औरतों के ‘असली भाईजान’ हैं अरुणाचलम मुरुगानन्थम
अरुणाचलम मुरुगानन्थम वो शख्सियत हैं, जिनके एक आविष्कार ने महिलाओं की ज़िंदगी बदल दी। आविष्कार ऐसा प्रभावशाली है कि दुनिया-भर में करोड़ों महिलाएं इसका लाभ उठा रही हैं। लाभ उठाने का सिलसिला उस समय तक जारी रहेगा जब तक इससे बेहतर और बड़ा आविष्कार नहीं हो जाता। तमिलनाडु के कोयम्बतूर शहर में रहने वाले मुरुगानन्थम ने सस्ती और कारगर सेनेटरी पैड बनाने वाली सस्ती मशीन का आविष्कार कर दुनिया में नयी सामाजिक क्रांति का सूत्रपात किया था। मुरुगानन्थम के कारख़ानों में बनी इसी तरह की मशीनों से बन रहे सेनेटरी पैड का इस्तेमाल कर दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में करोड़ों महिलाएँ कई अलग-अलग परेशानियों और समस्याओं को दूर भगा रही हैं। महत्वपूर्ण बात ये है कि मुरुगानन्थम की कामयाबी के कहानी के कई सारे दिलचस्प पहलू हैं। मुरुगानन्थम की कहानी से जुड़े अलग-अलग पहलू अलग-अलग सीख देते हैं, नए सबक सिखाते हैं। रोचक बात ये भी है कि अपनी पत्नी का दिल जीतने की कोशिश मुरुगानन्थम को लंबे संघर्ष और बड़ी नायाब कामयाबी की ओर ले गयी । मुरुगानन्थम को औरतों की अनकही तकलीफ को समझने और उसे हल करने के विचार को साकार रूप देने के लिए पत्नी और माँ से बिछड़ना पड़ा। और तो और, मुरुगानन्थम ने अपने सपने को साकार करने की कोशिश में समाज का तिरस्कार सहा, साथियों के ताने सुने। कई लोगों ने उन्हें पागल कहा, कुछ ने उन्हें सनकी करार दिया। अपने आविष्कार के लिए प्रयोग किये जाने के दौरान उस पर लोगों ने मानसिक रूप के विक्षिप्त होने और लैंगिक बीमारी से पीड़ित होने का भी शक जताया। गाँव की पंचायत ने उन्हें गाँव से बेदख़ल करने का फ़रमान जारी लिया। अपमान, निंदा, द्वेष, तिरस्कार और बहिष्कार के बावजूद मुरुगानन्थम ने हार नहीं मानी । महिलाओं के लिए सस्ती और कारगर सेनेटरी पैड बनाने के लिए अपने प्रयोगों को जारी रखा । सालों की मेहनत के बाद प्रयोग उनके कामयाब हुए और इस कामयाबी से मुरुगानन्थम बन गए नयी सामाजिक क्रांति के प्रणेता। इस सामाजिक क्रांति से महिलाओं की ज़िंदगी में आये बड़े बदलाव ने मुरुगानन्थम को दुनिया के सबसे प्रभावशाली लोगों की सूची में जगह दिलाई ।बड़े महत्व वाली बात ये भी है कि मुरुगानन्थम ने एक छोटे-से कारखाने में अपने प्रयोग किये । मशीन बनाने के लिए हुए इन प्रयोगों में मुरुगानन्थम बिलकुल अकेले थे। उनका न कोई साथी था, न ही को सहायक । न कोई सलाहकार था और न ही कोई निवेशक। दिन-रात की अपनी मेहनत की कमाई उन्होंने इस प्रयोग में लगाई थी। पक्की लगन, अथक प्रयास, कठोर मेहनत, हार ना मानने का जज़्बा, कुछ अलग और बड़ा करने की चाहत ,कामयाब होने का जुनून, लक्ष्य हासिल करने की ज़िद ने मुरुगानन्थम को एक सामान्य इंसान से कामयाब, मशहूर और प्रभावशाली व्यक्तित्व बनाया है।मुरुगानन्थम की कहानी कामयाबी की एक अद्भुत और अद्वितीय कहानी है। एक ऐसी कहानी है जो इंसानी दिल और दिमाग को प्रभावित करती हैं। ये कहानी प्रेरणा देने वाली है, लोगों में नया उत्साह भरने वाली है।
