भोजपुरी के 'शेक्सपीयर' भिखारी ठाकुर
लोक कलाकार, लेखक, कवि, निर्देशक भिखारी ठाकुर के जन्मदिन पर विशेष...
लोक कलाकार, लेखक, कवि, निर्देशक भिखारी ठाकुर को 'भोजपुरी का शेक्सपीयर' कहा जाता है। राहुल सांकृत्यायन ने उनको 'अनगढ़ हीरा' कहा है और जगदीशचंद्र माथुर ने 'भरत मुनि की परंपरा का कलाकार'। 18 दिसंबर उनका जन्मदिन होता है...
"अखियन में लोर, बंद होखे जुबान, खूब पिटे सब थपरी, धयिके किसिम किसिम के रूप जब मंच पर चढ़े भिखारी..."
उनकी यह लोकोन्मुखता हमारी भाव-संपदा को और जीवन के संघर्ष और दुख से उपजी पीड़ा को एक संतुलन के साथ प्रस्तुत करती है। वे दुख का भी उत्सव मनाते हुए दिखते हैं। वे ट्रेजेडी को कॉमेडी बनाए बिना कॉमेडी के स्तर पर जाकर प्रस्तुत करते हैं।
'भोजपुरी के शेक्सपीयर' भिखारी ठाकुर समर्थ लोक कलाकार होने के साथ ही रंगकर्मी, लोक जागरण के सन्देश वाहक, नारी विमर्श एवं दलित विमर्श के उद्घोषक, लोक गीत तथा भजन कीर्तन के अनन्य साधक भी रहे हैं। वह बहुआयामी प्रतिभा के लोक कलाकार थे। एक साथ कवि, गीतकार, नाटककार, नाट्य निर्देशक, लोक संगीतकार और अभिनेता थे। उनकी मातृभाषा भोजपुरी थी और उन्होंने भोजपुरी को ही अपने काव्य और नाटक की भाषा बनाया। राहुल सांकृत्यायन ने उनको 'अनगढ़ हीरा' कहा तो जगदीशचंद्र माथुर ने 'भरत मुनि की परंपरा का कलाकार'। भिखारी ठाकुर जीवन भर सामाजिक कुरीतियों और बुराइयों के खिलाफ कई स्तरों पर जूझते रहे। उनके अभिनय एवं निर्देशन में बनी भोजपुरी फिल्म 'बिदेसिया' आज भी लाखों-करोड़ों दर्शकों के बीच पहले जितनी ही लोकप्रिय है।
उनके निर्देशन में भोजपुरी के नाटक 'बेटी बेचवा', 'गबर घिचोर', 'बेटी वियोग' का आज भी भोजपुरी अंचल में मंचन होता रहता है। इन नाटकों और फिल्मों के माध्यम से भिखारी ठाकुर ने सामाजिक सुधार की दिशा में अदभुत पहलकदमी की। वह मूलतः छपरा (बिहार) के गांव कुतुबपुर के एक हज्जाम परिवार में जन्मे थे। फिल्म विदेशिया की ये दो पंक्तियां तो भोजपुरी अंचल में मुहावरे की तरह आज भी गूंजती रहती है-
हँसि हँसि पनवा खीऔले बेईमनवा कि अपना बसे रे परदेस।
कोरी रे चुनरिया में दगिया लगाई गइले, मारी रे करेजवा में ठेस!
