दुष्यंत कुमार की एक और कृति का इंतजार
यदा-कदा ऐसी भी नौबत आ जाती है, जब सरकार और साहित्यकार आमने-सामने आ जाते हैं। निकट अतीत में एक ऐसा ही वाकया हुआ मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में, जहां दुष्यंत कुमार पांडुलिपि संग्रहालय के उजड़ने का संकट पैदा हो गया। दरअसल, सरकार का मानना था कि शहर के सुंदरीकरण की राह में पांडुलिपि संग्रहालय स्थल आड़े आ रहा है।
इस मसले पर सरकार की शहर के कवि-साहित्यकारों से ठन गई। आखिरकार बात बनी, पांडुलिपि संग्रहालय पर बुल्डोजर नहीं चला। गौरतलब है कि दुष्यंत कुमार स्मारक पांडुलिपि संग्रहालय कोई ऐसा-वैसा स्थल नहीं, यह एक तरह से देश के कवि- साहित्यकारों का तीर्थस्थल है।
इस संग्रहालय में डॉ. हरिवंश राय बच्चन, क्षेमचन्द्र सुमन, भवानी प्रसाद मिश्र, रामधारी सिंह दिनकर, रामकुमार वर्मा, डॉ. शिवमंगल सिंह सुमन, जगदीश गुप्त आदि के सौ से अधिक हस्तलिखित पत्र ही नहीं, काका हाथरसी का टाइपराइटर, शिवमंगल सुमन की कलम, माखनलाल चतुर्वेदी की दरी, नरेश मेहता की छड़ी, दुष्यंत कुमार की वह जैकेट, जिसे पहनकर उन्होंने अपने जीवन के आखिरी कविसम्मेलन में रचना पाठ किया था, उनके लोकप्रिय गजल संग्रह 'साए में धूप' की पूरी पांडुलिपि, उनके हाथ से लिखी उनकी आवासीय नेम प्लेट, उनकी ऑरिजनल बैंक पासबुक, घड़ी आदि भी यहां संग्रहित हैं।
यदा-कदा ऐसी भी नौबत आ जाती है, जब सरकार और साहित्यकार आमने-सामने आ जाते हैं। निकट अतीत में एक ऐसा ही वाकया हुआ मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में, जहां दुष्यंत कुमार पांडुलिपि संग्रहालय के उजड़ने का संकट पैदा हो गया। दरअसल, सरकार का मानना था कि शहर के सुंदरीकरण की राह में पांडुलिपि संग्रहालय स्थल आड़े आ रहा है। इस मसले पर सरकार की शहर के कवि-साहित्यकारों से ठन गई। आखिरकार बात बनी, पांडुलिपि संग्रहालय पर बुल्डोजर नहीं चला। गौरतलब है कि दुष्यंत कुमार स्मारक पांडुलिपि संग्रहालय कोई ऐसा-वैसा स्थल नहीं, यह एक तरह से देश के कवि- साहित्यकारों का तीर्थस्थल है।
इस संग्रहालय में डॉ. हरिवंश राय बच्चन, क्षेमचन्द्र सुमन, भवानी प्रसाद मिश्र, रामधारी सिंह दिनकर, रामकुमार वर्मा, डॉ. शिवमंगल सिंह सुमन, जगदीश गुप्त आदि के सौ से अधिक हस्तलिखित पत्र ही नहीं, काका हाथरसी का टाइपराइटर, शिवमंगल सुमन की कलम, माखनलाल चतुर्वेदी की दरी, नरेश मेहता की छड़ी, दुष्यंत कुमार की वह जैकेट, जिसे पहनकर उन्होंने अपने जीवन के आखिरी कविसम्मेलन में रचना पाठ किया था, उनके लोकप्रिय गजल संग्रह 'साए में धूप' की पूरी पांडुलिपि, उनके हाथ से लिखी उनकी आवासीय नेम प्लेट, उनकी ऑरिजनल बैंक पासबुक, घड़ी आदि भी यहां संग्रहित हैं। दुष्यंत कुमार की पुण्यतिथि पर हर वर्ष संग्रहालय की ओर से देश के किसी-न-किसी प्रतिष्ठित साहित्यकार को सम्मानित किया जाता है।
