महिला एजेंटों से ‘वसूली’ द्वारा 26 साल की मंजू भाटिया ने की 500 करोड़ से अधिक की रिकवरी
बैंको से कर्ज लेकर न चुकाने वालों से करती हैं वसूलीआठ सालों में की 500 करोड़ से अधिक की रिकवरीदेशभर में 26 आॅफिस और 250 से अधिक महिला रिकवरी एजेंटों का फैला है जालपुरुष प्रधान उगाही के काम को बनाया महिला प्रधान
लोन रिकवरी का काम हमेशा से ही गुंडागर्दी द्वारा किया जाने वाला काम माना जाता है और समाज द्वारा इस काम को करने वालों को अच्छी नजरों से नहीं देखा जाता है। लेकिन इंदौर की रहने वाली 26 वर्षीय मंजू भाटिया ने आमजन की धारणा को न केवल बदला है बल्कि वर्तमान में वे लोन रिकवरी करने वाली देश की बड़ी एजेंसी ‘‘वसूली’’ की ज्वाइंट मैनेजिंग डायरेक्टर हैं। वह मानती हैं कि हर महिला को अपने जीवन को महत्व देते हुए पुरुषों से आगे रहकर काम करना चाहिये।
इंदौर के एक व्यवसाई परिवार में जन्मी मंजू ने 2003 में इंटर की परीक्षा देने बाद ही एक स्थानीय औषधीय कंपनी तूलिका इंटरनेश्नल में रिसेप्शनिस्ट की नौकरी करके अपने करियर की शुरुआत की। ‘‘इंटर की पढ़ाई करते समय ही मैं जीवन में कुछ करना चाहती थी। मैं शुरू से ही सिर्फ किसी की बेटी या पत्नी बनकर नहीं रहना चाहती थी।’’
मंजू ने रिसेप्शनिस्ट की नौकरी करने के साथ ही अपनी स्नातक की पढ़ाई भी पूरी की और अपने काम के प्रति लगन और मेहनत के चलते जल्द ही वे कंपनी के अन्य कामों में भी हाथ बंटाने लगीं। कंपनी के मालिक पराग शाह, जो उनके पारिवारिक मित्र भी थे नें उन्हें कंपनी के एकाउंट्स और माल के खरीद-फरोख्त को देखने का काम भी सौंप दिया।
इसी बीच मंजू के सामने एक आॅफर आया जिसने उनकी जिंदगी ही बदल दी। पराग शाह की दवाओं की कंपनी के अलावा बैंकों के लिये लोन रिकवरी का काम करने की भी एक छोटी से कंपनी ‘‘वसूली’’ भी थी जिसके पास सिर्फ एक ग्राहक ‘स्टेट बैंक आॅफ इंडिया’ था।
‘‘एक दिन पराग शाह ने मुझे वसूली के कामों में हाथ बंटाने को कहा। कंपनी के कामों के बाद भी मेरे पास काफी समय था और मैं भी कुछ नया करना चाहती थी। इसलिये मैंने बिना कुछ सोचे हाँ कर दी।’’
वसूली के साथ अपने पहले अनुभव के बारे में बताते हुए मंजू कहती हैं कि एसबीआई प्रतिमाह उन लोगों को लोन की किश्तें अदा न करने वाले लोगों की एक लिस्ट दे देता था। उनके पास आई लिस्ट में राज्य के एक प्रसिद्ध राजनेता का नाम भी था। ‘‘पराग ने उस नेता से वसूली का जिम्मा मुझे सौंपा मैंने बिना लोन का जिक्र करे उनसे मिलने का समय ले लिया।’’
मंजू आगे जोड़ती हैं कि नौकरी के समय मिले अनुभव के आधार पर उन्हें अंदाजा था कि अक्सर लोग किश्त चुकाने की आखिरी तारीख को भूल जाते हैं। कई बार लोग किसी मजबूरीवश कुछ किश्तों को जमा नहीं कर पाते हैं और बैंक ऐसे में उन लोगों को नाॅन परफार्मिंग ऐसेट (एनपीए) मान लेते हैं और वसूली का काम रिकवरी एजेंटों को सौंप देते हैं।
कुछ ऐसा ही किस्सा उस राजनेता का भी था। मंजू ने जब उनसे मिलकर लोन के बारे में बताया तो उन्होंने अगले ही दिन बैंक का बचा हुआ पैसा चुका दिया और यहीं से मंजू की जिंदगी ने एक यू-टर्न लिया।
मंजू बताती हैं कि इस रिकवरी के बाद उन्हें लगा कि अधिकतर लोग लिया हुआ कर्ज चुकाने की नीयत तो रखते हैं लेकिन बैंक और ग्राहक के बीच संवाद की कमी के कारण कई बार ऐसा होता है कि डिफाॅल्ट की स्थिति आती है। अब मंजू ‘‘वसूली’’ को संभालने के लिये मानसिक रूप से तैयार हो चुकी थीं और उन्होंने आगे जो किया उसने इस बदनाम काम को एक नया मोड़ दे दिया।