भिखारी ठाकुर के व्यक्तित्व में कई आश्चर्यजनक विशेषताएं थीं। मात्र अक्षर ज्ञान के बावजूद पूरा रामचरित मानस उन्हें कंठस्थ था। शुरुआती जीवन में वह रोजी रोटी के लिए अपना घर-गांव छोडकर खडगपुर चले गए। कुछ वक्त तक वहां काम-काज में लगे रहे। तीस वर्षों तक उन्होंने अपना पुश्तैनी पारंपरिक पेशा भी नहीं छोड़ा। अपने गाँव लौटे तो लोक कलाकारों की एक नृत्य मंडली बनाई। रामलीला करने लगे। उनकी संगीत में भी गहरी अभिरुचि थी। सुरीला कंठ था। सो, वह कई स्तरों पर कला-साधना करने के साथ साथ भोजपुरी साहित्य की रचना में भी लगे रहे। उन्होंने कुल 29 पुस्तकें लिख डालीं। आगे चलकर वह भोजपुरी साहित्य और संस्कृति के समर्थ प्रचारक और संवाहक बने। विदेशिया फिल्म से उन्हें अपार प्रसिद्धि मिली। आजादी के आंदोलन में भी उन्होंने अपने कलात्मक सरोकारों के साथ शिरकत की। अंग्रेजी राज के खिलाफ नाटक मंडली के माध्यम से जनजागरण करते रहे। इसके साथ ही नशाखोरी, दहेज प्रथा, बेटी हत्या, बालविवाह आदि के खिलाफ अलख जगाते रहे। यद्यपि बाद में अंग्रेजों ने उन्हें रायबहादुर की उपाधि दी।
भिखारी ठाकुर के लिखे प्रमुख नाटक हैं - बिदेशिया, भाई-विरोध, बेटी-वियोग, कलियुग-प्रेम, राधेश्याम-बहार, बिरहा-बहार, नक़ल भांड अ नेटुआ के, गबरघिचोर, गंगा स्नान (अस्नान), विधवा-विलाप, पुत्रवध, ननद-भौजाई आदि। इसके अलावा उन्होंने शिव विवाह, भजन कीर्तन: राम, रामलीला गान, भजन कीर्तन: कृष्ण, माता भक्ति, आरती, बुढशाला के बयाँ, चौवर्ण पदवी, नाइ बहार आदि की भी रचनाएं कीं।
भिखारी ठाकुर का पूरा रचनात्मक संसार लोकोन्मुख है। उनकी यह लोकोन्मुखता हमारी भाव-संपदा को और जीवन के संघर्ष और दुख से उपजी पीड़ा को एक संतुलन के साथ प्रस्तुत करती है। वे दुख का भी उत्सव मनाते हुए दिखते हैं। वे ट्रेजेडी को कॉमेडी बनाए बिना कॉमेडी के स्तर पर जाकर प्रस्तुत करते हैं। नाटक को दृश्य-काव्य कहा गया है। अपने नाटकों में कविताई करते हुए वे कविता में दृश्यों को भरते हैं। उनके कथानक बहुत पेचदार हैं- वे साधारण और सामान्य हैं, पर अपने रचनात्मक स्पर्शों से वे साधारण और बहुत हद तक सरलीकृत कथानक में साधारण और विशिष्ट कथ्य भर देते हैं। वह यह सब जीवनानुभव के बल पर करते हैं।
वे इतने सिद्धहस्त हैं कि अपने जीवनानुभवों के बल पर रची गई कविताओं से हमारे अंतरजगत में निरंतर संवाद की स्थिति बनाते हैं। दर्शक या पाठक के अंतरजगत में चल रही ध्वनियां-प्रतिध्वनियां, एक गहन भावलोक की रचना करती हैं। यह सब करते हुए वे संगीत का उपयोग करते हैं। उनका संगीत भी जीवन के छोटे-छोटे प्रसंगों से उपजता है और यह संगीत अपने प्रवाह में श्रोता और दर्शक को बहाकर नहीं ले जाता, बल्कि उसे सजग बनाता है। 'विदेसिया' में गूंजता यह गीत आज भी हमे माटी की महक से सराबोर कर जाता है-
गवना कराइ सैंया घर बइठवले से,
अपने लोभइले परदेस रे बिदेसिया।।
चढ़ली जवनियाँ बैरन भइली हमरी रे,
के मोरा हरिहें कलेस रे बिदेसिया।।
दिनवाँ बितेला सइयाँ वटिया जोहत तोरा,
रतिया बितेला जागि-जागि रे बिदेसिया।।
घरी राति गइले पहर राति गइले से,
