मछुआरिन दुलारी देवी की पेंटिंग की दुनिया हुई दीवानी
मधुबनी (बिहार) के अत्यंत निर्धन दलित परिवार में जन्मी एवं लोगों के घरों में झाड़ू-पोछा करती हुई अनपढ़ दुलारी देवी की पेंटिंग पूरी दुनिया में सराही जा रही है। पूर्व राष्ट्रपति स्वर्गीय एपीजे अब्दुल कलाम भी उनकी पेंटिंग पर मुग्ध हो चुके हैं।
महासुंदरी देवी और कर्पूरी देवी ने उनका हुनर संवारने में भरपूर योगदान दिया। कर्पूरी देवी कहती हैं कि संघर्षरत दुलारी ने जीवन की विपरीत परिस्थितियों में भी जिस तरह कला की ज्योति जलाए रखी है, वह नई पीढ़ी के कलाकारों के लिए एक जीवंत मिसाल है।
कोई भी कला जाति-धर्म-नस्ल-पेशा जैसे खांचों में विभाजित नहीं होती है। बहुतों को नहीं मालूम है कि हमारे देश में सबसे पहले शादी-ब्याह के समय दीवारों पर गेरू-हल्दी से कोहबर-पेंटिंग की शुरुआत दलित समुदायों के महिलाओं ने की थी। बिहार में नेपाल तराई इलाके में दरभंगा, मधुबनी के लगभग हर गाँव रांटी, जितवारपुर आदि की दीवारें पेंटिंग से रंगी मिल जाती हैं। उसी रांटी गांव की रहने वाली एक मछुआरिन दुलारी देवी की पेंटिंग ने दुनिया भर के कलाप्रेमियों को मुग्ध कर रखा है।
दरअसल, मिथिला पेंटिंग जीवन-यापन और लोक से गहरे से जुड़ी हुई है। आम तौर पर चटक रंग और लोक जीवन का चित्रण इसकी विशेषता है। मिथिला के सामंती समाज में स्त्रियों के जीवन का कटु यथार्थ दुलारी देवी की भी कल्पना से जुड़ कर इस कला को असाधारण बनाता है। उनकी पेंटिंग में बांस, पूरइन, केले का थम्म, कमल, कछुआ, साँप, मछली, लटपटिया सुग्गा, सूर्य और शिव-पार्वती के पारंपरिक चित्रण के साथ ही सामयिक विषय भी होते हैं।
दुलारी देवी ऐसी महिला कलाकार हैं, जिन्होंने पेशे से मछुआरिन होने के बावजूद आज वह मोकाम हासिल कर लिया है, जो हर किसी के लिए आसान नहीं। उनको विदेशों से भी अब मान-सम्मान मिलने लगा है। पूर्व राष्ट्रपति स्वर्गीय एपीजे अब्दुल कलाम भी उनकी पेंटिंग पर मुग्ध हो चुके हैं। पटना में जब बिहार संग्रहालय का उद्घाटन हो रहा था, उस मौके पर राज्य के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने दुलारी देवी को विशेष रूप से आमंत्रित किया था।
दुलारी देवी का बचपन घनघोर कठिनाइयों में गुजरा है। उनका जन्म 1965 में एक अत्यंत निर्धन मल्लाह परिवार में हुआ था। वह बचपन में अपनी मां धनेसरी देवी के साथ घरों में चौका-बर्तन करने के साथ ही पिता मुसहर मुखिया और भाई परीछण मुखिया के साथ मछली मारने और बेचने में भी हाथ बंटाती थीं। उनका बारह साल की उम्र में ही बाल विवाह हो गया। सात साल ससुराल में रहीं। फिर छह माह की पुत्री की अचानक मौत के बाद मायके आईं और यहीं की होकर रह गईं। इत्तेफाक से उसी दौरान जब उनको पद्मश्री महासुंदरी देवी और कर्पूरी देवी के घर झाड़ू-पोंछा का काम मिला। काम से समय निकालकर एक दिन वह हिम्मत कर पद्मश्री महासुंदरी देवी से डरते हुए पेंटिंग सीखने की इच्छा जताई। उनके सान्निध्य में रहकर पेंटिंग में रम गईं।
उन्हीं दिनों उनके माता-पिता चल बसे लेकिन उन्होंने पेंटिंग से हाथ नहीं खींचे। अपनी पेंटिंग में मूर्तियां, मछलियां आदि उकेरने लगीं। वर्ष 1984 की बात है। उनको महासुंदरी देवी और कर्पूरी देवी से सघन प्रशिक्षण मिला और पेंटिंग में ही उन्होंने इस नई जिंदगी की आखिरी सांस लेने का संकल्प ठान लिया। महासुंदरी देवी और कर्पूरी देवी ने उनका हुनर संवारने में भरपूर योगदान दिया। कर्पूरी देवी कहती हैं कि संघर्षरत दुलारी ने जीवन की विपरीत परिस्थितियों में भी जिस तरह कला की ज्योति जलाए रखी है, वह नई पीढ़ी के कलाकारों के लिए एक जीवंत मिसाल है।
आज उनकी पेंटिंग की पूरी दुनिया में ख्याति है। वह अब तक सात हजार मधुबनी पेंटिंग्स बना चुकी हैं। दो दर्जन से अधिक देशों में उनकी पेंटिग ने धूम मचा रखी है। वह अब तक कई देशों की यात्राएं कर चुकी हैं। उनकी पेंटिंग से मधुबनी का भी पूरी दुनिया में नाम रोशन हुआ है। दुलारी देवी स्वयं तो पढ़ी-लिखी नहीं हैं लेकिन वह अपनी पेंटिंग में ही भावनाओं को जुबान देती है। अपनी अभिव्यक्ति से लोगों का दिल जीत लेती हैं। वह बमुश्किल हस्ताक्षर और अपने गांव का नाम भर लिख पाती हैं।
वह दीवार, हेमेड पेपर, पाग दोपटा सिल्क साड़ी कैनवास सहित हर तरह की पेंटिंग करती हैं। वह बेंगलुरु, हरियाणा सहित कई राज्यों में पेंटिग बना चुकी हैं। उन्हें ललित कला अकादमी से सम्मानित भी हो चुकी हैं। गीता वुल्फ की पुस्तक 'फॉलोइंग माइ पेंट ब्रश' में भी उनका सविस्तार उल्लेख है। वह अक्सर पत्र-पत्रिकाओं में भी प्रकाशित होती रहती हैं। वह इग्नू के लिए मैथिली में तैयार पाठ्यक्रम का मुखपृष्ठ भी बना चुकी हैं। दुलारी कहती हैं कि मधुबनी पेंटिंग को नए आयाम देना ही उनका सपना है। वह इसीलिए लड़कियों को पेंटिंग की नि:शुल्क ट्रेनिंग भी देती रहती हैं।
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