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कैनवॉस में जिंदगी के रंग: पैरों के सहारे पेंटिंग बनाने वाले नि:शक्तजन

कैनवॉस में जिंदगी के रंग: पैरों के सहारे पेंटिंग बनाने वाले नि:शक्तजन

Friday June 08, 2018 , 7 min Read

वह चाहे राजस्थान के दिव्यांग चित्रकार गुणवंत सिंह देवल हों अथवा छत्तीसगढ़ के दिव्यांग चित्रकार बसंत साहू, फर्रूखाबाद की दिव्यांग बिटिया छाया हो या पेंटिंग में विश्व कीर्तिमान बनाने वाली बनारस की दिव्यांग चित्रकार पूनम राय यदुवंशी। इनकी कामयाबियां पूरे समाज को एक अलग तरह की शिक्षा और प्रेरणा दे रही हैं।

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राजस्थान के दिव्यांग चित्रकार गुणवंत सिंह देवल पैरों से पत्थर तरास कर खूबसूरत प्रतिमाओं को आकार देते हैं। वह अपने समस्त काम पांवों से ही करते हैं। पैर से क़लम, कूची और छेनी पकड़कर अपने सपनों की दुनियाँ को रचने वाले देवल कहते हैं कि मन में जज़्बा हो तो सबकुछ सम्भव है। 

दिव्यांगों के साथ समाज सहानुभूति तो रखता है लेकिन जिंदगी सिर्फ किसी हमदर्दी से बसर नहीं होती है। समाज में ज्यादातर लोग ऐसे मिल जाएंगे, दिव्यांगों को देखर या तो मुंह चुराने लगते हैं या मुंह चिढ़ाकर निकल जाते हैं। इससे वह व्यक्ति की आत्महीनता को प्रोत्साहित करने की कुचेष्टा करते हैं। दिव्यांग के प्रति दया भी उतनी तिरस्करणीय है, जितनी हीनभावना। सोचें कि उन्हें भी तो जीने का पूरा हक है। यह भी दुखद संभावना रहती है कि वक्त किसी को भी विकलांग बना सकता है। इसलिए जब कोई दिव्यांग वक्त के ऐसे कठिन थपेड़ों को चीरते हुए संवेदनशीलता के उन सरोकारों से हमारा साक्षात्कार कराता है, जिसे कला कहते हैं, तो बड़े-बड़ो की आंखें आश्चर्य से फटी रह जाती हैं। ऐसे दिव्यांग बेटे ही नहीं, कई दिव्यांग बेटियां भी अपनी लाजवाब पेंटिंग के कीर्तिमान बना रही हैं। ऐसा टैलेंट भला किसे मुग्ध नहीं कर सकता है। वह चाहे राजस्थान के दिव्यांग चित्रकार गुणवंत सिंह देवल हों अथवा छत्तीसगढ़ के दिव्यांग चित्रकार बसंत साहू, फर्रूखाबाद की दिव्यांग बिटिया छाया हो या पेंटिंग में विश्व कीर्तिमान बनाने वाली बनारस की दिव्यांग चित्रकार पूनम राय यदुवंशी। इनकी कामयाबियां पूरे समाज को एक अलग तरह की शिक्षा और प्रेरणा दे रही हैं।

कहते हैं न कि 'न फिक्र करो बीते लम्हों की कि कल का सूरज निकलना बाकी है, मिल जाएंगी मंजिलें आपको हमेशा, हौसले की उड़ान बाकी है।' जैसे करैला नीम चढ़े की बात हो, हमारे समाज में एक तो बेटी होना, दूसरे दिव्यांग, उनके जीवन में पहले से अंधेरा चादर ताने रहता है लेकिन जब वही बेटियों ऊंची उड़ान भरने लगें, गर्व से हर किसी का सीना चौड़ा हो जाता है। जियो तो ऐसे जियो कि मौत की ख्वाहिश क़दमों पर पड़ी हो और मरो तो ऐसे मरो कि ज़िन्दगी तुम्हे वापस ले जाने कब्र पर खड़ी हो। विकलांगता एक ऐसा ही चैलेंज है, जिससे कोई चाह कर भी पीछा नहीं छुड़ा सकता है लेकिन कई ऐसी दिव्यांग बेटियां अपने पेंटिंग के हुनर से जमाने को सबक दे रही हैं।

फर्रुखाबाद के मसेनी निवासी साइकिल मिस्त्री संजय की तीन बेटियों में सबसे बड़ी छाया बचपन से ही दोनों पैरों एवं एक हाथ से नि:शक्त हैं। घर में चलते-फिरते ठोकरें और गिरते उठते जुनून की आंच में उनके हौसलों पंख लगे। उनकी लगन देखकर पिता ने स्कूल में दाखिला करा दिया। वह घिसट-घिसट कर स्कूल जाने लगीं। कुछ बड़ी हुईं तो छोटा सा डंडा लेकर विद्यालय पहुंचतीं। मददगारों से बस्ते का बोझ स्कूल तक जाता। पांचवीं क्लास में वह अव्वल आईं तो हेड मास्टर ने इनाम में बैसाखी नवाज दी। अपना बोझ संभालने के साथ ही छाया को अपनी छोटी बहनों की भी चिंता रहती। उनका खुद का हुनर परवान चढ़ ही रहा था। इसी दौरान पेंटिंग हुनर मन पर आकार लेने लगा था।