इस ऐतिहासिक कहानी की शुरुआत हुई तमिलनाडु के कोयम्बतूर शहर से कुछ किलोमीटर दूर पापनायकनपुडूर गाँव में । इसी पापनायकनपुडूर गाँव में अरुणाचलम मुरुगानन्थम का जन्म हुआ । उनके पिता अरुणाचलम हथकरघा बुनकर थे, माँ वनिता गृहिणी। उनका परिवार बहुत ही बड़ा था। मुरुगानन्थम के परदादा की 24 और दादा की 6 संतानें थीं। दादा की 6 संतानों में मुरुगानन्थम के पिता अरुणाचलम का नंबर तीसरा था। मुरुगनाथम की नानी की 23 संतानें थीं और उनकी माँ वनिता का नंबर चौथा था।
मुरुगानन्थम का संयुक्त परिवार था, कई रिश्तेदारों आसपास ही अपने-अपने मकानों में रहते थे। मुरुगानन्थम अपने माता-पिता की पहली संतान थे। उनके बाद अरुणाचलम और वनिता को दो लड़कियाँ हुईं।
दिलचस्प बात ये है कि वनिता जब पहली बार गर्भवती हुईं तब उनकी इच्छा थी कि पहली संतान लड़की हो, लेकिन उन्हें लड़का हुआ। माता-पिता देवी-देवताओं को बहुत मानते थे इसी वजह से अपनी पहली संतान को तमिल भाषियों के देवता कहे जाने वाले ‘मुरुगन’ का काम दिया। लड़के का नाम रखा गया मुरुगानन्थम। सभी प्यार से मुरुगानन्थम को ‘मुरुगा’ कहकर बुलाने लगे।
चूँकि माँ उम्मीद कर रही थीं कि उनकी पहली संतान लड़की होगी, लड़का होने पर भी वनिता ने ‘मुरुगा की परवरिश लड़की की तरह ही की। अपने बचपन की यादें हमारे साथ साझा करते हुए मुरुगानन्थम ने चेहरे पर खुशी वाली मुस्कान बनाये रखते हुए बताया,
“बचपन में माँ मेरा श्रृंगार करतीं, वे मुझे लड़कियों की तरह सजातीं, बाल नहीं कटवातीं, चोटी डालतीं। माँ के हाथों सजकर जब मैं स्कूल जाता तो साथी चिढ़ाते थे, लेकिन कुछ दिनों बाद मुझे इसकी आदत हो गयी।”
मुरुगा’ को पढ़ाई के लिए सरकारी स्कूल भेजा गया। वो स्कूल आज-कल के स्कूलों के जैसा नहीं था। स्कूल में चार दीवारी वाले कमरे नहीं थे। फ़र्श पर बैठकर पढ़ना-लिखना होता। सारी पढ़ाई तमिल में होती। स्कूल के पास खेलने-कूदने के लिए खुले मैदान होते। खेत-खलिहान, पशु-पक्षियों की बीच ही मुरुगा का बचपन बीता।
मुरुगानन्थम कहते हैं, “मैंने चार दीवारी में रहकर पढ़ाई नहीं की। मैंने सुन्दर माहौल और प्रकृति के बीच रहकर सीखा है। मैं बचपन में तितलियों, पक्षियों और जानवरों के पीछ- पीछे भागता था। पेड़ों पर चढ़ता था। खेतों और मैदानों में खेलता था। बचपन में मैंने 90 फीसदी चीज़ेें प्रकृति से सीखी थीं और सिर्फ 10 फीसदी शिक्षा टीचरों से ली थी।”
