प्रकृति के लिए एक 'सिद्धार्थ' यात्रा और 'उज्ज्वल' होता समाज
2120किलोमीटर, 5 हफ्ते और 2 बाइसिकल और बहुत दूरी तय करने की उम्मीद
आप क्या करते जब एक इंजिनियर बन जाते हैं?
ये लोग अपने घर से साइकिल से 2120 किलोमीटर की यात्रा लोगों की मदद करने के लिए करते हैं और वो भी 5 हफ़्ते में।
यह उनका एक प्रयास था जिसमे कुछ किलोमीटर को सीमित दिनों में तय करना था। और वे अपनी उम्मीदों पर खरे उतरे।
आदमी की इच्छाएं उसके दिमाग के लिए हीरोइन का काम करती हैं। जितना आप इसका अनुभव करते हैं, उतना ही अधिक चाहते हैं।
इन लोगों की चुनौती कोलकाता से खड़गपुर 130 किमी कवर करने की थी। लेकिन इसे केवल यात्रा कहना प्रयाप्त नहीं था। इसे और अधिक अर्थपूर्ण होना चाहिए था।
और इस तरह इनकी यात्रा शुरू हुई। सिद्धार्थ अग्रवाल और उज्ज्वल चौहान इंजीनियरिंग स्नातकों ने साइकिल पर प्रकृति को जानने का निर्णय लिया। और उनका यह अभियान दूरी को कवर के बदले विभिन्न सामाजिक कारणों के लिए फण्ड जुटाने में बदल गया। विशेष रूप से गैर सरकारी संगठनों ‘रंग दे’ और ‘बाल अधिकार और यू (क्राई)’ के लिए। जिसके लिए उन्होंने मुंबई से कोलकाता की बीच 2120 किलोमीटर की यात्रा की।
यह काम आसान नहीं था। अगर वहां सड़क हो तो वह सड़कें अप्रत्याशित हैं। ढलान पर चलना खतरनाक हो सकता है और ऊपर की ओर आने में आप को अपनी ऊर्जा को बचाना होता है। एक अच्छी बाइक के बिना यह मुश्किल है और आपको शारीरिक दर्द दे सकता है।
पहली बात जो सिद्धार्थ कहते हैं, “बस पानी पीते रहें। हाइड्रेटेड रहें क्योकिं आप शरीर को इस अवस्था में नहीं ला सकते जहाँ पर आपके शरीर में पानी की कमी हो जाये।”
‘बसना से रायपुर पहुँचनें में हमें 13 घंटे लगे। हमने सुबह 6 बजे सफर शुरू किया और हमारा अधिकतर दिन 48 डिग्री सेल्सियस की गर्मी में बीता। हमने हाईवे पर स्थित ढाबे पर खाना खाया।’
2120 किलोमीटर की यात्रा बहुत लम्बी है, यह बताते समय सिद्धार्थ हँसते हुए कहते हैं, “हमने इसके लिए पूरी तैयारी की थी। हमने एक दिन में लगभग 80 किलोमीटर की दूरी तय करने और अगले दिन रुकने की भी योजना बनायी। अगर कोई जगह हमें सही नहीं लगती तो हम किसी दूसरे स्थान के लिए 80-90 किलोमीटर की यात्रा करते।”
हमें लगा कि इस ज़ोरदार अभियान के लिए तो एक एथलेटिक फिटनेस की जरुरत पड़ती होगी लेकिन इस बात से सिद्धार्थ असहमत हैं, “यह यात्रा के सम्बन्ध में चुनौती नहीं है। मैंने महसूस किया जब हमने ट्रिप की शुरुआत की थी तब हम एथलेटिक नहीं थे और अभी भी नहीं हैं। हमने कड़ा अभ्यास नहीं किया। हमारी तैयारी अधिकतर मानसिक होती थी।’
‘हर किसी का अलग-अलग नजरिया है। यदि कोई यात्रा करना चाहता है, उन्हें अच्छे शारीरिक रूप में होना जरूरी नहीं है बल्कि आपको मानसिक रूप से तैयार रहना जरूरी है।’
