दो साल के अच्छे दिन.. इन सवालों को जवाब कौन देगा?
पिछले दस दिन से दिल्ली से बाहर रहा। लौटकर जब सुबह के समचारपत्रों पर नज़र पड़ी तो पाया कि मोदी सरकार ने दो साल का कार्यकाल पूरा कर लिया है। मुझको याद आया कि वर्ष 2014 के चुनाव जैसे हाल हाल की ही घटना हों। मैंने चुनाव के दौरान की कुछ घोषणों पर विचार करने लगा...अब की बार मोदी सरकार...और उससे जोड़ा गया था अच्छे दिन का वादा।
आज फिर दो साल बाद कई समाचारपत्रों में इसी तरह के वाक्य फिर देखने को मिले। यह बड़ा अभियान है। मुझे लगता है मदी की तारीफों के पुल बांधने के लिए काफी रुपया खर्च किया गया है। खास तौर पर ये घोषणा ‘मेरा देश बदल रहा है, आगे बढ रहा है। इससे लगता है कि मोदी देश के विकास के लिए सचमुच में प्रयास कर रहे हैं। हर सरकार को यह अधिकार है कि उसकी उपलब्धियाँ क्या हैं, उसका प्रचार किया जाए। इस पर मुझे कोई एतेराज़ भी नहीं है, लेकिन एक जागरूक नागरिक के तौर पर कुछ सवाल तो मैं कर ही सकता हूँ। क्या देश सचमुच में बदल रहा है?
हमने 2014 के चुनाव में मोदी को स्पष्ट बहुमत से जिताया, देश से भ्रष्टाचार मिटाने, नीतिगत परिवर्तन लाने तथा अर्थव्यवस्था को गतिमान करने के लिए। अब सवाल यह है कि सरकार ने क्या सचमुच इसके लिए कुछ किया है? मैं जानता हूँ कि मीडिया तथा जनसमभाओं में यही बताने का प्रयास किया जा रहा है कि मोदी एक क्रांतिकारी नेता हैं और मनमोहन सिंह की सरकार के बाद उन्होंने देश को बदलने में सफलता अर्जित की है, लेकिन सच क्या है? मनमोहन सिंह सरकार गयी, इसका कारण उसका भ्रष्टाचार था। लोग बदलाव चाहते थे। मोदी ने लोगों की इच्छाओं के अनुसार प्रशासन देने का आश्वासन दिया। लोगों को ऐसा लगा कि मोदी सचमुच में भ्रष्टाचार समाप्त करेंगे। उहोंने पदभार ग्रहण करते समय इस बात की घोषणा की, ... मैं खाऊँगा नहीं और खाने दूँगा भी नहीं... उनके मंत्री मंडल के सदस्यों ने इस बारे में नाउम्मीद किया। आधे दर्जन से अधिक मंत्री ऐसे हैं, जिन पर गंभीर भ्रष्टाचार के आरोप हैं। साथ ही काफी गंभीर अपराधों में उनके नाम दर्ज हैं। उनकी नियुक्ति से ही सबसे पहले मोदी के भ्रष्टाचार खत्म करने के आश्वासन भ्रामक साबित हुए।
लोग पूछ रहे हैं कि अगर मोदी भ्रष्टाचार से इतनी नफरत करते हैं तो फिर बीते दो वर्षों में उन्होंने लोकपाल की नियुक्ति के लिए कुछ भी क्यों नहीं किया मनमोहन सिंह के शासनकाल में ही संसद ने लोकपाल बिल मंज़ूर किया, लेकिन बात उससे आगे बढी नहीं। ऑगस्टा वेस्ट लैंड प्रकरण में मोदी और उनकी सरकार ने खूब आक्रमकता दिखाई, इससे नेहरू और गाँधी परिवार के बारे में देश में अविश्वास का वातावरण बना, लेकिन सरकार ने इस मामले में जाँच करने के लिए कोई ठोस कदम क्यों नहीं उठाया।
दूसरी ओर इटली के प्रशासन ने इस मामले में दोषियों को अदालत के सामने प्रस्तुत किया और सज़ा भी दी। बिल्कुल उसी तरह का मुद्दा राबर्ड वाड्रा की भूमि घोटाले का भी रहा। सत्ता में आने के साथ भी भाजपा के नेता इस ममले में काफी कुछ बोल रहे थे, लेकिन दो साल बीत गये, लेकिन कोई कार्रवाई नहीं हुई। कई सर्वेक्षणों ने बताया है कि बीते दो वर्षों में भ्रष्टाचार बढ़ा है।
मोदी सरकार ने आर्थिक विकास के क्षेत्र में भी अपनी उपलब्धियाँ बतानी शुरू कीं और कहा गया कि विकसित अर्थव्यवस्था के रूप में उभरने की प्रक्रिया शुरू हो गयी है, लेकिन सरकार सामान्य व्यापारी और उद्यमियों का विश्वास भी नहीं जीत पायी है। आँकड़े तो कुछ अलग ही दिखाते हैं। वार्षिक कोर क्षेत्र का विकास दर 2015-16 में पूरे दशक से कम 2.7 प्रतिशत रहा है। पिछले वर्ष यह 4.5 प्रतिशत था। सरकार के आँकड़े ही बता रहे हैं कि निर्यात में कमी आयी है। रुपया अब भी कमज़ोर स्थिति में है। आरबीआई गवर्नर के प्रयासों के बावजूद इसमें बेहतरी नहीं आयी है।
