बच्चों के लिए महाभारत की कहानियाँ लिख रहे हैं आईपीएस अधिकारी कुमार विश्वजीत
विश्वजीत झा का कुमार विश्वजीत बनना तो इत्तेफ़ाक़ था, लेकिन आंध्र प्रदेश के नार्थ कोस्टल ज़ोन के आईजीपी पद पर रहते हुए बच्चों के लिए किताबें लिखने, उनके लिए कहानियाँ बुनने तथा उनके लिए हिंदी में उमदा साहित्य न होने की चिंता के साथ नया साहित्य सृजन करने की इच्छा के साथ कुमार विश्वजीत ने अपने खाली समय में बच्चों के लिए कहानियाँ लिखने के लिए क़लम उठा लिया है। उनका उत्साह बता रहा है कि वे कम से कम 100 कहानियाँ लिखकर ही दम लेंगे।
कुमार विश्वजीत 1994 बैच के आईपीएस अधिकारी हैं और वर्तमान में आंध्र-प्रदेश के नार्थ कोस्टल ज़ोन के आईजीपी हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय के किरोडीमल कॉलेज से उन्होंने संस्कृत में स्नातकोत्तर की उपाधि अर्जित की और 1994 में आईपीएस चुने गये। उन्होंने तेलंगाना के महबूबनगर जिले में नागर कर्नूल और मेदक जिले के तूपरान के एएसपी पद से अपनी जीवन यात्रा शुरू की थी। आंध्र-प्रदेश और तेलंगाना में कई महत्वपूर्ण पदों पर काम करने वाले कुमार विश्वजीत ने एक वर्ष यूएन तथा पाँच वर्षों तक उत्तराखंड में डिप्युटेशन पर काम किया है। कुमार विश्वजीत सामान्य आईपीएस अधिकारियों से कुछ अलग विशेषताएँ रखते हैं। यह विशेषता है, उनका साहित्य सृजन। पुलिस की नौकरी के साथ-साथ उन्होंने साहित्य सृजन में भी अपनी महत्वपूर्ण उपस्थिति दर्ज करायी है। वे ‘अतीत का दामन’ और ‘आदि अनंत’ के साथ साथ 1 उपन्यास और 1 शोध ग्रंथ भी के लेखक हैं। अंग्रेजी साहित्य से हिंदी में अनुदित उनकी तीन पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं। वे एक अच्छे गायक भी हैं। कुमार विश्वजीत भारतीय पौराणिक कथाओं से बच्चों के लिए कहानियाँ तलाश और तराश रहे हैं। उनकी नज़र इन दिनों महाभारत पर है। वे इसमें से 100 प्रेरक कहानियाँ बच्चों के लिए लिखने का उद्देश्य रखते हैं। अपने लक्ष्य की इस यात्रा वे आधी से अधिक दूरी तय कर चुके हैं। 60 कहानियाँ तैयार हैं और वो दिन दूर नहीं जब महाभारत से कुमार विश्वजीत की क़लम से बेहतरीन कहानियों का संग्रह लोगों के हाथों में हो। इसके अलावा वे एक निबंध संग्रह पर भी काम कर रहे हैं।
बिहार के भागलपुर के निकट एक गाँव हैं तेतरी में जन्मे कुमार विश्वजीत के पिताजी शशि भूषण ओझा अंग्रेज़ी के लेक्चरर थे। घर में कठोर अनुशासन था। घर का पूरा महौल पढ़ने लिखने का था। वे स्कूल के लिए जाने के अलावा मुश्किल से घर के बाहर निकल पाते थे।
‘दूसरे बच्चों की तरह बाग-बगीचों और मैदानों में घूमने फिरने की इच्छा को मारना पड़ता। कभी पिताजी के सोते में बाहर निकल भी जाते तो पता चलने पर कड़ी सज़ा मिलती कि दो दिन घर के बाहर ही न निकला जाए। हालाँकि उन्होंने इसके लिए कभी मारा पीटा तो नहीं, लेकिन मानसिक रूप से समझाना चाहते थे कि वे हमारे उस कृत्य से नाराज़ हैं।’
कुमार विश्वजीत को यह बात बाद में समझ में आयी कि सफल जीवन के लिए कुछ पाबंदियाँ ज़रूर होनी चाहिए, लेकिन उन्हें एक मलाल ज़रूर रहा कि पिताजी से बहुत कम शाबासी मिली। ‘मुझे लगता है कि यह बड़ी कमी थी। उस समय माता पिता बहुत खुश भी होते तो बोलते नहीं थे। शायद इस प्रसन्नता से उनका आत्मसम्मान बड़ा होता था। दूसरा मुझे बच्चों की एक दूसरे से तुलना करना भी ग़लत मालूम होता है। हर बच्चे की अपनी क्षमता, अपनी कमज़ोरियाँ और अपनी ताकत होती है, उसकी पहचान कर उसे जीवन में सफलता की ओर अग्रसर करना चाहिए।’