धधके करेजवा में आगि रे बिदेसिया।।
आमवाँ मोररि गइले लगले टिकोरवा से,
दिन-पर-दिन पियराय रे बिदेसिया।।
एक दिन बहि जइहें जुलमी बयरिया से,
डाढ़ पात जइहें भहराय रे बिदेसिया।।
भभकि के चढ़लीं मैं अपनी अँटरिया से,
चारो ओर चितवों चिहाइ रे बिदेसिया।।
कतहूँ न देखीं रामा सइयाँ के सूरतिया से,
जियरा गइले मुरझाइ रे बिदेसिया।।
दलसिंगार ठाकुर के दो पुत्र हुए- भिखारी ठाकुर और बहोर ठाकुर। भिखारी के एक ही पुत्र हुए-शिलानाथ ठाकुर। भिखारी ठाकुर के बाद उनके पुत्र शिलानाथ ने 'नाच मंडली' चलायी, जिनकी परम्परा का निर्वाह उनके तीन पुत्रों ने भी किया। यानी भिखारी ठाकुर के खास पोते-राजेन्द्र ठाकुर, हीरालाल और दिनकर। वे सभी भिखारी ठाकुर की तरह तमाशा के साथ गीत भी खुद ही लिखते थे। दिनकर ठाकुर के लिखे गीत- 'भोजपुरी के उमरिया आ लरिकाई' और 'मालिक जी महानमा ये लोगे जानेला जह्नमा ना' आज भी मशहूर है। राजेन्द्र ठाकुर का वंश नहीं चला। केवल दो लड़कियां हुईं, जो ससुराल चली गयीं। हीरालाल के दो पुत्र हुए-रमेश और मुन्ना। इन लोगों ने नौकरी करना पसंद किया।
भिखारी के तीसरे पोते दिनकर जवानी (केवल 28 साल की उम्र) में ही चल बसे। उनका एकमात्र बेटा यानी भिखारी के खास पोते- सुशील जितने सुन्दर और जवान हैं, उतने ही पढ़े-लिखे और विद्वान भी। वे प्रथम श्रेणी में एम.ए. पास हैं, पर अविवाहित और बेरोजगार हैं। कहते हैं- नौकरी के बाद ही शादी करूँगा। भिखारी के भाई बहोर ठाकुर के दो पुत्र हुए- गौरीशंकर ठाकुर और रघुवर ठाकुर। गौरीशंकर ठाकुर ने नाच की परम्परा जारी रखी। इनके दो पुत्र हुए-मुनेश्वर ठाकुर और वेद प्रकाश। इन लोगों ने नाच-तमाशा को छोड़कर खेती-बारी और अपना पुश्तैनी धंधा ही पसंद किया। मुनेश्वर ठाकुर के चार पुत्र हैं- बिंदोश ठाकुर, धीरन ठाकुर, रीतेश और करण ठाकुर। करण प्राईवेट नौकरी करते हैं। रघुवर ठाकुर के दो पुत्र- मनोज और साधू ठाकुर। मनोज सरकारी नौकरी में हैं। साधू ठाकुर के तीन लड़के हैं-जितेन्द्र, प्रेमधर और विजय। इनमें से अधिकांश दरवाजे पर ही मिल गये। इनकी माली हालत अच्छी नहीं है। वे अपना पुश्तैनी धंधा और मजदूरी करके जीविका चलाते हैं।
भिखारी ठाकुर के नाच आज भी चलते हैं। उनकी मंडली बचे हुए पुराने और कुछ नए कलाकारों के साथ उसी धूम-धड़ाके और शैली के साथ नाच चलानेवाले भिखारी के दो सरबेटे हैं- भृगुनाथ ठाकुर और प्रभुनाथ ठाकुर। भिखारी ने अपने साले को भी अपनी नाच मंडली में शामिल कर लिया था। उनके साले के तीन बेटों में सबसे बड़े रामजतन ठाकुर अब नहीं रहे। भृगुनाथ ठाकुर और प्रभुनाथ ठाकुर की उम्र भी क्रमश: 70 और 65 साल है। सच पूछा जाये तो भिखारी ठाकुर की नाच परम्परा को जीवित रखनेवाले ये ही लोग हैं, जो बचपन से ही भिखारी ठाकुर के घर में ही रहे। आज भी हैं। भिखारी ने इन्हें अपने पुत्र की तरह पाला-पोषा। इन्हीं लोगों की मदद से हमने भिखारी ठाकुर के पुराने कलाकारों से मुलाकात की। वे सुबह से शाम तक हमारी गाड़ी में बैठकर कलाकारों के घर घुमाते रहे।
