बीमारी का पता लगाया जाता है।
नागपुर मेडिकल कॉलेज में ही खलीलुल्लाह ने मरीजों का इलाज करना भी शुरू कर दिया था। उन्हें अपने डॉक्टरी जीवन का पहला मरीज अब भी याद है। उस मरीज का इलाज किये हुए पचास साल से ऊपर हो गए हैं लेकिन खलीलुल्लाह के ज़हन में उस मरीज की यादें अब भी ताज़ा हैं। हुआ यूँ था कि उस दिन खलीलुल्लाह ड्यूटी पर थे। एक मरीज अस्पताल आया था। उसकी हालत बहुत खराब थी। उसकी साँसें फूल रही थीं। सांस लेने में उसे बहुत ज्यादा तकलीफ हो रही थी। माथे से पसीना भी छूट रहा था। अस्पताल में उस समय मौजूद दूसरे डॉक्टरों को भी लग रहा था कि मरीज का अंत समय निकट है। लेकिन, खलीलुल्लाह ने मामले को अपने हाथों में लिया। उन्होंने जब मरीज का ब्लड प्रेशर चेक किया तब उन्हें पता चला कि ब्लड प्रेशर काफी हाई है। अगर हालत ऐसी ही बनी रही तो मरीज को दिल या फिर दिमाग का ज़बरदस्त दौरा पड़ सकता था और उसकी जान भी जा सकती थी। उन दिनों बीपी को कम करने के लिए उतने ज्यादा उपाय नहीं थे जितने की आज हैं। लेकिन, खलीलुल्लाह ने मरीज को अस्पताल में भर्ती करवाया और मौजूदा उपायों से ही मरीज का ब्लड प्रेशर सामान्य करने की कोशिश शुरू की। कोशिश कामयाब भी रही। दो-तीन घंटों में ही मरीज की हालत में काफी सुधार आया। जब मेडिसिन के प्रोफेसर ने मरीज की हालत देखी तब उन्हें इस बार पर यकीन ही नहीं हुआ कि जब वो मरीज तीन घंटे पहले अस्पताल आया था तब उसकी जान खतरे में थी। लेकिन, जब प्रोफेसर को पता चला कि खलीलुल्लाह के इलाज की वजह से मरीज की जान बची है तब वे बहुत खुश हुए और खलीलुल्लाह को शाबाशी दी।
एमबीबीएस की पढ़ाई के दौरान खलीलुल्लाह को अपने शिक्षकों और प्रोफेसरों से कई बार शाबाशी मिली। शानदार नंबरों से खलीलुल्लाह ने एमबीबीएस कोर्स की सारी परीक्षाएं पास कीं और डॉक्टर बन गए। वे डॉक्टर बने थे अपनी वालिदा का सपना पूरा करने को। वालिदा के बताये रास्ते पर चलते हुए ही उन्होंने डॉक्टरी पेशे को कमाई का जरिया नहीं बनाया बल्कि डॉक्टर बनने के बाद लोगों की सेवा में जुट गए।एमबीबीएस की डिग्री लेने के बाद एमडी की पढ़ाई के लिए खलीलुल्लाह ने नागपुर मेडिकल कॉलेज को ही चुना। 1965 में एमडी की डिग्री लेने के बाद खलीलुल्लाह को नागपुर मेडिकल कॉलेज में ही रजिस्ट्रार की नौकरी मिल गयी। इसी दौरान एक घटना ऐसी हुई जिसने खलीलुल्लाह को ‘दिल का डॉक्टर’ बना दिया। नागपुर मेडिकल कॉलेज में रजिस्ट्रार का काम करते हुई ही खलीलुल्लाह के मन में ये इच्छा जगी थी कि उन्हें ज़िंदगी में कुछ नया और बड़ा करना है। वे इसी सोच में डूबे रहते थे कि वे नया और बड़ा क्या कर सकते हैं। इसकी बीच एक दिन उन्होंने अपने एक दोस्त के हाथ में अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान