इस दुर्लभ मादक फूल से टपकती हैं अमृत की बूंदें
वक्त से दो माह पहले ही खिला ब्रह्मकमल, हैरत में विज्ञानी!
नियत समय से दो महीने पहले ही इस बार ब्रह्मकमल क्यों खिल गया? हर कोई हैरत में है। वैज्ञानिक इसका कारण पर्यावरण में हो रहा बदलाव, ग्लोबल वार्मिंग बता रहे हैं। ऊंचे हिमालयी क्षेत्र में आधीरात के बाद खिलकर सुबह तक मुरझा जाने वाला ब्रह्मकमल उत्तराखंड का राज्य पुष्प है। वैद्य कहते हैं कि इसकी पंखुड़ियों से अमृत की बूंदें टपकती हैं। इससे कैंसर सहित कई खतरनाक बीमारियों का इलाज होता है।
केदारनाथ और बद्रीनाथ के मंदिरों में ब्रह्म कमल ही प्रतिमाओं पर चढ़ाए जाते हैं। यह चट्टानों के बीच रुकी हुई बर्फ वाले स्थानों पर खिलता है। हिमालय क्षेत्र में इन दिनों जगह-जगह ब्रह्म कमल खिले हुए हैं। यह आधी रात के बाद खिलता है।
डॉक्टर-वैद्य बताते हैं कि ब्रह्म कमल की पंखुड़ियों से अमृत की बूंदे टपकती हैं। यह उत्तराखंड का राज्य-पुष्प है। इसे हिमालयी फूलों का सम्राट भी कहा जाता है। पौराणिक मान्यता है कि ब्रह्मकमल भगवान शिव का सबसे प्रिय पुष्प है। इससे कैंसर सहित कई खतरनाक बीमारियों का इलाज होता है। यह जुलाई-अगस्त महीने में खिलता रहा है लेकिन पहली बार दो महीने पूर्व ही जून में इसके खिल जाने पर आस्थावान लोग ही नहीं, वनस्पति विज्ञानी भी हैरत में हैं। यह दुर्लभ, रहस्यमय, श्वेतवर्णी पुष्प सिर्फ हिमालय, उत्तरी बर्मा और दक्षिण-पश्चिम चीन में पाया जाता है। हिमालयी क्षेत्र में यह 11 हजार से 17 हजार फुट की ऊंचाइयों पर मिलता है। उत्तराखंड में यह पिण्डारी से चिफला, सप्तशृंग, रूपकुंड, ब्रजगंगा, फूलों की घाटी, केदारनाथ, हेमकुंड साहिब, वासुकी ताल, वेदनी बुग्याल, मद्महेश्वर, तुंगनाथ में प्राकृतिक रूप से उपजता है।
केदारनाथ और बद्रीनाथ के मंदिरों में ब्रह्म कमल ही प्रतिमाओं पर चढ़ाए जाते हैं। यह चट्टानों के बीच रुकी हुई बर्फ वाले स्थानों पर खिलता है। हिमालय क्षेत्र में इन दिनों जगह-जगह ब्रह्म कमल खिले हुए हैं। यह आधी रात के बाद खिलता है। इसे खिलते हुए देखना स्वप्निल सुख देता है। यह भी मान्यता है कि जो कोई इसे खिलते हुए देख ले तो उसकी कोई भी मनोकामना पूरी हो जाती है। यह सुबह तक मुरझा जाता है। इसके पौधे में एक साल में केवल एक बार ही रात में फूल आता है। इस पुष्प का उल्लेख महाभारत में भी मिलता है। आख्यान है कि इसे पाने के लिए द्रौपदी विकल हो गई थी। यहां की जनजातियों ने सबसे पहले इस फूल के औषधीय महत्व को पहचाना था। इसके अस्तित्व को बचाने में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही।
हिमालयी क्षेत्र में मानसून के वक्त जब ब्रह्म कमल खिलने लगता है, नंदा अष्टमी के दिन देवताओं पर चढ़ाने के बाद इसे श्रद्धालुओं को प्रसाद रूप में बांटा जाता है। ऊंचाइयों पर इस फूल के खिलते ही स्थानीय लोग बोरों में भर कर इसे मंदिरों को पहुंचाने लगते हैं। प्रतिबंध के बावजूद वे इसे प्रति फूल पंद्रह-बीस रुपए में तीर्थयात्रियों को बेचकर कमाई भी करते रहते हैं। हिमालयी जनजातियों में किसी भी फसल को लगाने से पूर्व अपने इष्टदेव पर औषधीय गुणों से युक्त ‘ब्रह्मकमल’ चढ़ाने की परम्परा है। वे बुग्यालों से ‘ब्रह्मकमल’ तोड़ लाकर चढ़ाते थे। इसमें दो-तीन दिन का वक्त लग जाता था। इस बीच पर्याप्त मात्रा में उसके बीज जमीन में जम जाते थे, जिससे पुनः अगले वर्ष उतने ही ‘ब्रह्मकमल’ खिल जाते थे। अब वहां के लोगों में अधिकाधिक ‘ब्रह्मकमल’ तोड़ने की होड़ सी लगी रहती है, जिससे पर्याप्त मात्रा में बीज न बन पाने से इस फूल की प्रजाति उजड़ती जा रही है। यहां पहुंचने वाले पर्यटकों ने भी इस फूल को नष्ट करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी है। वे अपने घरों में सजाने के लिए इसे अपने साथ तोड़ ले जाते हैं। शोधार्थी अपने रिसर्च के लिए भी ये फूल तोड़ते रहते हैं।