‘मैं आपको एक रिक्शे वाले की कहानी सुनाता हूँ जिससे मैं मिला था। वह कोलकाता से लेह जा रहा था। इस समय वह उत्तर प्रदेश में हैं। अगर मैं गलत नही हूँ तो यदि एक रिक्शावाला यह कर सकता है तो हमें भी इसे करने के लिए मानसिक शक्ति की आवश्यकता है।’
‘एक उम्र के बाद राहों पर बनायीं गयी ये मंजिलें आपको याद आयेंगी। आपने जिन छोटे –छोटे पलों का आनंद लिया वे आपकी यादों में बस जायेंगे। यात्रा करने से आप जल्दी से बहुत कुछ समझने लगते हैं।’
‘जब हम छत्तीसगढ़ के के गाँव राजनाथ पहुंचे तो एक अनुभव हमारे ज़हन में बस गया। हम रात 8.30 बजे वहां पहुंचे और रहने के लिए होटल ढूंढ रहे थे। रोड ब्लॉक के चलते हमें अंधी गली का चक्कर लेना पड़ा। हम एक आदमी से टकरा गये और उन्होंने हमें रोका। उन्होंने पूछा कि हम कहाँ जा रहे हैं और हमने अपनी पूरी बात बता दी। उन्होंने कहा ‘बेटा मैं तुम्हे लॉज में नहीं रुकने दे सकता तुम मेरे घर चलो।’
‘सुरक्षा के नजरिये से संतुष्ट होने के बाद हम उनके आभारी हुए और उनके दो दोस्तों से भी मुलाक़ात की। उनमे से एक प्रेस में काम करते थे। हमने सुबह प्रेस कांफ्रेंस की और दिन में हमने स्थानीय पार्टी के कार्यकर्ताओं से मुलाकात की। हमने उनसे कुछ एनजीओ द्वारा पैसे खाने की समस्या पर बातचीत की। हम यह जानकार चौंक गये कि पार्टी के कार्यकर्ता भी इसी तरह की समस्या से जूझ रहे थे। आप शहरों में इस तरह की संवेदनशीलता नहीं पाते।’
‘स्थानीय लोगों के साथ हुए ऐसे बहुत से किस्से हमारे साथ जुड़े हैं। लेकिन प्रकृति से आप कितने जुड़े हैं यह भी बहुत महत्वपूर्ण है। ओडिशा में रहते हुए हमने सिमिलीपाल नेशनल पार्क से ओर जाने की कोशिश की। सुबह मौसम अच्छा था। सुबह 8:30 बजे तेज हवाएं चलने लगी मैं सीधे बाइसाइकिल नहीं चला पा रहा था। इस बीच तेज मूसलाधार बारिश शुरू हो गयी। आप इस समय स्थिति को डरावना समझ सकते थे लेकिन मैंने इसी समय जाना की परमान्द क्या होता है। यह ऐसा क्षण था जब मैं प्रकृति के बहुत पास था।’
‘कई बार रास्तों में बहुत उमस रहती है, एक-एक पैडल मारने में बहुत बड़ी मुश्किल हो जाती है।’ “रोड पर मिलने वाली गर्मी और प्रकृति से होने वाली अनोखी मुलाकातों के बीच, सामाजिक उद्देश्य के लिए की जा रही इन यात्राओं में उन्माद के कुछ क्षण मिल जाते हैं।” सिद्धार्थ को भी ऐसे कई अनुभव मिले हैं जो उनकी यादों में अब खजाने की तरह सुरक्षित हैं।
सिद्धार्थ बताते हैं “हम अकोला से जन्ना की ओर जा रहे थे और हमारे टायर में कुछ दिक्कत हो गयी। हम एक घाटी में थे जहाँ से अगला गाँव 15 किलोमीटर दूर था और पिछला 5 किलोमीटर पीछे छूट गया था। हमें परेशानी के कदमों की आहट साफ़ सुनाई दे रही थी क्योंकि हमने तीन शहरों में कोशिश की थी और वहां हमारे मुताबिक़ टायर नहीं मिला।”