यानी एम्स में डीएम-कार्डियोलॉजी कोर्स का एडमिशन फॉर्म देखा। फॉर्म देखकर उनके मन में भी एम्स से डीएम-कार्डियोलॉजी का सुपर स्पेशलाइजेशन कोर्स करने की इच्छा जगी । फिर क्या था – खलीलुल्लाह ने भी फॉर्म भर दिया और एग्जाम की तैयारी करने लगे। हर बार की तरह ही इस बार भी एग्जाम के लिए उनकी तैयारी दमदार थी। स्वाभाविक था, उन्हें डीएम-कार्डियोलॉजी कोर्स में भी सीट मिल गयी। एम्स के प्रोफेसरों ने खलीलुल्लाह को कोर्स ज्वाइन करने की सलाह दी। खलीलुल्लाह ने अपने घर जाकर परिवारवालों से सलाह-मशवरा करने के बाद कोई फैसला करने की बात कही। खलीलुल्लाह ने बताया, “मैंने 2 जनवरी, 1966 को दिल्ली में पहली बार कदम रखा था। मेरी वालिदा नहीं चाहती थीं कि मैं नागपुर से कहीं बाहर जाकर काम करूँ। मैंने वालिदा से कहा था कि एग्जाम के बहाने मैं दिल्ली देखकर आऊँगा। लेकिन जब मेरा सिलेक्शन हो गया तब मेरी उलझन भी बढ़ गयी। घरवालों से मशवरा लेने की बात कहकर मैं एम्स से लौट गया था। जब मैं वापस नागपुर पहुंचा और अपनी वालिदा से एम्स में सिलेक्शन की बात बताई तब उन्होंने मुझे दिल्ली भेजने से सख्त मना कर दिया। मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि मैं क्या करूँ। एक तरफ प्रोफेसर ज्वाइन करने के लिए मुझपर दबाव बना रहे थे वहीं वालिदा इसके सख्त खिलाफ थीं।” नागपुर मेडिकल कॉलेज के प्रोफेसर बी. जे. सूबेदार ने खालिलुल्लाह को दुविधा की इस स्थिति से बाहर निकाला। उन दिनों जब प्रोफेसर सूबेदार ने देखा था कि खलीलुल्लाह काफी असहज नज़र आ रहे हैं तब उन्होंने उनसे इसकी वजह पूछी थी। खलीलुल्लाह ने प्रोफेसर सूबेदार को सारी बात बता दी। इसके बाद प्रोफेसर सूबेदार खुद खलीलुल्लाह के घर गए और उनकी वालिदा को समझाया कि उनके बेटे के भविष्य के लिए यही अच्छा है कि वे एम्स से डीएम की पढ़ाई करें। प्रोफेसर सूबेदार की बातों से संतुष्ट होकर वालिदा ने खलीलुल्लाह को दिल्ली जाने और एम्स से डीएम की पढ़ाई करने की इजाज़त दे दी।
7 फरवरी, 1966 को खलीलुल्लाह ने एम्स में डीएम- कार्डियोलॉजी की पढ़ाई शुरू की। एम्स में डीएम- कार्डियोलॉजी कोर्स का ये तीसरा साल था। खलीलुल्लाह के बैच से पहले सिर्फ दो बैचों ने ही डीएम- कार्डियोलॉजी कोर्स किया था। उन दिनों भारत में सिर्फ दो ही चिकित्सा-संस्थाओं में डीएम- कार्डियोलॉजी कोर्स पढ़ाया जाता था – एक एम्स था और दूसरा वेल्लूर का मेडिकल कॉलेज। 