मुरुगानन्थम सवर्ण वर्ग की चेट्टियार जाति में जन्मे थे, लेकिन उनकी दोस्ती चरवाहे, कसाई, मोची जैसे लोगों के बच्चों के साथ थी। वे कहते हैं, “मैं ये जानना चाहता था कि एक चरवाहे का बेटा कैसे दो-तीन सौ बकरियों को अकेले संभाल लेता है ? मैं चरवाहे के बेटे के साथ घंटों जानवरों को घुमाता। कसाई, मोची के बच्चों के साथ खेलकर मैं जब घर लौटता था तब माँ मेरे सर पर घड़ा-भर पानी डाल देती थी। शुद्धि के बाद ही मुझे घर में आने दिया जाता।”
ऐसा भी नहीं था कि मुरुगानन्थम सिर्फ अपने हमउम्र के बच्चों और दोस्तों के साथ घूमते-फिरते थे, वे अपने पिता के काम में उनका हाथ भी बटाते थे। मुरुगानन्थम को कम उम्र में ही इस बात का अहसास हो गया था कि उनके पिता का काम बहुत मेहनत वाला काम है। लकड़ी की मशीन पर सूत के कपड़े बुनना आसान काम नहीं है। मुरुगानन्थम के पिता अच्छे कलाकार भी थे और हर पंद्रह दिन पर वो सूत की साड़ी की डिज़ाइन बदलते थे। मुरुगानन्थम अपने पिता अरुणाचलम की मेहनत और कारीगरी से बहुत प्रभावित थे। पिता की कमाई से ही घर-परिवार चलता था, लेकिन पिता का साया मुरुगानन्थम के सर से बचपन में ही उठ गया। एक सड़क हादसे में उनके पिता की मौत हो गयी। इस हादसे के समय मुरुगानन्थम हाई स्कूल में थे। पिता की मौत के बाद घर-परिवार को चलाने और अपने तीनों बच्चों को संभालने की सारी ज़िम्मेदारी माँ वनिता पर आ गयी। उन दिनों तमिलनाडु के गाँवों में औरतों को खेतों में ही काम दिया जाता था। माँ ने खेत में मज़दूरी करनी शुरू दी। खेत में दिन-भर मज़दूरी करने पर उनकी माँ को सिर्फ 10 से 15 रुपये ही मिलते थे। घर-परिवार चलाने के लिए ये रकम पर्याप्त नहीं थी। भले ही वनिता दिन में सिर्फ 10 से 15 रुपये ही कमा पाती थीं, लेकिन उनका सपना अपने तीनों बच्चों को पढ़ा-लिखाकर बहुत बड़ा इंसान बनाना था।
मुरुगानन्थम के शब्दों में, “मेरी माँ मुझे पुलिस ऑफिसर, मेरे छोटी बहन को वकील और सबसे छोटी बहन को कलेक्टर बनाना चाहती थी। मेरी माँ उन दिनों तमिल फिल्में बहुत देखती थी और इन्हीं का उस पर बहुत प्रभाव था। उन्हें लगता था कि जिस तरह तमिल फिल्मों में वैजयंतीमाला, हेमा मालिनी और साहुकार जानकी कमाल करती हैं, वैसे ही वो भी अपनी ज़िंदगी में कमाल कर लेंगी, लेकिन उन्हें नहीं मालूम था कि जैसा तमिल फिल्मों में होता है, वैसा असली ज़िंदगी में होना बहुत मुश्किल है।” मुरुगानन्थम ने अपनी माँ के उस सपने पर चुटकी तो ज़रूर ली, साथ ही अपनी बातों से हमें ये अहसास दिला दिया कि वे अपनी माँ से बहुत प्यार करते हैं।
