जयप्रकाश का बिगुल बजा तो जाग उठी तरणाई
आपातकाल को लेकर केवल रस्मी समारोह होते हैं, पर आपातकाल का अंधेरा, उसका दर्द जयप्रकाश नारायण की पीड़ा, राजनीति का बदलाव और भटकाव और आपातकाल से सहानुभूति पाए लोगों द्वारा किए गए कामों का आकलन होता ही नहीं है।
उस समय जयप्रकाश नारायण सहित देश के ज्यादातर बड़े नेता चौधरी चरण सिंह, अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, चंद्रशेखर आदि जेल भेज दिए गए थे।
जार्ज फर्नांडिस विरोध की कोशिश कर रहे थे पर जनता उनसे जुड़ नहीं पा रही थी। तब यह अंदाज़ा ग़लत साबित हुआ कि जनता लोकतंत्र बहाली के लिए सड़कों पर उतर आएगी।
इस देश में जब-जब लोकनायक जयप्रकाश नारायण की याद आएगी, आपातकाल को उखाड़ फेंकने वाली सम्पूर्ण क्रान्ति की स्वतः याद आती रहेगी। लोकनायक का आज (11 अक्टूबर) जन्मदिन है। यह भी उल्लेखनीय होगा कि इसी अक्तूबर माह की आठ तारीख उनकी पुण्यतिथि भी रही है। स्वतंत्रता आंदोलन के बाद जयप्रकाश नारायण की ही आवाज पर देशवासियों ने पहली बार अपने ही राज में आजादी की दूसरी लड़ाई लड़ी थी और कांग्रेस को सत्ता से बेदखल कर लोकतंत्र को पुनर्स्थापित किया था।
भारत के इतिहास में आपातकाल को एक काले अध्याय के रूप में याद किया जाता है। लगभग साढ़े चार दशक पहले 18 मार्च 1974 को जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में पटना (बिहार) में छात्र आंदोलन की शुरुआत हुई थी। करीब एक साल चले इस आंदोलन के दौरान देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था कांग्रेस नेतृत्व और नौकरशाहों के हाथ में गिरवी पड़ गई थी। उस वक्त जयप्रकाश नारायण ने आह्वान किया था-
जयप्रकाश का बिगुल बजा है, जाग उठी तरणाई है
उठो जवानों, क्रांति द्वार पर तिलक लगाने आई है।
आज लोकनायक के उस आंदोलन को याद करना इसलिए भी जरूरी है कि इस बीच देश की वह पीढ़ी जवान हो चुकी है, जिसका आपात काल के दौरान अथवा उसके समाप्त होने के बाद जन्म हुआ था। उसे पता चलना चाहिए कि उसके देश का लोकतंत्र कैसी-कैसी मुश्किलों पर पार पाते हुए आज सही-सलामत है, राज-पाट चलाने वाले उसकी छवि को चाहे जितना कलंकित करते रहे हों। हमारी इस पीढ़ी को इस सवाल का जवाब भी पता होना चाहिए कि भारत में आपातकाल लगा क्यों?
जब जयप्रकाश का बिगुल बजा, बिहार के छात्र आंदोलन पर राजनीतिक दलों का कब्ज़ा हो गया था और यही सबसे बड़ी विडम्बना थी कि इस आंदोलन में लोकनायक जयप्रकाश नारायण इसी शर्त पर शामिल हुए थे कि आंदोलन निर्दलीय रहेगा। उस समय जयप्रकाश नारायण सहित देश के ज्यादातर बड़े नेता चौधरी चरण सिंह, अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, चंद्रशेखर आदि जेल भेज दिए गए थे। उसी आंदोलन से आज के कई बड़े नेताओं शरद यादव, लालू यादव आदि की उत्पत्ति हुई है।
जयप्रकाश आंदोलन में शामिल रहे वरिष्ठ पत्रकार संतोष भारती बताते हैं, जनता आपातकाल का विरोध नहीं कर रही थी। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और दूसरे विपक्षी दलों के स्थानीय नेता खामोश बैठे थे। कुछ सक्रिए गुट थे, जो एकाकी पड़ते जा रहे थे। जार्ज फर्नांडिस विरोध की कोशिश कर रहे थे पर जनता उनसे जुड़ नहीं पा रही थी। तब यह अंदाज़ा ग़लत साबित हुआ कि जनता लोकतंत्र बहाली के लिए सड़कों पर उतर आएगी। आपातकाल के शुरुआती दौर में जनता ने आपातकाल का समर्थन किया पर छह महीने बीतते बीतते उसे प्रशासन और राजनेताओं की ज़्यादती से गुज़रना पड़ा। संभवतः इंदिरा गाँधी के पास ज़्यादती के समाचार पहुँच ही नहीं पा रहे थे क्योंकि उनका सूचना तंत्र पंगु बन चुका था।