ब्रह्म कमल को ससोरिया ओबिलाटा भी कहते हैं। इसका वानस्पतिक नाम एपीथायलम ओक्सीपेटालम है। इसमें कई एक औषधीय गुण होते हैं। चिकित्सकीय प्रयोग में इस फूल के लगभग 174 फार्मुलेशनस पाए गए हैं। इसके तेल से बने परफ्यूम्स का स्टीमुलेंट के तौर पर प्रयोग किया जा रहा है। इसे सुखाकर कैंसर रोग की दवा के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। इससे निकलने वाले पानी को पीने से थकान मिट जाती है। इससे पुरानी (काली) खांसी का भी इलाज किया जाता है। भोटिया जनजाति के लोग गांव में रोग-व्याधि न हो, इसके लिए इस पुष्प को घर के दरवाजों पर लटका देते हैं। इस फूल का प्रयोग जड़ी-बूटी के रूप में किया जाता है। वैद्य बताते हैं कि इसकी पंखुडियों से टपका जल अमृत समान होता है।
इस फूल का एक बार में 50 एमएल अर्क दिन में दो बार सेवन करने से बुखार एकदम ठीक हो जाता है। यूरिन में संक्रमण होने पर इसके अर्क का इस्तेमाल इन्फेक्शन दूर कर देता है। इसके सेवन से लीवर में होने वाले इन्फेक्शन में कमी आती है। लीवर को स्वस्थ रखने के लिए इस फूल से तैयार सूप का रोजाना सेवन किया जा सकता है। यह यौन संचरित रोगों से बचाने के काम आता है। हालांकि इसका स्वाद कड़वा होता है लेकिन इसमें पोषक तत्वों की मात्रा इतनी ज्यादा होती है कि इसका रोजाना सेवन करने से भूख बढ़ जाती है। इसकी पत्तियां हड्डियों के दर्द से निजात दिलाती हैं। शरीर में जख्म हो जाने पर इसका रस एंटीसेप्टिक फायदे पहुंचाता है। वनस्पति विज्ञानियों ने इस दुर्लभ-मादक फूल की 31 प्रजातियां बताई हैं। उत्तराखंड में इसे ब्रह्मकमल, हिमाचल में दूधाफूल, कश्मीर में गलगल और उत्तर-पश्चिमी भारत में बरगनडटोगेस नाम से इसे जाना जाता है। इसकी कुल उम्र पांच-छह महीने की होती है। यह पानी में नहीं, शुष्क जमीन पर उगता-खिलता है।
इस बार मानसून आने से दो महीने पहले ही उत्तराखंड के हिमालयी क्षेत्र में इसका खिलना हैरत का विषय बना हुआ है। प्रकृति का यह अचरज भरा कारनामा केदारनाथ धाम में पुलिस की बनाई ब्रह्म वाटिका में हुआ है। यह दुनिया की पहली ब्रह्म वाटिका बताई जा रही है। पिछले साल केदारनाथ में तैनात पुलिसकर्मियों ने एक वाटिका बनाकर उसमें ब्रह्मकमल के पौधे रोप दिए थे। केदारनाथ के चौकी इंजार्ज विपिन चंद्र पाठक को यह ब्रह्म कमल वाटिका तैयार करने में तीन साल लगे। विपिन पाठक ने उत्तराखंड सरकार से मांग की है कि वह स्वयं वाटिका की संरक्षण व्यवस्था करे। वैसे वैज्ञानिक इस बार बेमौसम ब्रह्मकमल खिलने का कारण पर्यावरण में हो रहा बदलाव बता रहे हैं। क्षेत्र में बढ़ते इकोलोजिकल दवाब के कारण इस फूल के अस्तित्व पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं। पर्वतीय क्षेत्र में जंगलों के अंधाधुध कटान ने अब ग्लेशियरों को सिकुड़ने पर मजबूर कर दिया है। कभी बर्फ से ढंकी रहने वाली चोटियां नंगी हो चुकी हैं। जून में ब्रह्मकमल खिलने पर माना जा रहा है कि मध्य हिमालय क्षेत्र में उगने वाले अन्य प्रजातियों के फूल भी समय से पहले खिल रहे हैं, जो शोध का विषय है।
यह भी पढ़ें: कैनवॉस में जिंदगी के रंग: पैरों के सहारे पेंटिंग बनाने वाले नि:शक्तजन