निशाने पर साहित्य, एक और किताब पर केरल में भूचाल
केरल के लेखक एस. हरीश के उपन्यास 'मीशा' में ऐसा क्या है, कि परिवार को मिल रही हैं धमकियां...
केरल के लेखक एस. हरीश के उपन्यास 'मीशा' पर घमासान मचा हुआ है। उन्होंने 'मातृभूमि' अखबार में तीन सप्ताह से क्रमशः प्रकाशित हो रहे अपने उपन्यास के अंश आगे से छापने से रोक दिया है। अखबार के संपादक का कहना है कि अब साहित्य भी मॉब लिंचिंग का शिकार हो रहा है। हरीश के परिवार को भी धमकाया जा रहा है।
एस हरीश को केरल साहित्य अकादमी अवॉर्ड-2018 से सम्मानित किया जा चुका है। ऐसा पहली बार नहीं हो रहा। दो साल पहले महाराष्ट्र में अंधविश्वासों के खिलाफ लड़ाई लड़ने और वैज्ञानिक चेतना का प्रसार करने में लगे वयोवृद्ध नरेंद्र दाभोलकर की हत्या कर दी गई थी।
कोझिकोड (केरल) के 'मातृभूमि' साप्ताहिक में क्रमशः प्रकाशित हो रहे अपने उपन्यास 'मीशा' के बढ़ते विरोध के चलते मलयालम लेखक एस. हरीश ने उसका प्रकाशन वापस ले लिया है। उपन्यास का कुछ दक्षिणपंथी संगठन लगातार विरोध कर रहे हैं। दलित कथानक पर केंद्रित इस उपन्यास में केरल के जातीय ताने-बाने पर प्रहार किया गया है। 'मातृभूमि' के संपादक कमलराम संजीव ने कहा है कि अब साहित्य भी मॉब लिंचिंग का शिकार हो रहा है। ये केरल के साहित्यिक इतिहास का काला दिन है। लेखक को कई संगठनों की ओर से धमकियां मिल रही हैं। वे उनके साथ ही, उनके परिवार को भी नुकसान पहुंचाने की चेतावनी दे रहे हैं।
एस हरीश को केरल साहित्य अकादमी अवॉर्ड-2018 से सम्मानित किया जा चुका है। ऐसा पहली बार नहीं हो रहा। दो साल पहले महाराष्ट्र में अंधविश्वासों के खिलाफ लड़ाई लड़ने और वैज्ञानिक चेतना का प्रसार करने में लगे वयोवृद्ध नरेंद्र दाभोलकर की हत्या कर दी गई थी। पिछले वर्ष बुजुर्ग नेता गोविंद पनसारे की हत्या हुई। कर्नाटक में प्रसिद्ध विद्वान एम एम कालबुर्गी की हत्या हुई। इसके अलावा भी बीफ खाने के सवाल, लव जिहाद, शिक्षा और संस्कृति से जुड़ी संस्थाओं पर कब्जा करने की कोशिशें उसी असहिष्णुता को दर्शाती हैं। पुणे का फिल्म एवं टेलीविजन प्रशिक्षण संस्थान हो या भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद, सभी में एक खास विचारधारा के लोग भर दिये गए हैं।
साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित कालबुर्गी की हत्या की भर्त्सना करना तो दूर, केन्द्रीय साहित्य अकादमी उस पर एक शोक सभा तक आयोजित न कर सकी। सरकारी चुप्पी और इन हत्याओं की जांच में कछुए की रफ्तार से हो रही प्रगति ने भी लेखकों को बहुत मायूस किया है। विरोधस्वरूप साहित्यिक पुरस्कार लौटाने की परंपरा भी बहुत पुरानी रही है। एक सदी पहले जलियांवाला बाग में हुए नरसंहार के खिलाफ विरोध प्रकट करने के लिए रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने ब्रिटिश सरकार द्वारा प्रदत्त ‘सर' की उपाधि को वापस कर दिया था। कन्नड और हिंदी के लेखकों का अकादमी पुरस्कार लौटाने का निर्णय उसी गौरवशाली परंपरा की एक कड़ी था। अब तो दक्षिणपंथी विचारक और पत्रकार भी लगातार बढ़ रही असहिष्णुता से आजिज आ गए हैं और इसके खिलाफ लिख-बोल रहे हैं। गौरतलब है कि साहित्य अकादमी से सम्मानित लेखक केपी रामानुन्नी मॉब लिंचिंग में मारे गए जुनैद की मां को अपनी पुरस्कार राशि समर्पित कर चुके हैं।
हमारे समय में एस हरीश के उपन्यास ‘मीशा’ को निशाने पर लिया जाना साहित्यिक दुनिया की एक बेहद चिंताजनक घटना है। असहिष्णु लोगों ने इस आधार पर साप्ताहिक ‘मातृभूमि’ और कथाकार एस हरीश के खिलाफ अभियान चलाया कि इस उपन्यास में परम्पराओं और मंदिर महिलाओं का अपमान किया गया है। अलग-अलग माध्यमों से एस हरीश और उनके परिवार को मारने-पीटने की धमकियां दी गयीं। कुछ संगठनों और पुजारियों ने उपन्यास के विरोध में राज्य-सचिवालय के सामने भी प्रदर्शन किया। कोची के निकट त्रिपुनिथुरा में आयोजित ‘मातृभूमि’ के पुस्तक उत्सव के मौके पर भी तोड़-फोड़ की गयी।