60 के दशक में भारत में दिल के डॉक्टर बहुत ही कम थे। इतना ही नहीं, दिल की अलग-अलग बीमारियों और उनके इलाज के बारे में लोगों को ज्यादा जानकारी भी नहीं थी। जनरल फिजिशियन ही दिल की बीमारियों का ही इलाज किया करते थे। एमडी की पढ़ाई के दौरान ही डॉक्टरी विद्यार्थियों को दिल की बीमारी और उनके इलाज के बारे में बताया जाता था। एमडी की पढ़ाई के दौरान ही खलीलुल्लाह का ‘दिल’ के प्रति आकर्षण परवान चढ़ चुका था। उन दिनों वे अपने कुछ साथियों के साथ मिलकर हफ्ते में 300 से ज्यादा ईसीजी देखा करते थे। खलीलुल्लाह के दिलोदिमाग में भी ये बात गाँठ बांधकर बैठ गयी थी कि उन्हें भी दिल के मरीजों का इलाज करना है ताकि लोग उनके पिता की तरह छोटी उम्र में ही इस दुनिया को अलविदा न कह दें।
एम्स में खलीलुल्लाह ने दिल की बीमारियों और उनका इलाज करने के तौर-तरीकों को दिल लगाके सीखा और समझा। एम्स में पढ़ाई के दौरान ही खलीलुल्लाह ने वो कर दिया जोकि उनका सबसे बड़ा ख्वाब था – कुछ नया और बड़ा करने का ख्वाब। विद्यार्थी-जीवन में ही खलीलुल्लाह ने भारत का पहला कृत्रिम पेस-मेकर बना दिया। कृत्रिम पेसमेकर एक ऐसा चिकित्सा उपकरण है जो दिल की धड़कन को नियंत्रित रखता है।कृत्रिम पेसमेकर को इंसानी दिल के साथ ऑपरेशन कर लगाया जाता है। इसका मुख्य काम है – दिल की गति/धड़कनों को उस समय बढ़ाना,जब ये बहुत धीमी हो जाती है और उस समय धीमा करना, जब दिल की गति/धड़कनें बहुत तेज़ हो जाती हैं। यानी दिल की धड़कनों के अनियमित होने की दशा में ये कृत्रिम पेसमेकर दिल की धड़कनों को को नियन्त्रित रूप से धड़कने में मदद भी करता है। खलीलुल्लाह ने जो भारत का पहला कृत्रिम पेसमेकर बनाया वो उन्हीं के नाम से यानी केएम पेसमेकर के नाम से बिका। भारत का पहला कृत्रिम पेसमेकर बनाने का गौरव हासिल करने पर देश में खलीलुल्लाह की खूब तारीफ हुई। हर तरफ उनकी इस बड़ी कामयाबी की चर्चा हुई। देश के राष्ट्रपति ने इस नायाब कामयाबी के लिए खलीलुल्लाह तो दो अवार्डों से नवाज़ा था।
एम्स से डीएम-कार्डियोलॉजी की डिग्री लेने के बाद खलीलुल्लाह ने वहीं से अपने शिक्षक-जीवन की शुरूआत की। वे एम्स में काम कर रहे थे तभी उन्हें एक बड़ा ऑफर मिला। साल 1970 में उन्हें पुणे के गवर्नमेंट चेस्ट हॉस्पिटल में कार्डियोलॉजी डिपार्टमेंट का हेड बनाने की पेशकश की गयी। इस पेशकश से भी खलीलुल्लाह पशोपेश में पड़ गए। एम्स उस समय भारत का सबसे बड़ा चिकित्सा संस्थान था, लेकिन पुणे में उन्हें कार्डियोलॉजी डिपार्टमेंट का हेड बनाया जा रहा था जोकि बहुत बड़ी बात थी। पुणे जाकर उन्हें प्रैक्टिस भी करनी थी यानी मरीजों का हर दिन इलाज भी करना था जोकि उन्होंने अब तक शुरू नहीं किया था। दुविधा इस बात को लेकर भी थी कि पुणे में ओहदा और ज़िम्मेदारी- दोनों बड़ी तो थीं लेकिन तनख्वाह कम थी। पुणे में कार्डियोलॉजी डिपार्टमेंट के हेड को महीने पचास रूपये तनख्वाह मिलनी तय थी। इस बार भी खलीलुल्लाह ने अपने डॉक्टरी गुरुओं से सलाह-मशवरा किया और आख़िरकार पुणे जाने का फैसला लिया।