मुरुगानन्थम ने जब देखा कि घर-परिवार चलाने के लिए माँ दिन-रात मेहनत कर रही हैं, तब उन्होंने एक बड़ा फैसला खुद ही ले लिया। चौदह साल के मुरुगा का फैसला था स्कूल की पढ़ाई बंद करना और कामकाज में माँ का हाथ बंटाना। अपने फैसले के मुताबिक मुरुगा ने स्कूल जाना बंद कर दिया और दसवीं की पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी। मुरुगानन्थम ने बताया,
“मैंने स्कूल न जाने का फैसला नीम के एक पेड़ के नीचे लिया था। उस दिन भी मैं मेरे एक चरवाहे दोस्त के साथ जानवर लेकर उन्हें चराने गया था। बीच में हम एक नीम के पेड़ के पास रुके थे। यहीं पर मुझे इस बात के लिए दुःख हुआ कि मेरी माँ अकेले सारी मेहनत कर रही है। माँ की मदद करने के लिए मैंने स्कूल छोड़ने का फैसला किया था।”
स्कूल छोड़ने के बाद मुरुगानन्थम के कई जगह कई तरह के काम किये । कभी पटाखे बेचे तो कभी गणेशजी की मूर्तियाँ। कुछ दिन उन्होंने गन्ने भी बेचे । किसी की देखादेखी उन्होंने इडली बनाकर भी बेची। लेकिन उनकी ज़िंदगी उस समय बदली जब उन्हें एक छोटे से वेल्डिंग वर्कशॉप में नौकरी मिली । चूँकि वे उम्र में दूसरों से छोटे थे, उन्हें शुरू में अपने सीनियर्स के लिए बीड़ी-सिगरेट और चाय लाने का काम सौंपा गया, लेकिन वे बहुत जल्द यह काम सीख गये।
वेल्डिंग के काम के साथ उन्हें एक और बड़ा काम करना पड़ता। वेल्डिंग वर्कशॉप का पियक्कड़ मालिक जब कभी नशे में धुत्त होकर कहीं गिर जाता तब मुरुगानन्थम उसे उठाकर सही सलामत घर ले जाते। मुरुगानन्थम ने कहा, “वर्कशॉप का मालिक इतना पी लेता कि नशे में अक्सर किसी नाले में गिर जाता। मुझे नाले से बाहर निकालकर उस भारी-भरकम शरीर वाले इंसान को अपने कंधों पर उठाकर सही सलामत उसके ठिकाने पर पहुँचाना होता।”
यह काम उन्हें कई दिन तक करना पड़ा, लेकिन जब वे इससे ऊब गए, तब उन्होंने अपने मालिक से जाकर कह दिया कि वे अब वर्कशॉप नहीं आएंगे। मुरुगानन्थम की ये बात सुनकर वर्कशॉप मालिक हैरान और परेशान हो गया। मालिक, मुरुगानन्थम का एहसानमंद था इसी वजह से उसने कहा- तुम कहीं मत जाओ और खुद इस वर्कशॉप के मालिक बन जाओ। अब हैरान होने की बारी मुरुगानन्थम की थी। उन्हें ये समझ में नहीं आ रहा था कि मालिक नशे में ये बात कह रहा है या फिर होश में, लेकिन जब मालिक ने ये यकीन दिलाया कि वो इस प्रस्ताव पर गंभीर है, तब जाकर मुरुगानन्थम भी गंभीर हुए । लेकिन मुरुगानन्थम के पास इतनी रकम नहीं थी कि वो मालिक से वर्कशॉप ख़रीद सकें। उन्होंने मालिक को बताया कि उनकी ताकत इतनी नहीं है कि वे वर्कशॉप ख़रीद सकते हैं। मुरुगानन्थम की असमर्थता को जान कर मालिक ने ही एक उपाय सुझाया। मालिक अपना काम कर्ज़ देने वालों से रुपये लेकर चलाता था। उन्होंने मुरुगानन्थम को भी साहूकार से रुपये लेकर वर्कशॉप खरीदने की सलाह दी। मुरुगानन्थम ने सलाह मान ली और अब वे एक मामूली वर्कर से वर्कशॉप के मालिक हो गए। उनके लिए बड़ी खुशी की बात ये भी थे कि अपने पियक्कड़ मालिक को नाले से निकालकर घर पहुँचाने की ज़िम्मेदारी से भी छूटी मिल गयी थी।