‘‘मैं यह देखती थी कि हमारे समाज में महिलाओं को काफी मान-सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है और इसलिये मैंने सोचा कि क्यों न महिलाओं को रिकवरी एजेंट का रूप में अपने साथ काम पर लगाया जाए। इसके दो फायदे होने थे। एक तो कोई हमें गुंडा-बदमाश नहीं बुला सकता था और दूसरा यह कि अगर कोई महिला ‘‘वसूली’’ के लिये जाती तो डिफाॅल्टर को कुछ शर्म आने की संभावना थी।’’
मंजू बताती हैं कि इस काम के लिये उन्हें कुछ अपने जैसी महत्वाकांक्षी और दिलेर लड़किया मिलीं तो उन्होंने ‘‘वसूली’’ के काम को आगे बढ़ाया। शुरुआत के दिनों में सिर्फ पर्सनल लोन के मामले निबटाये जाते थे। इस तरह के कई डिफाल्टरों से उन्होंनेे काफी रकम की वसूली की और जल्द ही उन लोगों को कृषि श्रण की ‘उगाही’ का जिम्मा भी मिल गया। इस उगाही में उन्हें डिफाल्टर के कर्ज लेकर खरीदे हुए वाहन को जब्त करके लाना होता था जो अपने आप में काफी टेढ़ा काम था।
‘‘पहले तो हम लोग कर्जदार को टूटी हुई किश्तों के बारे में बताते। कुछ लोग तो हम लोगों की बातों को समझते और अपनी गलती मानते हुए बची हुई रकम एकमुश्त या किश्तों में जमा करवा देते। कोई सकारात्मक जवाब न मिलने की दशा में हमारा पूरा महिला रिकवरी एजेंटों का दल रात में दस बजे के बाद बाहर निकलता और वाहनों पर कब्जा करके उन्हें यार्ड में ले आता।’’
इस कब्जे के काम को भी मंजू ने पूरे योजनाबद्ध तरीके से अंजाम दिया। भविष्य की चुनौतियों के मद्देनजर उनकी टीम अपने साथ पुलिस को भी लेकर चलती। साथ ही वे इस पूरे आॅपरेशन की वीडियोग्राफी भी करवातीं ताकि कोई बाद में किसी तरह का आरोप लगाए तो उसे जवाब दिया जा सके। एक साल में 1000 से अधिक वाहन कब्जाने के बाद उन्होंने अपने काम को और आगे बढ़ाया।
मंजू आगे बताती हैं कि इसके बाद उनकी कंपनी ने पूरा ध्यान हाउस लोन और काॅर्पोरेट डिफाल्टरों पर पर लगाया और विस्तार करते हुए जयपुर, रायपुर और मुंबई में अपने आफिस खोले। वर्ष 2007 में ‘‘वसूली’’ ने अपना हेडआॅफिस मुंबई में शिफ्ट किया क्योंकि सभी मुख्य बैंको के निर्णायक अधिकारी यहीं बैठते थे।
मुंबई में आने के बाद के दिनों को याद करते हुए मंजू भावुक हो उठती हैं। वे बताती हैं कि, ‘‘प्रारंभ में हमें एक बैंक के डीजीएम ने परखने के लिये सिर्फ 2 खातेदारों से वसूली की जिम्मेदारी दी ओर आज की तारीख में हम उसी बैंक के दो लाख से अधिक मामलों को निबटा रहे हैं। इसके अलावा पूरे देश में हमारी 26 शाखाएं हैं जिनमें 250 महिलाएं एजेंट के रूप में काम कर रही हैं। ’’
मंजू आगे बताती हैं कि वर्तमान में उनकी कंपनी में काम करने वालों में सिर्फ 2 पुरुषों, एक तो जीएम पराग शाह और दूसरे उनके पिता, को छोड़कर सभी महिलाएं हैं। वसूली में शाखा प्रमुख के पद पर उस महिला को नियुक्त किया जाता है जिसने पूर्व में इंदौर या मुंबई के आफिस के बेहतरीन प्रदर्शन किया हो। वसूली को बैंक का पैसा डिफाल्टर से वापस मिलने के बाद कमीशन मिलता है। वर्ष 2011-2012 में कंपनी ने लगभग 500 करोड़ रुपयों के मामले निबटाए जिनमें कमीशन के तौर पर इन्हें करीब 10 करोड़ रुपये मिले।
भविष्य की योजनाओं के बारे में बताते हुए मंजू कहती हैं कि जल्द ही ‘‘वसूली’’ को रिकवरी एजेंसी से बदलकर ‘संपत्ति पुनर्निमाण’ कंपनी बनाने का इरादा है। इसके अलावा वे कानून में डाॅक्टरेट करने की योजना भी बना रही हैं।
अंत में मंजू कहती हैं कि, ‘‘रिकवरी का काम बेहद मुश्किल काम है। अगर आप एक बच्चे से भी उसकी कोई चीज छीनने का प्रयास करें तो वह भी आपका प्रतिरोध करेगा। यहां तो आपको डिफाॅल्टरों के वाहनों के अलावा कईयों के मकान-दुकान पर भी कब्जा करके उन्हें छीनना पड़ा है। लेकिन किसी भी काम में किया गया ईमानदार प्रयास कभी व्यर्थ नहीं जाता और यही प्रयास आपको सफल बनाता है।’’