जब खलीलुल्लाह गवर्नमेंट चेस्ट हॉस्पिटल में कार्डियोलॉजी डिपार्टमेंट के हेड बनकर पुणे गए तब वे पूरे महाराष्ट्र राज्य में अकेले ऐसे डॉक्टर थे जिनके पास डीएम की डिग्री थी। गवर्नमेंट चेस्ट हॉस्पिटल में काम करते हुए भी खलीलुल्लाह ने कई ऐसा काम किये जोकि पहले पूरे महाराष्ट्र में नहीं हुए थे। खलीलुल्लाह की कोशिशों और पहल की वजह से ही गवर्नमेंट चेस्ट हॉस्पिटल में ओपन हार्ट सर्जरी की शुरूआत हुई। इतना ही नहीं महाराष्ट्र में ओपन हार्ट और क्लोज हार्ट सर्जरी की भी शुरूआत महाराष्ट्र में पुणे के गवर्नमेंट चेस्ट हॉस्पिटल से ही हुई। वैसे तो खलीलुल्लाह खुद हार्ट सर्जरी नहीं करते थे लेकिन सर्जरी के दौरान उनकी महत्वपूर्ण भूमिका होती थी। खलीलुल्लाह इंट्राऑपरेशन सपोर्ट दिया करते थे।
करीब एक साल पुणे में काम करने के बाद खलीलुल्लाह हो अहसास हुआ कि उनकी दिलचस्पी लोगों को पढ़ाने और ट्रेनिंग देने में है। खलीलुल्लाह ने शिक्षक बनने की ठान ली और शिक्षण के मकसद से ही वे वापस दिल्ली चले आये। दिल्ली में वे गोविंदवल्लभ पंत अस्पताल से जुड़ गए। उन्होंने इस मशहूर अस्पताल में अपने शिक्षक जीवन की शुरूआत बतौर लेक्चरर की। आगे चलकर वे असिस्टेंट प्रोफेसर, फिर एसोसिएट प्रोफेसर और फिर प्रोफेसर बने। खलीलुल्लाह गोविंदवल्लभ पंत अस्पताल में कार्डियोलॉजी डिपार्टमेंट के हेड भी बने और डायरेक्टर-प्रोफेसर के रूप में इस चिकित्सा-संस्थान को अपनी सेवाएं दीं।
खलीलुल्लाह ने बताया कि डॉक्टरी की पढ़ाई के दौरान उन्हें कुछ ऐसे गुरु मिले जिनके प्रभाव में उनके मन में भी उन्हीं की तरह गुरु बनने की इच्छा जागृत हुई थी। डॉ. बेर्री, डॉ. सूबेदार और डॉ. सुजोय रॉय का नाम गिनाते हुए खलीलुल्लाह ने कहा कि ये तीनों मेरे रोल मॉडल थे। वे कहते हैं, “मैं भी अपने इन्हीं प्रोफेसरों की तरह बनना चाहता था। और, वैसे भी टीचिंग में एक अलग मज़ा है। ये मज़ा अगर किसी को लग जाता है तो वो उसे कभी भूल नहीं सकता। मुझे भी टीचिंग का मज़ा लग गया था और मैंने पढ़ाना शुरू किया।”
खलीलुल्लाह ने करीब पच्चीस साल तक गोविंदवल्लब पंत अस्पताल के ज़रिये देश की सेवा की। उन्होंने करीब 250 डॉक्टरों को ‘दिल का डॉक्टर’ बनाने में सबसे अहम किरदार निभाया है। देश के अलग-अलग चिकित्सा और शिक्षण संस्थान में उन्होंने परीक्षा लेकर 500 से ज्यादा डॉक्टरों को ‘दिल का डॉक्टर’ बनने के योग्य घोषित किया है। डीएम और डीएनबी जैसे सुपरस्पेशलिटी कोर्स की कई सारी परीक्षाओं में खलीलुल्लाह ने परीक्षक का भी काम किया है। खलीलुल्लाह से इंसानी दिल, दिल की बीमारियों और उसके इलाज के बारे में सीखकर ‘दिल का डॉक्टर’ बने चिकित्सक दुनिया-भर में फैले हुए हैं और लोगों का इलाज करते हुए लोगों की सेवा कर रहे हैं। खलीलुल्लाह की क्लास में पढ़े हुए कई सारे