समकालीन हिन्दी कविता, विशेषकर हिन्दी ग़ज़ल के क्षेत्र में जो लोकप्रियता कालजयी कवि दुष्यंत कुमार को मिली, विरले को नसीब होती है। गज़लों की अपार लोकप्रियता ने उनकी अन्य विधाओं को नेपथ्य में डाल दिया। उनका जन्म बिजनौर (उ. प्र.) के गांव राजपुर नवादा में हुआ था। उनका पूरा नाम दुष्यंत कुमार त्यागी था। वह पहले दुष्यंत कुमार 'परदेशी' के नाम से लिखा करते थे। इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पढ़ाई के दिनो में मनमौजी दुष्यंत की डॉ. हरिवंशराय बच्चन, कथाकारद्वय कमलेश्वर और मार्कण्डेय से गाढ़ी दोस्ती रही। जिस साल 1975 में उनका निधन हुआ, उसी वर्ष अमिताभ बच्चन को उन्होंने फिल्म 'दीवार' से उनका फैन हो जाने पर पत्र लिखा था। यह दुर्लभ पत्र उनकी पत्नी राजेश्वरी ने उन्हीं के नाम से स्थापित 'दुष्यंत कुमार स्मारक, पांडुलिपि संग्रहालय' (भोपाल, मध्यप्रदेश) को सौंप दिया। हिन्दी साहित्य की धरोहरें इस संग्रहालय में सहेजी जा रही हैं, जिन्हें देखकर लगता है कि यहां मानो साहित्य का एक पूरा युग जीवंत हो उठा हो।
भोपाल के कवि एवं संग्रहालय के अध्यक्ष अशोक निर्मल बताते हैं कि इसकी स्थापना सन् 1990 में एक निजी मकान में की गई थी। उसके बाद वर्ष 2000 में शासन से आवंटित भवन में यह पुनर्स्थापित हुआ। इस संग्रहालय में पिछले 12 वर्षों से लगातार प्रतिवर्ष 30 दिसंबर (दुष्यंत कुमार की पुण्यतिथि) को देश के किसी न किसी वरिष्ठ कवि-साहित्यकार को 'दुष्यंत अलंकरण' से सम्मानित किया जाता है। अब तक कन्हैयालाल नंदन, निदा फाजली, अशोक चक्रधर, चित्रा मुद्गल, लीलाधर मंडलोई, अदम गोंडवी, गोपालदास नीरज, ज्ञान चतुर्वेदी, प्रेम जनमेजय, आलोक श्रीवास्तव आदि को 'दुष्यंत अलंकरण' से समादृत किया जा चुका है। विगत 27 अगस्त को बुजुर्ग नवगीतकार राम अधीर को कवि मुरारीलाल गुप्त गीतेश, मयंक श्रीवास्तव, शिवकुमार अर्चन, रमेश यादव, ममता बाजपेयी आदि के हाथों संग्रहालय की ओर से सम्मानित किया गया। राम अधीर पहले 'नवभारत' दैनिक अखबार में पत्रकार थे। अब विगत पंद्रह वर्षों से संकल्प-रथ नाम से स्वयं की पत्रिका अनवरत निकाल रहे हैं।
कवि निर्मल बताते हैं कि राजुरकर राज संग्रहालय के वर्तमान निदेशक हैं। संग्रहालय में डॉ. हरिवंश राय बच्चन, क्षेमचन्द्र सुमन, भवानी प्रसाद मिश्र, रामधारी सिंह दिनकर, रामकुमार वर्मा, डॉ. शिवमंगल सिंह सुमन, जगदीश गुप्त आदि के सौ से अधिक हस्तलिखित पत्र संग्रहित हैं। इतना ही नहीं, इस संग्रहालय में में देश के अनेकशः साहित्यकारों की कलम, छड़ी, कपड़े आदि भी सहेजे हुए हैं। दुष्यंत कुमार जिस जैकेट को पहनकर अपने जीवन के आखिरी कविसम्मेलन में रचना पाठ किया था, वह भी यहां की धरोहरों में शुमार है। उनके लोकप्रिय संग्रह 'साए में धूप' की तो पूरी पांडुलिपि और उनके हाथ से लिखी उनकी आवासीय नेम प्लेट, उनकी ऑरिजनल बैंक पासबुक, उनकी घड़ी आदि भी यहां रखी हुई हैं। बालकवि बैरागी ने संग्रहालय को काका हाथरसी का वह टाइपराइटर उपलब्ध कराया, जिस पर वह लिखा करते थे। इसके अलावा शिवमंगल सुमन की कलम, माखनलाल चतुर्वेदी की दरी, नरेश मेहता की छड़ी आदि से संग्रहालय गौरवान्वित होता है।
