लड़ रही हैं खासी समुदाय की बेटियां, भर रहीं हुंकार
बेटियां सिर्फ अच्छी नौकरियों और बिजनेस में ही कामयाबी नहीं हासिल कर रहीं बल्कि विभिन्न मोर्चों पर अपने अधिकारों की लड़ाई भी पुरजोर तरीके से लड़ रही हैं। मातृसत्तात्मक परिवारों की खासी समुदाय की बेटियां इन दिनो 'खासी हिल्स ऑटोनॉमस डिस्ट्रिक्ट (खासी सोशल कस्टम ऑफ लाइनेज) एक्ट 1997' के खिलाफ अपनी अवाज बुलंद कर रही हैं।
खासी समुदाय की औरतों की तरह ही केन्या की औरतें अदालतों में खुद अपनी लड़ रही हैं। ये औरतें तलाक, बच्चों की कस्टडी या जीवनयापन भत्ते जैसे मामलों में अदालतों में खुद अपनी पैरवी कर रही हैं क्योंकि उनके पास वकीलों को देने के लिए या तो पैसा नहीं है या फिर वे धोखेबाज वकीलों के चंगुल में नहीं फंसना चाहती हैं।
पितृसत्ता और उत्तराधिकार का प्रश्न सदियों से बहस में है। पितृसत्ता यानी यूनानी शब्द से बना पैट्रियार्की (पैटर:पिता+आर्के:शासन)। भारत समेत पूरी दुनिया में ऐसे कई क्षेत्र हैं, जहां आज भी मातृसत्ता, जहां बेटियों की चलती हैं। जैसे हमारे देश में खासी, गारो और चाम समुदाय। इसी तरह इंडोनेशिया के मिनांगकाबाऊ समुदाय और चीन के मोस समुदाय में भी सिर्फ बेटियों की चलती है। इन क्षेत्रों के स्त्री-समुदायों में औरतों के मसलों पर बेटियों को अपनी आवाज बुलंद करने से कोई नहीं रोक पाता है। संपत्ति पर उन्ही के अधिकार को प्राथमिकता है। इन दिनो संपत्ति के एक ऐसे ही मसले को लेकर खासी समुदाय की औरतें संघर्ष कर रही हैं। पूर्वोत्तर भारत के खासी समुदाय में लड़की के जन्म पर जश्न मनाया जाता है।
लड़कों की पैदाइश सामान्य बात होती है। आमतौर पर परिवार की बड़ी बेटी का परिवार की विरासत पर हक होता है। अगर किसी दंपत्ति के बेटी नहीं होती तो वे लड़की गोद लेकर अपनी जायदाद उसे सौंप देते हैं। खासी समुदाय की इस प्रथा के चलते काफी पुरुषों ने अपने हकों के लिये नये समुदाय बना लिये हैं। इसी तरह भारत के गारो समुदाय के परिवारों में 'मां' शब्द एक सर्वोच्च ओहदे की तरह है। परिवार कि सबसे छोटी बेटी को मां अपनी पारिवारिक जायदाद सौंपती है। दक्षिण भारत के चाम समुदाय भी मातृसत्तात्मक है। परिवार की जायदाद पर सिर्फ महिलाओं का अधिकार होता है। इस समुदाय की बेटियां स्वयं अपने लिए पति चुनती हैं। शादी के बाद लड़के को लड़की के परिवार के साथ रहना होता है।
इस समय मेघालय में मातृसत्तात्मक खासी समुदाय की औरतें जमीन-जायदाद के मालिकाना हक की लड़ाई लड़ रही हैं। हाल ही में मेघालय डिस्ट्रिक्ट काउंसिल ऑफ खासी हिल्स की ओर से खासी हिल्स ऑटोनॉमस डिस्ट्रिक्ट (खासी सोशल कस्टम ऑफ लाइनेज) एक्ट 1997 में संशोधन किया गया है। तभी से ये महिलाएं एक्ट में संशोधन के खिलाफ उठ खड़ी हुई हैं। एक्ट में संशोधन के मुताबिक गैर खासी समुदाय के सदस्यों से शादी करने पर खासी जनजाति की महिलाओं को इस जनजाति के तहत मिलने वाले लाभ नहीं मिलेंगे। खासी समुदाय की कोई भी बेटी, जो गैर खासी समुदाय के लड़के से शादी करेगी, उसे और उनके बच्चों को भी खासी समुदाय में शामिल नहीं माना जाएगा। वे इसके लिए कोई कानूनी दावा भी नहीं कर सकेंगे।