डॉक्टरी विद्यार्थियों की गिनती देश के सबसे प्रसिद्ध और लोकप्रिय कार्डियोलॉजिटो में होती है। उनके कई सारे शागिर्द आज देश के बड़े-बड़े चिकित्सा-संस्थानों में बड़े-बड़े ओहदों पर बड़ी-बड़ी जिम्मेदारियां संभाल रहे हैं। एक मायने में खलीलुल्लाह ने भारत में ख़राब दिलों का इलाज करने वाले दिल के डॉक्टरों के एक बहुत बड़ी और ताकतवर फौज खड़ी की है। पूछे जाने पर खलीलुल्लाह ने बताया कि डॉ. मोहन नायर, डॉ. बलबीर सिंह और डॉ. गंभीर – ये तीनों ही उनके सबसे प्रिय शिष्य हैं। वे कहते हैं, “मैंने जिन लोगों को पढ़ाया है उन्होंने खून नाम कमाया – अपने लिए, मेरे लिए, देश के लिए। मुझे फक्र है अपने सभी स्टूडेंट्स पर। मेरे कई सारे स्टूडेंट्स इन दिनों कामयाबियों की बुलंदी पर हैं। मुझे इस बात की खुशी है कि कुछ तो मुझसे भी आगे निकल गए।”
इतना ही नहीं, ये खलीलुल्लाह की पहल का ही नतीजा था कि भारत में दिल की बीमारियों से जुड़े इलाज के नए तौर-तरीकों की शुरूआत भारत में गोविंदवल्लभ पंत अस्पताल से ही हुई। खलीलुल्लाह ने अमेरिका, यूरोप और दूसरे महाद्वीपों के अलग-अलग देशों से दिल के बड़े-बड़े डॉक्टरों और सर्जनों को बुलवाकर गोविंदवल्लभ पंत अस्पताल में खराब दिल के इलाज की नयी-नयी तकनीकों और शल्य-चिकित्सा की पद्धतियों को आजमाया। मार्च, 1975 में खलीलुल्लाह ने भारत में पहली बार कार्डियक इलेक्ट्रोफिज़ीआलजी प्रक्रिया की शुरूआत करवाई। इसके बाद उन्होंने भारत में इन्टर्वेन्शन कार्डियोलॉजी के कांसेप्ट को भी अमलीजामा पहनाया। इस कांसेप्ट/ चिकित्सा पद्धति की वजह से भारत में बिना सर्जरी के भी दिल की बीमारियों का इलाज मुमकिन हो पाया। भारत में पहली बलून वाल्वोप्लास्टी करवाने का श्रेय भी खलीलुल्लाह को ही जाता है। बलून वाल्वोप्लास्टी की वजह से जटिल और जोखिम-भरी सर्जरी के बिना भी दिल की बीमारियों का इलाज शुरू हो पाया। कलीलुल्लाह की पहल की वजह से ही अमेरिका से दिल के डॉक्टरों की एक टीम भारत आयी थी और इस टीम ने भारतीय डॉक्टरों के साथ मिलकर भारत में पहली बार बलून एंजियोप्लास्टी की थी। ये बलून एंजियोप्लास्टी गोविंदवल्लभ पंत अस्पताल में ही हुई थी और एक लड़के पर की गयी थी। भारत में चिकित्सा-क्षेत्र के इतिहास में ये घटना स्वर्ण अक्षरों में दर्ज है।
बड़ी बात ये भी है इस चिकित्सा-पद्धति की वजह से मरीज के शरीर पर सर्जरी से होने वाले चीर-फाड़ ने निशान भी नहीं होते है और मरीज कू ज्यादा दिनों के लिए अस्पताल में रहने की भी ज़रुरत नहीं होती है। खलीलुल्लाह के इन्टर्वेन्शन कार्डियोलॉजी के कांसेप्ट से भारत में चिकित्सा के क्षेत्र में एक नयी और सकारात्मक क्रांति आयी और दिल की बीमारियों का इलाज करने का काम आसान और बेहद सुरक्षित हुआ। दिल की बीमारियों