“हम रोड़ के किनारे बैठ कर हंसने लगे। करीब आधा घंटा हम हँसते रहे और पत्थर फेंकते रहे। कुछ समय बाद हम चिंता मुक्त हो गए क्योंकि ऐसे पलों में एक यात्रा आपके लिए धैर्य और स्थिति को स्वीकार करने के मायने बदल देती है।”
सिद्धार्थ अपने बात को आगे बढ़ाते हुए कहते हैं कि ‘यहाँ तक कि यात्राओं में बहुत लोगों की मदद करने के बावजूद हम सबसे ज्यादा खुद की मदद करने में सक्षम रहे। हमने इस तरह से रास्ते निकाले जैसे कभी सोचे तक नहीं थे, यह सबसे बेहतर बात रही।’
आखिरकार हमें सिद्धार्थ और उज्जवल के साथ सामजिक परिवर्तन पर काम करने का मौका मिला। मेनस्ट्रीम से अलग यहाँ कई दुःखद कहानियां हैं और साथ ही उन्हें कम करने के लिए मानवीय जूनून भी।
सिद्धार्थ विस्तार से बाते हैं ‘हम पहले माइक्रोफाइनेंस से डील करते हैं। हम जमीनी स्तर की बात कर रहे हैं। बाल श्रम और बच्चों की शिक्षा दो अन्य मुद्दे याद हैं। हम ‘रंग दे’ के लिए कार्य कर रहे थे जहाँ हमें पान की दूकान चला रहे एक महिला मिली। ‘रंग दे’ से लोन लेने के बाद उसने अपनी दुकान को बढ़ाया और उसमे जलपान का कोना भी जोड़ दिया।’ इस तरह देखा जा सकता है कि छोटी सी रकम किस तरह समुदाय के लिए स्थिरता पैदा कर सकती है।
सिद्धार्थ आगे कहते हैं “हमें बहुत से अलग-अलग अनुभव हुए। एक जगह ढाबे पर हमें एक अलग ही तरह का साइन बोर्ड देखा । वहां मालिक के काउन्टर के पीछे बड़ा सा बोर्ड लगा था, जिस पर लिखा था ‘यहाँ बाल श्रमिक नहीं काम करते।”
‘यह बताता है कि इन इलाकों में जागरूकता ना होने पर भी ऐसी असामान्य स्थिति दिखाई दे रही है। कई जगह काम करने वाले बच्चे अपनी उम्र को लेकर झूठ बोलते हैं, उन्हें ऐसा करना सिखाया गया है। समस्या बहुत बड़ी है, कोलकाता के रेड लाइट इलाके में बच्चों भीख मांगते देखना शर्मनाक लगता है। यहाँ तक कि वहां बहुत सा कार्य करने के बाद भी बहुत कुछ बचा हुआ है और लगता है कि हम हर एक की मदद नहीं कर सकते। मुझे महसूस होता है कि हम इन बच्चों को रोज़ नज़रंदाज़ करते हैं।’
‘बच्चों में बड़ा वर्ग विभाजन है। मुझे याद है कि नागपुर में बच्चे इसलिए परेशान थे क्योंकि वह निजी स्कूल में पढ़ने बजाय पब्लिक स्कूल में पढ़ना चाहते थे। उसी समय अहमदाबाद में एक फ़ील्ड यात्रा के दौरान हमने देखा कि सभी छात्र सरकारी स्कूल में उपलब्ध संसाधनों का प्रभावशाली उपयोग कर रहे हैं। अच्छा समुदाय, अच्छी शिक्षा, प्रदर्शन का परिणाम कॉलेज में उच्च नामांकन दर है।’
सिद्धार्थ को उम्मीद है कि और भी लोग जिप्सी अभियानों को आगे ले जायेंगे। ‘सारी प्रक्रिया को एक गति से चला पाना बहुत मुश्किल है। लेकिन चीज़ों को बदलने का दृढ संकल्प जिनके दिलों में है वे चीज़ें बदल सकते हैं।’
“यह मैंने यात्राओं से सबसे अच्छी बात सीखी कि, किसी चीज़ को पूरा करने से खुद को आप स्वयं ही रोकते हैं।”