अभिव्यक्ति के दमन के लिए चलाया गया यह हिंसक अभियान लेखकों को डराने की पुरजोर कोशिश है। जिस तरह लेखक को अपनी बात कहने का, उसी तरह दूसरों को विरोध-प्रदर्शन करने का पूरा अधिकार है, लेकिन धमकियों, गाली-गलौज और हिंसा के ज़रिये लेखन पर प्रतिबन्ध लगाना आपराधिक कारगुज़ारी है। केरल सरकार को इससे सख्ती से निपटते हुए एक मिसाल कायम करनी चाहिए और ऐसी सुरक्षा सुनिश्चित करनी चाहिए, जिसमें लेखक और पत्र-पत्रिकाएँ भयमुक्त होकर अपना काम कर सकें। एस हरीश ने साप्ताहिक को लिखे अपने पत्र में कहा है कि वे अपनी उपन्यास श्रृंखला को जारी नहीं रखना चाहते हैं। उपन्यास के तीन अंश साप्ताहिक में प्रकाशित हो चुके हैं।
कांग्रेस सांसद शशि थरूर कहते हैं कि ‘जो लोग मेरी चेतावनियों पर विश्वास नहीं करते, उन्हें मलयालम लेखक हरीश के साथ हुई घटना से सबक लेना चाहिए। उपन्यास के विरोध में रैली निकाली जा रही है।’ केरल में लगभग पांच दशक पहले से प्रभावी जाति व्यवस्था का उपन्यास में प्रतिरोध एक साहसिक सामाजिक पहल है। केरल के एक संगठन के अध्यक्ष केपी शशिकला का कहना है कि ‘हम जानते हैं कल्पना क्या है और इसका आनंद कैसे लें? लेकिन एक सीमा होती है। फिल्म में एक लिप-लॉक दृश्य दिखाने के बाद क्या कोई इसे यह कहते हुए सही ठहरा सकता है कि दृश्य केवल एक सपना था। प्रदर्शन जारी रहेगा जब तक कि मातृभूमि अपमान करने वाले उपन्यास के प्रकाशन के लिए माफी नहीं मांगता है। अगर वे माफी नहीं मांगते तो हम समाचार पत्र का बहिष्कार करेंगे।’केरल के वरिष्ठ नेता एमए बेबी का कहना है कि ऐसे संगठनों को तुरंत हरीश पर हमला करना बंद करना चाहिए। साप्ताहिक में उपन्यास का प्रकाशन जारी रहना चाहिए। इसे वापस लेना केरल प्रदेश की जनभावनाओं का अपमान होगा।
उपन्यास 'मीशा' के लेखक एस हरीश ने पिछले साल लघु कथाओं के लिए केरल साहित्य अकादमी का पुरस्कार जीता था। 43 वर्षीय एस. हरीश केरल के एक मलयालम भाषा के लेखक हैं। लेखन में वे 1995 से सक्रिय हैं। उनके लेखन के विषय विभिन्न सामाजिक पहलू और कल्पनाएं होती हैं। अब तक वे लघु कथाएं लिखते रहे थे। ‘मीशा’ उनका पहला नॉवेल है। इस सप्ताह जब से साप्ताहिक अखबार 'मातृभूमि' बाजार में पहुंचा है, हरीश को सोशल मीडिया पर धमकियां मिल रही हैं। लेखक को खासकर फेसबुक पर लगातार धमकियों का सामना करना पड़ा है, जिससे तंग आकर उन्होंने अपना फेसबुक अकाउंट भी बंद कर दिया है। दलितों के साथ भेदभाव पर हिंदी साहित्य में कई एक आधुनिक कृतियां आ चुकी हैं।
तुलसी राम भारत के उन लेखकों में शामिल हैं जिन्होंने अभाव और नाउम्मीदी से सुरक्षित भविष्य और ख्याति का लंबा रास्ता तय किया है। उनकी आत्मकथा ‘मुर्दहिया’ ने प्रकाशित होते ही हिन्दी साहित्य जगत में सनसनी फैला दी थी। इस उपन्यास का भी मुख्य स्वर जात-पांत विरोधी है। 'मुरदहिया' हिन्दी में किसी दलित लेखक की पहली या सर्वश्रेष्ठ आत्मकथा है, लेकिन इसके साथ ही यह भी सही है कि जिस निर्लिप्तता और मार्मिकता के साथ तुलसी राम ने अपने बचपन के अनुभवों का इसमें बेबाक ढंग से वर्णन किया है, वह अपने-आप में विशिष्ट है। उनकी आत्मकथा का दूसरा खंड ‘मणिकर्णिका' भी आ चुका है और उसका भी साहित्यप्रेमियों ने स्वागत किया।
तुलसी राम नई दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के अंतरराष्ट्रीय अध्ययन संस्थान में प्रोफेसर रहे हैं। तुलसी राम का मानना था कि दलित साहित्य मूलतः जाति व्यवस्था विरोधी साहित्य है। अतः वर्ण व्यवस्था के खिलाफ जो भी लिखे उसे दलित साहित्य माना जायेगा। वर्ण व्यवस्था के खिलाफ लिखने का सीधा सन्दर्भ धर्म तथा ईश्वर के खिलाफ भी होता है क्योंकि जाति व्यवस्था को धर्म और ईश्वर की देन कहा गया है। जहां तक प्रेमचंद की कहानी ‘कफन' का सवाल है, इसका समापन बड़े ही नाटकीय ढंग से चमत्कारिक रूप में किया गया है। कोई भी दलित कफन बेच कर शराब नहीं पी सकता। प्रेमचंद के निष्कर्ष से दलित विरोधी भावना भड़कती है। कोई भी पाठक जब यह पढ़ता है कि एक दलित कफन बेच कर शराब पी गया तो उसके प्रति अनायास ही घृणा का भाव पैदा हो जाता है किन्तु ऐसे एक अपवाद के कारण प्रेमचंद को दलित विरोधी नहीं कहा जा सकता। उन्होंने अपने लेखन में दलितों से जुड़े सवालों को उठाया है।
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