के इलाज के लिए दुनिया में अपनायी जा रही सर्वश्रेष्ट और अत्याधुनिक तकनीकों और चिकित्सा-पद्धतियों को भारत के चिकित्सा संस्थानों में अपनाया जाने लगा है तो इसके पीछे खलीलुल्लाह की भी महत्वपूर्ण भूमिका है। खलीलुल्लाह ने ये सुनिश्चित किया है कि विदेश में दिल की बीमारियों के इलाज में जो कुछ अच्छा और नया काम होता है उससे भारत को भी फायदा मिले। भारतीय और विदेशी डॉक्टरों के बीच में ज्ञान-विज्ञान की बातों का आदान-प्रदान का सिलसिला मज़बूत हुआ है तो इसमें भी खलीलुल्लाह योगदान बहुत ही बड़ा है। देश को कई सारे ‘दिल के डॉक्टर’ देने वाले खलीलुल्लाह ने इंसानी दिल की बीमारियों और उनके इलाज पर काफी शोध-अनुसंधान और अध्ययन किया है। उन्होंने कई सारे शोध-पत्र लिखे हैं और ये शोध-पत्र देश और दुनिया की बड़ी-बड़ी पत्र-पत्रिकाओं में निरंतर प्रकाशित होते रहते हैं।
चिकित्सा-क्षेत्र में अमूल्य योगदान के लिए खलीलुल्लाह को देश और विदेश में कई बड़े पुरस्कारों से सम्मानित किया जा चुका है। साल 1984 में उन्हें भारत में चिकित्सा-क्षेत्र से सबसे बड़े अवार्ड यानी डॉ. बी. सी. रॉय अवार्ड से अलंकृत किया गया। साल 1984 में ही उन्हें भारत सरकार ने ‘पद्मश्री’ से नवाज़ा। साल 1990 में भारत सरकार ने उन्हें ‘पद्मभूषण’ की उपाधि प्रदान की। उन्हें मिले अवार्डों की सूची बहुत ही लम्बी है। खलीलुल्लाह हो नागपुर विश्वविद्यालय ने साल 1988 में डॉक्टर ऑफ़ साइंस (मेडिसिन) की मानद उपाधि भी प्रदान की। खलीलुल्लाह कहते हैं, “जिस यूनिवर्सिटी से मैंने पढ़ाई की उसी यूनिवर्सिटी ने मुझे डॉक्टर ऑफ़ साइंस की आनरेरी डिग्री दी और इसी को मैं अपने जीवन का सबसे बड़ा अवार्ड मानता हूँ।” खलीलुल्लाह ने ये भी कहा, “मैं उन सब का शुक्रगुज़ार हूँ, जिन्होंने मुझे अवार्ड दिए। मैं भारत सरकार का भी शुक्रगुजार हूँ क्योंकि सरकार ने मुझे ‘पद्मश्री’ और ‘पद्मभूषण’ अवार्ड दिए। मैं खादिम हूँ देश का, खादिम हूँ जनता का। मुझे अवार्ड मिले, कई सारे अवार्ड मिले, इसकी बहुत खुशी है मुझे, लेकिन मुझे इस बात की सबसे ज्यादा खुशी है कि मेरी ज़िंदगी रायगा नहीं गयी। मैंने देश के लिए काम किया, इस बात का फक्र है मुझे। मुझे इस बात का भी फक्र है कि मैंने देश की सेवा की और जब तक मैं जिंदा हूँ देश की सेवा करता ही रहूंगा।”
गौर देने वाली बात ये भी है कि अगर खलीलुल्लाह चाहते तो वे भी अमेरिका, इंग्लैंड, जर्मनी, जापान जैसे देशों में जाकर या तो प्रैक्टिस कर सकते थे या टीचिंग। दुनिया के कई बड़े चिकित्सा-संस्थानों से उन्हें बड़े ओहदे और तगड़ी तन्ख्व्वाह की पेशकश भी की गयी। लेकिन, खलीलुल्लाह ने भारत में रहकर अपने हमवतन लोगों की सेवा करने के रास्ते को ही चुने। ये बात मादर ए-वतन से उनकी बेइंतिहा मोहब्बत को दर्शाती है।