भारत आज भी विदेशी निवेशकों के लिए महत्वपूर्ण गंतव्य स्थल के रूप में उभर नहीं पाया है, लेकिन सबसे बुरी हालत रोज़गार निर्माण क्षेत्र की है। मोदी 2014 में युवाओं के लिए लाडले नेता रहे हैं। उन्होंने युवाओं को चाँद तोड़कर लाने का आश्वासन दिया। इधर हमने अखबारों में पढ़ा है कि 2015 में केवल 1.55 प्रतिशत रोज़गार के अवसर पर बना पाये हैं। विशेषज्ञों का मानना है कि सरकारी आँकड़े में भी संदेह है, क्योंकि इस क्षेत्र में कोई बड़ा बदलाव नहीं आया है। जीएसटी का हाल भी सरकार की हटधर्मी ही दर्शाता है। मोदी सरकार राष्ट्रवाद की बात करती ज़रूर है, लेकिन अरुणाचल प्रदेश, उत्तराखंड और दिल्ली राज्यों में उसकी हालत इंदिरा गांधी की तरह की लोगों में चिड़चिड़ाहट पैदा करती है। न्याय की व्यवस्था ही संतोषजनक नहीं है। मुख्य न्यायाधीश टी.एस. ठाकुर को मोदी के सामने रुआँसा होकर कहना पड़ा कि रिक्त पदों पर भर्ती नहीं हो पा रही है।
मोदी के समर्थक उन्हें उनकी विदेशी नीति पर हीरो बनाते हैं। उसमें नकारने जैसा कुछ भी नहीं है। मोदी हिंदुस्तान के सबसे अधिक विदेशी यात्रा करने वाले प्रधानमंत्री हैं, लेकिन ठोस कुछ भी उनके हाथ लगा है, ऐसा नहीं कहा जा सकता। कई बड़ी घोषणाओं के बावजूद विदेशी कंपनियों ने निवेश के लिए अधिक उत्साह नहीं दिखाया। पाकिस्तान के साथ भारत के रिश्तों में ज्यादा दूरियाँ पैदा हुई हैं, लेकिन प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ से मोदी अपनी निकटता दिखाते हुए नज़र आते हैं। कश्मीर फिरसे झुलस रहा है। फिर से सीमा पर तनाव की स्थिति है। वादी में फिर से आईएसएएस के झंडे दिख रहे हैं।
भारत के पाकिस्तान और चीन के साथ संबंधों में सुधार की उम्मीदें भंग हो गयी हैं। पाक ने चीन को भारत की सीमा से लगकर रास्ता बनाने की अनुमति दे दी है। नेपाल के साथ भारत के पुराने रिश्ते हैं,लेकिन वह भी भारत पर क्रोधित है। मोदी सरकार असंख्य बार उनके निजी मामलों में दखलअंदाज़ी की है। श्रीलंका भी चीन के निकट गया है। यह भारत के लिए ठीक बात नहीं है। चीन और भारत के बीच प्रतिस्पर्धा का माहौल है। मोदी ने चीन के नेता क्षी पिंग की मिन्नत समाजत करने का खूब प्रयास किया, लेकिन पाकिस्तान के साथ प्रेम के चलते उन्होंने संयुक्त राष्ट्र में पाकिस्तानी जैशे मुहम्मद के अजहर मसूद को आतंकी होने की भारती की भूमिका का समर्थन नहीं किया।
वर्तमान में हमारे पड़ोसियों से अच्छे संबंध नहीं है, बल्कि ये पहले से खराब हुए हैं, लेकिन मोदी की सबसे बड़ी असफलता सौहार्द के मुद्दों पर उनकी खामोशी नज़र आती है। चाहे वह समान नागरिक संहिता हो या अखलाक प्रकरण, अल्पसंख्यक वर्ग दबाव और तनाव की स्थिति में है। राष्ट्रीयता और देशभक्ति की नयी नयी व्याख्याएँ तथा शाहरूख खान और आमिरखान पर हमलों ने उनके बीच असुरक्षा की भावना बढ़ी है।
धार्मिक मुद्दों पर देश में स्थिति नाज़ुक है। प्रधानमंत्री इस मामले में कुछ बोलने को तैयार नहीं हैं। जनता को उनसे काफी अपेक्षाएँ हैं, लकिन वे उनपर खरा नहीं उतर पाये हैं। देश में उदार संस्कृति का माहोत तेज़ी से खराब हो रहा है। प्रधानमंत्री इन आरोपों की उपेक्षा नहीं कर सकते। उनके पास अब भी तीन साल हैं। उन्हें सिद्ध करना है कि भारत के वैभव उनके शासनकाल में कम नहीं हुआ है। बल्कि उन्हें यह भी याद रखना चाहिए कि 2019 में उन्हे फिर से जनता के सामने जाना है।
(आशूतोष आम आदमी पार्टी के नेता हैं, उनके इस लेख से संपादक मंडल का सहमत होना ज़रूरी नहीं है।)