कुमार विश्वजीत के नाम के पीछे भी बड़ी दिलचस्प कहानी है, इसके बारे में वे बताते हैं कि उनके पास लड़के या लड़कियों के नाम के साथ कुमार और कुमारी लगा दिया जाता। उनके नाम के साथ भी कुमार लगा दिया गया। दसवीं का प्रमाण-पत्र हाथ में आया तो पता चला कि वे विश्वजीत झा से कुमार विश्वजीत बन गये हैं। ‘इस बाद में बदलने का प्रयास नहीं किया गया, क्योंकि इस नाम से कोई हानि-लाभ नही था।’
आम तौर पर भारतीय प्रशासनिक या पुलिस सेवा में आने वाले उम्मीदवार कॉमर्स, साइंस, प्रबंधन अथवा आईटी क्षेत्रे के होते हैं, लेकिन विश्वजीत के साथ दिलचस्प बात यह है कि ये संस्कृत के छात्र हैं। उन्होंने संस्कृत से ही ग्रैज्वेशन और इसी से पोस्ट ग्रैज्वेशन भी किया था। जब वो यूपीएससी की परीक्षा दे रहे थे, तो पूरे उम्मीदवारों की सूची में केवल दो लोग ऐसे थे, जो संस्कृत के छात्र थे। पिताजी की ख़्वाहिश के चलते वे आईपीएस तो बने, लेकिन अपनी साहित्यिक रुचि को छोड़ नहीं पाये। वे बताते हैं,
- बचपन से ही लिखने पढ़ने का शौक़ था। कविताएँ और कहानियाँ बहुत पढ़ता था। बड़ी अच्छी लायब्ररी थी, जहाँ, उपन्यास भी खूब होते थे। 7वीं कक्षा में था कि एक कहानी लिखी थी, ‘ खोंचे बनाने वाला’। इस कहानी पर पुरस्कार भी मिला था। मैंने विधिवत संगीत की शिक्षा प्राप्त की थी। पाँच साल तक गुरू सत्यलाल दास श्याम जी से हिंदुस्तानी संगीत सीखा था। इसलिए गायन का शौक भी रहा। गुरूजी की एक ग़ज़ल मैंने रांची रेडियो से भी गायी थी। कॉलेज में जब पता चला कि मैं ग़ज़लें गाता हूँ तो सांस्कृतिक प्रतियोगिताओं में उर्दू विभाग की ओर से मुझे भेजा जाता, जबकि मैं संस्कृत का विद्यार्थी था।
पुलिस सेवा विश्वजीत के लिए पूरी तरह से अलग दुनिया थी। नयी परीस्थितियाँ, नयी चीज़ें, नयी चुनौतियाँ। दस बारह साल बाद उन्हें पुरानी दुनिया के बारे में सोचने का मौका मिला। उन्हें अपने भीतर छुपा साहित्यकार और संगीत प्रेमी उकसाने लगा। उन्होंने साहित्य और संगीत से अपने जीवन में नयापन लाने, रचनात्मकता के साथ जीवन की नयी रचना करने की ओर ध्यान दिया। सेवा में दिन रात के काम से कभी अगर तनाव की स्थिति रहती तो वे उसे साहित्य और संगीत के रियाज़ से दूर करने की कोशिश करते और वे इसमें कामयाब भी रहे। जब भी पुलिस का दिन रात का कोई काम चलता रहता है, उसी बीच कुछ देर के लिए लैपटॉप पर कुछ पंक्तियाँ लिखते तो लगता है कि नयी ऊर्जा मिल गयी है। वे कहते हैं,
- पुलिस और साहित्यकार के जीवन कई बातें अलग-अलग हैं। एक तो भावनात्मक चुनौती होती है। कभी कभार पुलिस के काम में जब अपराधों से सख्ती के साथ निपटना होता है तो संवेदनाओं को मारना होता है अथवा उसपर नियंत्रण पाना अनिवार्य होता है। दर असल जब सेवा में आते हैं तो समाज को आदर्श मानते हैं, लेकिन जैसे जैसे व्यावहारिकता बढ़ती है बदलाव आने लगता है। कई बातें अनुभव से ही पता चलती हैं कि वह संभव है या नहीं। पुलिस में रहते हुए मुझे समाज को अच्छी तरह से समझने का मौका मिला। यहाँ केवल खोखले आदर्श और कोरी कल्पनाएँ नहीं थीं, बल्कि हक़ीक़तें खुली थीं। इनसे साहित्य रचने में काफी सहयोग मिला।