भिखारी ठाकुर के नाटक 'बिदेसिया' के कलाकार लखीचंद माझी ग्राम-इटहिया (छपरा, बिहार) में रहते हैं। उन्होंने प्यारी सुन्दरी का किरदार निभाया है। अपनी ऐतिहासिक भूमिका में ये देश-विदेश घूम चुके हैं। आज भी वे इसी भूमिका में भिखारी ठाकुर के नाटक 'विदेसिया' में सक्रिय हैं। कुछ अन्य भूमिकाओं में भी सक्रिय रहे हैं। 'बेटी बेचवा' और 'गबरघिचोर' में महतारी, 'भाई विरोध' में 'बडकी गोतनी' आदि की भूमिका निभानेवाले इस अमर कलाकार ने आग्रह करने पर सबके सामने विदेसिया का एक चर्चित गीत सुनाया-'पियबा गईले कलकतवा ये सजनी''। लगभग 70 साल की उम्र में भी भोजपुरी की वही मौलिक मिठास उनके कंठ से बरसती है। उन्हें देख-सुनकर मन-प्राण पुलकित हो गए।
'बिदेसिया' नाच में 'रंडी' की भूमिका निभानेवाले रामचंद्र मांझी (बड़का), ग्राम-तिजारपुर, जिला-छपरा अभी जिन्दा ही नहीं, जीवन्त भी हैं। वे अकेले जीवित कलाकार हैं, जो शुरू से लेकर अन्त तक 'भिखारी ठाकुर' के नाच में सक्रिय रहे। लगभग 90 साल की उम्र में भी वे 60 -से दिखते हैं। और अब भी नाच करने जाते हैं। आवाज और लय की खनक और मस्ती वैसी ही है। उम्र का राज पूछने पर बताते हैं- 'बाबू साहेब, नचनिया लोग जल्दी बूढ़ा ना होखे, काहे से उनकर काम योग आ तपस्या से कम नईखे। दिन-रात नचते-नचते हुनकर बोटी-बोटी बरियार हो जाला। देह छरहर आ उमर लमहर। पातर छयुंकी नियन कोमल आ काठ लेखा बरियार। ऊ फुर्ती बाबा रामदेव के जोग में ना ह।'
भिखारी ठाकुर का अधिकांश समय इन्ही रामचंद्र के बाहरी दालान में बीता था, जहाँ समाजी रियाज करते थे। रामचन्द्र बताते हैं- 'गाछी में खाना बनता था, लेकिन सब जात के लोग के भंसा सब जगह, इहाँ तक कि दुसाध के अलग, चमार के अलग। इतना छुआछूत रहे। मालिक (भिखारी ठाकुर) केतनो कहस, मगर लोग माने न। बाकिर मालिक जब अपना घर पर खाना खिलाते, त सब लोग साथै खाते।' इन मुलाकातों के दौरान ही पता चला कि भिखारी ठाकुर जीवन भर कभी खाट-चौकी पर नहीं। अपने पुश्तैनी मकान की जमीन पर ही चटाई-चादर बिछाकर सोते रहे।
रामचन्द्र ने भिखारी ठाकुर के सभी नाटकों में नाचा, गाया और पाठ किया मगर हमेशा औरत का ही किरदार निभाया। आज भी वे केंद्र सरकार या प्रांतीय सरकार की कला-संस्कृति विभाग की ओर से नाचते हैं, तो उसी भूमिका में। वे भिखारी ठाकुर के नाटकों के मौलिक कलाकार हैं। आज उनके पास अपनी जमीन, खेती-बारी और माल-मवेशी हैं।
वे बताते हैं- 'मालिक के नाच ने हमें इज्जत, दौलत और शोहरत- सब कुछ दिया। इसलिए मरते दम तक हम इस कला को नहीं छोड़ेंगे। आप बुलाइये, हम मंगनी में आ जायेंगे।' यह सब कहते-सुनते उन्होंने पूरे लय में भिखारी ठाकुर के कई गाने सुना दिये और इस पूरे वार्तालाप के दौरान बीएससी-2 में पढ़ने वाली उनकी पोती तन्मय होकर सब कुछ देखती-सुनती रही। उसने खुश होकर हमें चाय भी पिलाई। भिखारी ठाकुर के नाच में हारमोनियम पर जयदेव राय, सारंगी पर धरिछन राय, ढोलक पर घिनावन ठाकुर, तबला पर तफजुल मियां, झाल-जोड़ी पर बाबूराम ठाकुर के साज-बाज होते थे-.... 'ए किया हो रामा, पियऊ के मतिया केई हर लेलक हो राम।'
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