इसमें भी छाया की प्रतिभा का हर कोई कायल। उनकी पेंटिंग में गांधी और नेहरू से लेकर तमाम देवी-देवता जीवंत होने लगे। ख्याति फैलने लगी। छाया का सपना है कि वह टीचर बनकर अपनी जैसी बच्चियों के भविष्य में रंग भरे। इसी तरह चार फुट चौड़े और पचास फुट लंबे कैनवास पर हिमाचल प्रदेश की सांस्कृतिक विरासत उकेर कर बनारस की दिव्यांग चित्रकार पूनम राय यदुवंशी पेंटिंग में विश्व कीर्तिमान बना चुकी हैं। जिन दिनो वह कुल्लू मनाली में इस विश्व कीर्तिमान को अंजाम दे रही थीं, मौके पर गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकार्ड संकलित करने वाली टीम भी वहां पूरे वक्त मौजूद रही। पूनम इससे पहले भी कई कीतिर्मान अपने नाम कर चुकी हैं।

बसंत साहू

बसंत साहू


राजस्थान के दिव्यांग चित्रकार गुणवंत सिंह देवल पैरों से पत्थर तरास कर खूबसूरत प्रतिमाओं को आकार देते हैं। वह अपने समस्त काम पांवों से ही करते हैं। पैर से क़लम, कूची और छेनी पकड़कर अपने सपनों की दुनियाँ को रचने वाले देवल कहते हैं कि मन में जज़्बा हो तो सबकुछ सम्भव है। जिनके हाथ हैं, भीख भी माँगते हैं, हिंसा भी करते हैं, लेकिन हम उन्ही हाथों का काम पैरों से खूबसूरती उकेरने में लेते हैं। देवल उदयपुर के विद्या भवन में 1981 से 1984 तक हॉस्टल में रहकर कक्षा नौवीं से ग्यारहवीं तक की पढ़ाई प्रथम श्रेणी में पूरी किए हैं। वह चित्रकार ही नहीं, कवि , लेखक, तैराक और पटु वक्ता भी हैं। उनके जन्म से ही दोनों हाथ नहीं हैं। वह राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित हो चुके हैं।

लगभग बत्तीस वर्षीय देवल अपने हुनर से किसी को भी नई ऊर्जा और उत्साह से भर देते हैं। उन्होंने विपरीत परिस्थितियों में भी ख़ुद को साबित किया है। बिलोट ग्राम पंचायत के दुर्गा खेडा गांव निवासी ईश्वर सिंह इंद्राणी के पुत्र गुणवंत सिंह देवल बचपन से ही कुशाग्र थे। स्कूल के दिनो में वह पांव के अंगूठे और अंगुलियों के बीच कलम फंसाकर लिखने लगे थे। धीरे-धीरे उनका मन चित्रकारी में रमने लगा। आठवीं कक्षा उत्तीर्ण करने के बाद जब आगे की पढ़ाई के लिए उदयपुर के विद्याभवन में दाखिला दिलाने की बात आई तो उन्हें ऐडमिशन से मना कर दिया गया। किसी तरह प्रवेश मिला तो वह बाकी छात्रों को पीछे छोड़ कक्षाओं में टॉप करते गए। वर्ष 1984 में ललित कला अकादमी के माध्यम से उनका चयन राष्ट्रपति अवार्ड के लिए हुआ।

वर्ष 1987-88 में उदयपुर के शिल्प ग्राम मेले में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने भी उनको सम्मानित किया। खराब घरेलू हालात ने उन्हें आगे की पढ़ाई छोड़ देने के लिए मजबूर किया। वह खेती करने लगे। उन्हीं दिनो में एक हादसे में पहले पिता की जान गई, फिर किडनियां खराब होने से पत्नी ने भी दुनिया से विदा ले ली। इतनी विपरीत परिस्थितियों के बावजूद देवल वक्त से लड़ते रहे हैं। अब उनके पैरों से तरासी गई मूर्तियों से अच्छी-खासी कमाई हो जाती है।

कामयाबी के लफ्जों में कहें कि 'न फिक्र करो बीते लम्हों की, कल का सूरज निकलना बाकी है, मिल जाएंगी मंजिलें हमेशा, हौसले की उड़ान बाकी है', तो ऐसे क्षणों में छत्तीसगढ़ के दिव्यांग चित्रकार बसंत साहू एक और प्रेरक बनकर सामने आते हैं। साहू शरीर से लगभग नब्बे प्रतिशत दिव्यांग हैं। इसके बावजूद अच्छे चित्रकार के रूप में प्रतिष्ठित होने की वजहों पर प्रकाश डालते हुए वह बताते हैं कि वह जब इक्कीस वर्ष के थे, एक हादसे में पूरी तरह शारिरिक रूप से अक्षम हो गए थे। उस वाकये के बाद जब उनके मन पर विषाद पसरने लगा, उन्होंने वक्त से लड़ने का संकल्प लिया। उन्होंने तय किया कि अब चित्रकारी करेंगे। अभी तक उन्होंने एक बार भी ब्रश नहीं पकड़ा था लेकिन आढ़ी-तिरछी लाइनों से पेंटिंग की शुरुआत कर धीरे-धीरे उनका हुनर रंग लाने लगा। अपनी कठिन साधना के बूते कुछ ही वक्त में वह एक कुशल पेंटर की तरह चित्रकारी करने लगे। आज विदेशों तक में उनकी पेंटिंग की मांग होती है। वह ऑयल पेंटिंग और वाटर पेंटिंग के साथ ही पेन स्केच आदि से भी चित्र उकेरते हैं। वह विगत लगभग एक दशक से छत्तीसगढ़ के शीर्ष चित्रकार के रूप में पूरे विश्व में ख्याति अर्जित कर रहे हैं।

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