खलीलुल्लाह की उम्र 80 के पार हो चुकी है, लेकिन वे अब भी लोगों की सेवा में उतने ही सक्रीय हैं जितने की अपनी जवानी के दिनों में थे।इन दिनों खलीलुल्लाह की कोशिश है कि भारत में दिल की बीमारियों का इलाज इतना का खर्चीला हो जाय कि गरीब से गरीब इंसान भी अपने खराब हुए दिल का इलाज आसानी से करा सके। उन्हें इस बात की पीड़ा है कि भारत में कई लोग अब भी गरीब हैं और इस वजह से अपने दिल की बीमारी का इलाज नहीं करवा पा रहे हैं क्योंकि इलाज काफी महँगा है और वे इलाज के खर्च का भार नहीं उठा सकते हैं। वे चाहते हैं कि सरकारी और गैर-सरकारी संस्थाओं के साथ मिलकर कुछ ऐसा काम करें जिससे कोई भी मरीज अस्पताल आकर बिना इलाज करवाए इस वजह से न लौटे क्योंकि उसके पास रुपये नहीं हैं। खलीलुल्लाह की दिली तमन्ना है कि वे जीतेजी भारत में वो दिन देखें जब गरीब इंसान भी पूरी ज़िंदगी जियें और उन्हें अपनी बीमारियों का इलाज करवाने में तकफील न हो।
इस महान सख्सियत से जब ये पूछा गया कि इंसानी दिल की ऐसी कौन-सी बात है जो उन्हें उन्हें बेहद पसंद है तब उन्होंने कहा, “इंसान का सारा दारोमदार दिल पर है। दिल चलता है तो दिमाग चलता है, बदल चलता है, फेफड़े चलते हैं। दिल न चले तो कुछ न चलेगा। लेकिन, दिल का कंट्रोल दिमाग ही करता है। दिल शरीर का वो ऑर्गन है जो सबसे ज्यादा हार्ड-वोर्किंग है। आपका दिमाग आराम कर सकता है, दूसरे ऑर्गन आराम कर सकते हैं लेकिन दिल आराम नहीं करता और चलता ही रहता है। दिल एक मैजिकल पम्प है और इसके काम करने का तरीका अपना अलग है। शरीर का कोई दूसरा ऑर्गन हार्ट से मुकाबला नहीं कर सकता।”
हमने इस बेहद ख़ास मुलाक़ात के दौरान खलीलुल्लाह से ये भी पूछा कि उन्हें उनके दिल की सबसे दिलचस्प बात क्या लगती है, इस सवाल का जवाब देते हुए वे बहुत ही भावुक हो गए। एक बार फिर उनकी आँखों से आंसू बहने लगे। किसी तरह से अपने ज़ज्बातों पर काबू पाकर खलीलुल्लाह ने कहा, “मेरा दिल बहुत ही कमज़ोर है। किसी और का दर्द हमारे दिल में होता है।” ये हकीकत है कि दिल का बहुत बड़ा जानकार होने और देश और दुनिया के माने हुए वैज्ञानिक और शिक्षक होने के साथ-साथ खलीलुल्लाह एक धर्म-परायण, परोपकारी, बेहद ईमानदार और ज़ज्बाती इंसान हैं। वे कहते हैं, “मुझसे दूसरा का दुःख-दर्द देखा नहीं जाता। जब मैं दूसरों को तकलीफ में देखता हूँ तो मुझे बहुत तकलीफ होती है।” लोगों के दिल की बीमारियों को दूर करने के अलावा उन्हें खुदा की इबादत करने, संगीत सुनने, बागवानी करने और अपने नातों और नातियों के साथ खेलने में मज़ा आता है। डॉ. खलीलुल्लाह दिल्ली में इन दिनों ‘द हार्ट सेंटर’ के नाम से अपना अस्पताल चला रहे हैं और यही पर वे दिल के मरीजों का इलाज भी करते हैं।