गीत, मुक्तक, रूबाई, गजल और मुक्तछंद की शैली में नई कविता लिखते हुए भी बहुमुखी प्रतिभा वाले दुष्यंत एक ऐसे बहुदर्शी गद्य लेखक के रूप में हिंदी पाठक के समक्ष आते हैं, जिन्होंने गद्य की लगभग तमाम विधाओं में लिखा और हिंदी गद्य-लेखन को कुछ उल्लेखनीय रचनांए दीं। निःसंदेह ये सब रचनावली में पहली-पहली बार पुस्तकाकार आ रही हैं, जिससे कवि दुष्यंत की गद्य-प्रतिभा के अनेक उदाहरण उनके पाठकों को चमत्कृत करेंगे। रूपक, साक्षात्कार, व्यक्तिचित्र, संस्मरण, निबंध, आलोचना एवं साहित्यिक टिप्पणियों के अलावा दुष्यंत ने कुछेक साहित्यिक लतीफों और मौज-मस्ती के किस्सों को भी लिखा, जिससे उनकी तबीयत की रंगीनी और बेवाख़्ता अंदाज़ का पता लगता है।
दुष्यंत कुमार ने आकाशवाणी दिल्ली से भोपाल तक अपनी सेवाएं देते हुए बहुतेरे रेडियो रूपकों की रचना की, जिन्हे इस आधार पर काफी़ सराहना मिली कि वे अपने श्रोताओं को एक नए अनुभव संसार में ले जाते हैं। अछूते, नए-नए अनुभवों को अभिव्यक्ति देना दुष्यंत के लेखक का स्वभाव था। पुराने और जाने-पहचाने की पुनरावृत्ति से कहीं अधिक रुचि वह ताजे़ और नए में लेते थे, जो उनमें भरपूर ऊर्जा का संचार कर दिया करता था। इन रूपकों में एक अंश उस उपयोगी लेखन का भी मिलेगा, जिसे हम ललित गद्य की श्रेणी में भले न रख सकें, पर उपयोगी गद्य वह है, इसे तो मानेंगे ही। आकाशवाणी की अपनी नौकरी के दौरान उन्हें कुछ साक्षात्कार भी लेने ही पड़ते थे। इन साक्षात्कारों की शैली बेहद सहज, अनौपचारिक और सामाजिक-राष्ट्रीय नवजागरण से मूल्यवत्ता लिए होती थी, जिनमे लेखक दुष्यंत की अपने ज़माने की समझ, जागरूकता, जीवन संबंधी खुली किंतु मर्यादित सोच और सभ्यता के विकास की विभिन्न गतियों और रूपों का अंदाज होता है। इनमें से कुछेक साक्षात्कार ऐसे भी हैं, जो कई जाने-माने लेखकों से हमारा निकट का परिचय कराते हैं।
बातचीत की अनौपचारिक शैली, स्वाभाविक सटीक सादा गद्य और जीवन के ज़रूरी मुद्दों का विमर्श इन साक्षात्कारों की विषेषता कही जा सकती है। गद्यकार दुष्यंत ने कुछ अत्यंत मार्मिक और गंभीर व्यक्ति-चित्र रेखांकन भी हिंदी गद्य को दिए हैं। व्यक्तियों की अद्वितीय विलक्षणताएं, उनके स्वभाव की छिपी हुई खूबसूरती और लोकविदित गुणवत्ता को निहारकर उन्होंने अपनी जीवन शैली में जिस तरह परोसा है, उस आधार पर यह कहना जरूरी हो जाता है कि इस सर्जक में जीवन को देखने की एक दिलचस्प और जीवंत निगाह है, जो किसी भी रूप में न तो कहीं से औपचारिक और संकोचग्रस्त है और न ही पूर्वाग्रहजनित। यह लेखक चारों ओर से खुला हुआ है, एक सीमाहीन विस्तृत आकाश की तरह। मानव स्वभाव की अनेकानेक भंगिमाओं, गतियों की सूक्ष्मतम परछाइयों पर इसकी बारीक़ निगाह यह सूचित करती है कि लेखक का जीवन बोध अप्रतिहत एवं दृष्टि अबाध थी।