पुलिस अधिकारी के रूप में अपने जीवन की एक यादगार घटना के बारे में कुमार विश्वजीत बताते हैं कि 1997 में एएसपी रहने के दौरान महबूबनगर में एक बस का अपहरण करलिया गया था। 35 लोग बस में थे। अपहरण कर्ता ने सबको मार डालने की धमकी दी थी। बस को जंगल में ले जाकर उसने सभी औरतों से पुरुषों को पेड़ से बांधवाया। फिर खुद सभी औरतों को पेड़ से बांध दिया। उनमें से सभी के पास से आभूषण और नगदी लेकर दो लड़कियों को साथ लेकर फरार हो गया। एक लड़की किसी तरह उसके चंगुल से बचकर भाग निकली और पुलिस तक पहुँची। तत्काल पुलिस की टीमें उन्हें ढूंढने जंगलों में निकल गयीं। कुछ घंटों में पेड़ों से बाँधे लोग तो मिल गये, लेकिन एक लड़की और अपहरणकर्ता नहीं मिल पा रहा था। गहन जाँच जारी रही। चूँकि लोगों से मालूम हुआ था कि अपहरणकर्ता तिरुपति से आया था और उसने अपना मुंडन करवाया था। इसलिए सारे गाँवों में जितने इस तरह के लोग थे, सबकि जाँच की गयी और आखिरकार अपहरणकर्ता को गिरफ्तार कर लिया गया, लेकिन फिर भी लड़की का पता नहीं चल पा रहा था। अपहरणकर्ता ने बताया कि वह भागते हए एक जगह गिरकर घायल हो गयी थी। आखिरकार पुलिस उसे ढूंढने में कामयाब हो गयी। यह ऑपरेशन 36 घंटे तक चला। जब लड़की मिली तो वह गंभीर रूप से घायह हो गयी। उसे एक स्थानीय अस्पताल में ले जाया गया, जहाँ मरहमपट्टी के बाद कहा गया कि इसे तत्काल हैदराबाद के अस्पताल में भर्ती करना पड़ेगा। हैदराबाद में डाक्टरों ने कहा कि यदि लाने में देर हो गयी होती तो उसका पैर काटना पड़ता। बाद में वह स्वस्थ हो गयी।
कुमार विश्वजीत यदि पुलिस में नहीं होते तो निश्चित रूप से मंचों के सफल गायक होते हैं। वे पाँच वर्षों तक अपने गुरूजी के पास शास्त्रीय संगीत सीख चुके हैं। अच्छा गाते भी हैं। अधिकारी और लेखक होने के साथ साथ आज भी वो ग़ज़लों पर रियाज़ भी करते हैं। मीर के कारण ही उन्होंने कई प्रतियोगिताएँ जीतीं।
देख तो दिल कि जाँ से उठता है.. ये धुआँ-सा कहाँ से उठता है ..जैसे शेर लोगों को खूब पसंद आते, लेकिन जब उन्होंने फ़राज़ को गाना शुरू किया और ... रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आ..जैसी ग़ज़लें गायी तो प्रतियोगिता हार गये। ‘इससे मुझे अंदाज़ा हुआ फ़राज के पास खूबसूरत लबो लहजा तो है, लेकिन मीर ज़िंदगी के अनुभवों को काफी गहराई से अपने शेरों में उतारते थे।‘
इन दिनों कुमार विश्वजीत सपन बच्चों के लिए लिखी अपनी कहानियों के लिए लोकप्रिय होते जा रहे हैं। इस बारे में वे बताते हैं, - मेरा यह कानियाँ लिखने का उद्देश्य महाभारत के मूल में छुपी कहानियों के असली संदेश को बाहर निकालना है। गुज़रते समय के साथ-साथ बहुत सारे लोगों ने इससे प्रेरित होकर कहानियाँ लिखी हैं, लेकिन बहुत से लोगों ने इसकी मौलिकता को बनाए नहीं रखा है। मैं चाहता हूँ कि उन कहानियों को पूरी मौलिकता के साथ नयी पीढ़ियों को सौंपू। मैंने अब तक इसके नारी पात्रों पर 40 से अधिक कहानियाँ लिखी हैं और अब इसकी लोककथाओं पर काम जारी है। जहाँ तक समय कि बात है, समय मुश्किल से मिलता है, लेकिन जब भी समय मिलता है, पढ़ने और लिखने का काम चल जाता है।