इसके खिलाफ खासी औरतों के उठ खड़े होने से राज्य सरकार ने इस विवादित बिल को अभी मान्यता नहीं दी है। इन आंदोलित खासी औरतों का कहना है कि ये एक्ट उनके अधिकारों का गला घोट देगा। यह सीधे सीधे उनकी स्वतंत्रता पर हमला है। मातृसत्ता को खत्म करने की साजिश है। इस संबंध में मेघालय डिस्ट्रिक्ट काउंसिल ऑफ खासी हिल्स का तर्क है कि ऐसा जनजाति की पहचान को बरकरार रखने के लिए किया जा रहा है। खासी जनजाति में तरह-तरह की शादियां हो रही हैं। ऐसे में जमीन पर इस समुदाय का पारंपरिक स्वामित्व बचाने के लिए यही एक अदद उपाय रह गया है। खासी औरतें इससे कत्तई सहमत नहीं हैं। उनका कहना है कि उनके समुदाय में अलग-अलग समुदायों या जनजातियों में शादियां होना कोई नई बात नहीं है। यह तो सदियों से होता आ रहा है। पितृसत्तात्मक सोच के तहत पुरुष वर्ग नया नियम उन पर थोपना चाहता है। इन आंदोलित खासी औरतों को देश-दुनिया से व्यापक समर्थन मिल रहा है।
खासी समुदाय की औरतों की तरह ही केन्या की औरतें अदालतों में खुद अपनी लड़ रही हैं। ये औरतें तलाक, बच्चों की कस्टडी या जीवनयापन भत्ते जैसे मामलों में अदालतों में खुद अपनी पैरवी कर रही हैं क्योंकि उनके पास वकीलों को देने के लिए या तो पैसा नहीं है या फिर वे धोखेबाज वकीलों के चंगुल में नहीं फंसना चाहती हैं। खास बात ये है कि वे अपने मुकदमे जीत भी रही हैं। महिला वकीलों का संगठन फेडरेशन ऑफ वुमन लॉवयर्स ऑफ केन्या (फीडा) उन्हें कानूनी मदद कर रहा है। विगत लगभग एक दशक में केन्या में सात सौ से ज्यादा महिलाओं ने अपने मुकदमे खुद लड़े हैं। वे आज भी लड़ रही हैं। फीडा के मुताबिक अस्सी प्रतिशत मामलों में औरतों की जीत हुई है। जो महिलाएं अपना केस स्वयं फेस करने में असमर्थ होती हैं, उनका केस फीडा लड़ता है। केन्या में महिलाएं और लड़कियां आज भी भेदभाव का सामना कर रही हैं। यहां की बीस प्रतिशत लड़कियों की शादी कम उम्र में कर दी जाती है।
संयुक्त राष्ट्र महिला संस्था यूएन वुमन का भी कहना है कि यहां की चालीस फीसदी औरते घरेलू हिंसा की शिकार हैं, यद्यपि तीस प्रतिशत परिवार मातृसत्तात्मक हैं। दिक्कत ये है कि मातृसत्तात्मक परिवार तुलनात्मक रूप से ज्यादा गरीब हैं। इसी लिए कम ही महिलाएं अपने खिलाफ हो रहे अन्याय का मुकाबला कर पाती हैं। उनको ये भी नहीं मालूम होता है कि कानूनी मदद के लिए वे क्या करें। फीडा का खुद अपना प्रतिनिधित्व वाला ट्रेनिंग प्रोग्राम तलाक, कस्टडी या निर्वाह भत्ता जैसे आसान दीवानी मुकदमों तक केंद्रित है। यद्यपि फीडा ये भी सिखा रहा है कि पीड़ित औरतें अदालत में कब पहुंचें, कहां बैठें, कैसे कपड़े पहनकर कोर्ट जाएं, जजों के सवालों का वह कैसे जवाब दें, अर्जियां कहां दाखिल करें। फीडा के वकील उनकी अर्जियां तैयार करते हैं।