इन गद्य कृतियों में एक शिल्पहीन शिल्प की ऐसी सरसता और पठनीयता है कि हमारी दिलचस्पियां जाग उठती हैं और हम इनकी दुनिया में बगैर किसी कोशिश के रमने लग जाते हैं। गद्य लेखक दुष्यंत ने कुछेक राजनीतिक लेखन अपने छद्म नाम 'डीकेटी' से किया है। इसमें वे मध्य प्रदेश शासन, उसके मंत्रियों, सरकारी विभागों, संस्कृति एवं भाषा नीतियों के संदर्भ में कुछ बेहद बेलौस, धारदार टिप्पणियां करते हैं। दुष्यंत जैसे लेखक बताते हैं कि अभिव्यक्ति के ख़तरों से खेलने की अदाएं कितनी हो सकती हैं।
उन्होने अपनी पहली समीक्षा ‘नई कहानी’ 1954 में लिखी, जो हैदराबाद से प्रकाशित होने वाली पत्रिका ‘कल्पना’ के जनवरी, 1955 के अंक में प्रकाशित हुई। आज यह ‘नई कहानी’ समीक्षा का ऐतिहासिक दस्तावेज़ बन चुकी है। कवि-आलोचकों की एक बिरादरी हमेशा से रही आई है।
दुष्यंत अपनी अनेक समीक्षाओं के आधार पर इसे प्रमाणित करते हैं। तत्कालीन पत्र-पत्रिकाओं में रिव्यू लिखना, उस माध्यम से अपनी गंभीर आलोचकीय प्रतिक्रियाएं रेखांकित कर अपने आलोचनात्मक विवके का परिचय देना वे इनके माध्यम से करते ही रहे हैं। पर यह भी सही है कि वे किसी स्वतंत्र और पूर्णकालिक समीक्षक का दायित्व शायद ही कभी निभा पाए हों। यही कारण है कि उनकी कुछ बेहद महत्वपूर्ण समीक्षाएं भी हिंदी समीक्षा के पाठकों की निगाह से ओझल होकर रह गई। याद करने में हर्ज़ नहीं है कि जब बीसवीं सदी के सातवें दशक में प्रसिद्ध कथा समीक्षक देवीशंकर अवस्थी उन दिनों की गई श्रेष्ठ और सर्वोत्तम समीक्षाओं का प्रतिनिधि संकलन ‘विवेक के रंग’ नाम से भारतीय ज्ञानपीठ के लिए संपादित कर रहे थे, दुष्यंत की मौजूदगी उसमें अनिवार्य मानी गई और वे संपादक द्वारा एक प्रतिष्ठित समीक्षक के रूप में बाकायदा चुने गए।
आज यह सोचकर हैरत होती है, दंग रह जाना पड़ता है कि दुष्यंत में कितनी जबर्दस्त रचनात्मक ऊर्जा थी, क्योंकि वे एक अजस्त्र स्त्रोत की तरह निरंतर तरह-तरह से बहते रहते थे। घर-गृहस्थी, ऑफिस, बाजार, नाते-रिश्ते, लोक-व्यवहार की तरह-तरह की पुकारों और जरूरतों की आपाधापी के बीच वे किस तरह अपने लेखक का एकांत पाते थे और कैसे वे एक आम आदमी की तरह-तरह की लड़ाइयां लड़ते हुए एक गतिशील लेखक की तरह एक विधा से दूसरी विधा, एक शैली से दूसरी शैली, एक गंभीर किंतु क्षोभकारी अनुभव से दूसरे प्रसन्न, हलके-फुलके, दिलचस्प जीवन के अनुभव तक आया-जाया करते थे। क्या वे सचमुच एक ऐसे घुड़सवार थे, जो हमेशा घोड़े की पीठ पर ही रहा करता? उसी पर खाना-पीना, और फिर एड़ लगाकर युद्धक्षेत्र की ओर कूच कर जाना। दुष्यंत सचमुच क्या यही थे? सोचना ही पड़ता है, सचमुच दुष्यंत क्या यही नहीं थे?
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