संजय गाँधी की भूमिका पर सवाल गरमाने लगे थे। उस दौर में, मूल्यों की ज़्यादा बात होती थी। बुनियादी समस्याएं ज़्यादा उठाई जाती थीं तथा जनता के प्रति प्रतिबद्धता साफ़ साफ़ दिखाई देती थी। जातिवाद, संप्रदायवाद की बातें कहने वाले आम जनता का सम्मान नहीं पाते थे. मज़दूरों, ग़रीबों और वंचितों के आंदोलन संगठित होने की कोशिश करते थे। दरअसल, आपातकाल भारतीय समाज को साफ़-साफ़ विभाजित करता है। हम देख सकते हैं कि आपातकाल से पहले का भारत और आपातकाल के बाद का भारत कैसा है! दुर्भाग्य की बात है कि आपातकाल की आलोचना लोकतंत्र पर प्रहार के लिए होती है, लेकिन आपातकाल के बाद ही सबसे ज़्यादा लोकतांत्रिक मूल्यों का हनन हुआ है।
आपातकाल के दौरान पत्रकारिता भी श्रीहीन हो गई थी पर उसके बाद लगभग दस वर्षों तक अपनी धाक जमा आज वह भी राजनीति के समानांतर ही चल रही है। आपातकाल को लेकर केवल रस्मी समारोह होते हैं, पर आपातकाल का अंधेरा, उसका दर्द जयप्रकाश नारायण की पीड़ा, राजनीति का बदलाव और भटकाव और आपातकाल से सहानुभूति पाए लोगों द्वारा किए गए कामों का आकलन होता ही नहीं है। आपातकाल के दौरान बहुत से ऐसे लोग थे जिन्होंने संघर्ष कर रहे लोगों की मदद की थी पर उन्हें इसका श्रेय मिला ही नहीं। आपात काल में जूझते रहे विजय तेंदुलकर, अमोल पालेकर, डॉ कर्ण सिंह, श्याम बेनेगल, आनंद पटवर्धन, कवि भवानी प्रसाद मिश्र, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, पत्रकार गणेश मंत्री, सुरेंद्र प्रताप सिंह के नाम कभी नहीं भूले जा सकते हैं।
वरिष्ठ पत्रकार राजीव रंजन नाग बताते हैं कि जयप्रकाश नारायण ने अपने जीवनकाल में कई एक महत्वपूर्ण आंदोलनों में सक्रिय भूमिकाएं निभाई थीं। वह, चंबल के चार सौ डाकुओं का समर्पण रहा हो, बिहार में अराजक सत्ता व्यवस्था, कुशिक्षा, अपराध और अराजकता के ख़िलाफ़ ऐतिहासिक छात्र आंदोलन रहा हो अथवा संपूर्ण क्रांति का आह्वान। स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय भागीदारी के लिए झारखंड में हजारीबाग़ की 17 फीट ऊँची जेल की दीवार फाँदकर भागने की घटनाएँ जेपी के व्यक्तित्व की कहानी कहती हैं। दिसंबर 1973 में जेपी ने यूथ फ़ॉर डेमोक्रेसी नामक संगठन बनाया और देशभर के युवाओं से अपील की कि वे लोकतंत्र की रक्षा के लिए आगे आएं।
गुजरात के छात्रों ने जब 1974 में चिमनभाई पटेल की भ्रष्ट सरकार के ख़िलाफ़ आंदोलन शुरू किया तो जेपी वहाँ गए और नवनिर्माण आंदोलन का समर्थन किया। जेपी ने तब कहा था- 'मुझे क्षितिज पर वर्ष 1942 दिखाई दे रहा है।' जून 1975 में गुजरात विधानसभा चुनाव में कांग्रेस हार गई और जनता पार्टी सत्ता पर काबिज हो गई। उसी दिन इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इंदिरा गांधी का चुनाव रद्द कर दिया। उसके बाद कांग्रेस की राजशाही बेलगाम हो चली। विपक्ष ने इंदिरा गांधी से इस्तीफा माँगा। जेपी ने विपक्ष की इस माँग का समर्थन किया। देश में सरकार विरोधी माहौल बना और इंदिरा गांधी का सत्ता में रहना मुश्किल होने लगा। इंदिरा गांधी बुरी तरह बिफर गईं और देश में रातोरात इमरजेंसी लगा दी गई।
अख़बारों का मुँह बंद कर दिया गया और पुलिस को खुली छूट दे दी गई। इमरजेंसी का विरोध न हो, इसके लिए लाखों कार्यकर्ताओं को ज़ेलों में ठूँस दिया गया। इस दौरान संजय गांधी का नसबंदी कार्यक्रम खूब परवान चढ़ा। 19 महीने के काले क़ानून के बाद जनवरी 1977 में इंदिरा गांधी ने आम चुनाव की घोषणा कर दी। जेपी का गुर्दा ख़राब था, लेकिन डायलसिस पर होने के बावजूद उन्होंने चुनाव की चुनौती स्वीकार की। चुनाव में कांग्रेस का सूपड़ा साफ़ हो गया। यहां तक कि इंदिरा और संजय गांधी भी चुनाव हार गए। वर्ष 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के बाद गुजरात और बिहार में व्यवस्था परिवर्तन को लेकर 1974 में शुरू हुआ छात्र आंदोलन आज़ाद भारत के लिए अनोखी घटना थी।