इंडोनेशिया में चालीस लाख की आबादी वाला मिनांगकाबाऊ समुदाय विश्व का सबसे बड़ा मातृसत्तात्मक समुदाय है। चीन में मातृसत्तात्मक मोस समुदाय में पति और पिता जैसा कोई मसला ही नहीं होता है। यहां के लोग चलते-फिरते वॉकिंग मैरिज पर भरोसा करते हैं। उनसे पैदा बच्चों को पालने की जिम्मेदारी महिलाओं पर होती है। पुरुष सत्तात्मक भारतीय परिवारों की महिलाएं भी अपने अधिकारों की लड़ाई लड़ रही हैं। ऐसी ही लड़ाई लड़ रही रांची (झारखंड) की आलोका कुजूर कहती हैं कि खूंटी में मानव तस्करी एक बड़ी समस्या है। वन अधिकार कानून में महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित नहीं की गई है। इस इलाके में 'डायन' कहकर लाखों महिलाओं की हत्याएं की जा चुकी हैं। इन मुद्दों को उठाना क्या देशद्रोह है? लेकिन यहां की पुलिस ऐसा ही करती है। हम उसके खिलाफ लड़ रहे हैं। हिसार (हरियाणा) में इन दिनो एक आंदोलन का मोर्चा महिलाओं ने संभाल रखा है। वे काले कपड़े पहनकर अनशन पर बैठ रही हैं। महाराष्ट्र की महिलाएं इस बात से क्षुब्ध हैं कि मराठा आरक्षण आंदोलन में, रैलियों में उन्हे पीछे रहने को कहा जा रहा है।
सेल्सगर्ल की नौकरी यानी 8 घंटे काम और मुस्कराते हुए लोगों से मिलना लेकिन बैठने के लिए कुर्सी नहीं, टॉइलेट जाने की इजाजत नहीं। इस 'नहीं' को 'हां' में बदला है केरल की औरतों ने, जो 'बैठने के अधिकार' की लड़ाई लड़ रही थीं। दरअसल, यह हाल देश की तमाम कामकाजी महिलाओं का है, जिन्हें काम के वक्त बैठने की इजाजत नहीं है। यह वर्कप्लेस का वह अमानवीय पहलू है जिसे समाज जानकर भी अनजान है। महिलाओं के ऐसे बुनियादी अधिकार के मुद्दे को वर्ष 2009-10 में कोझिकोड की पलीथोदी विजी ने उठाया था। टेक्सटाइल इंडस्ट्री में काम करने वाली विजी खुद इस समस्या से पीड़ित थीं। उन्होंने पेन्नकुटम यानि महिलाओं का समूह नाम का संघ बनाया। कोझिकोड से शुरू हुआ अभियान अन्य ज़िलों में भी फैलने लगा। विजी ने ठान लिया कि वह कानून बनवाएंगी जिसमें कामकाजी महिलाओं को 'बैठने का अधिकार' मिले। इस अधिकार के लिए वर्ष 2015 तक मामला नेशनल ह्यूमन राइट कमीशन के पास पहुंच गया। फिर केरल सरकार को इसके लिए नियम तय करने के निर्देश दिए गए। सरकार ने महिलाओं को उनके काम करने की जगह पर रेस्ट रूम की सुविधा देने के निर्देश दे दिए हैं।
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