मालिकाना हक़ पाते ही मुरुगानन्थम ने वर्कशॉप में साफ़-सफाई की। वर्कशॉप का नाम भी बदला। धार्मिक प्रवृत्ति के थे इस वजह से वर्क शॉप को धन-दौलत और संपत्ति की देवी लक्ष्मी का नाम दिया। अब मुरुगानन्थम अपनी ज़िंदगी में पहली पार उद्यमी बन गए थे। वो कहते है, “मैं बहुत खुश हुआ था उद्यमी बनकर। शुरू से ही मुझे रूटीन काम पसंद नहीं था। मैं कुछ अलग करना चाहता था। ये मेरे लिए अच्छा मौका था।”
मुरुगानन्थम ने इस मौके का फायदा भी उठाया। उन्होंने वो सब नहीं किया जो उन दिनों दूसरे सारे वेल्डर करते थे। मकानों, भवनों और दूकानों में लगने वाली ग्रिलें और इसी तरह की दूसरी लोहे की छोटी-बड़ी जालियों को नए-नए डिज़ाइन दिए। गर्व से भरे भाव से साथ मुरुगानन्थम ने कहा, “ उन दिनों ज्यादातर वेल्डर शराब पीते थे और नशे में ही काम करते थे। नशे में रहने पर भी रेक्टैंग्युलर, स्क्वेर, सर्किल और सेमी-सर्किल के आकर वाले डिज़ाइन बनाने आसान थे। आँखें मूंदकर भी कोई वेल्डर ये डिज़ाइन बना सकता था, लेकिन मैंने ऐसा नहीं किया। मेरे घर के सामने मेरी बहनें जो रंगोली बनाती थीं वैसी डिज़ाइन के ग्रिल्स भी मैंने बनाये।”
तरह के तरह की सुन्दर डिज़ाइन वाले ग्रिलें बनाने की वजह से बहुत कम समय में मुरुगानन्थम का बहुत नाम हो गया। दूर-दूर से लोग वेल्डिंग से जुड़े काम करवाने मुरुगानन्थम के पास आने लगे। एक तरह काफी अच्छा नाम हुआ दूसरी तरफ कमाई भी बढ़ती गयी। चूँकि मुरुगानन्थम अब एक वर्कशॉप के मालिक थे, उनका कारोबार भी अच्छा चल रहा था और शादी की उम्र भी थी, माँ ने लड़की ढूँढनी शुरू की। 1998 में मुरुगानन्थम की शादी शांति से की गयी।
शादी के बाद मुरुगानन्थम की ज़िंदगी ने करवट ली। मुरुगानन्थम में कई सारे बदलाव लाये। शादी के बाद से ही मुरुगानन्थम ने अपनी पत्नी को इम्प्रेस करने की कोशिशें शुरू की, लेकिन संयुक्त परिवार होने की वजह से कई दिक्कतें थीं। पत्नी से अकेले में मिलने और बात करने का समय बहुत ही कम मिलता था। दोपहर में ही भोजन के समय अकेले में बात करने का मौका मिलता था।
ऐसे ही एक दिन मुरुगानन्थम ने देखा कि उनकी पत्नी उनसे कुछ छिपा रही हैं। पति को वो चीज़ न दिखाई दे इस मकसद से शान्तिने उसे अपने हाथों से पीठ पीछे छुपाया हुआ था। मुरुगानन्थम ने जब वो चीज़ दिखाने को कहा तब शांति गुस्सा हो गयी और उन्होंने कहा – इस चीज़ से तुम्हारा कोई मतलब नहीं है। पत्नी के मूंह से ये बात सुनकर मुरुगानन्थम की जिज्ञासा और भी बढ़ गयी। जिज्ञासा और बेचैनी में मुरुगानन्थम ने आखिर उस चीज़ का पता लगा लिया। वो चीज़ थी खून से सने पुराने कपड़ों के टुकड़े। पहले तो मुरुगानन्थम को ये समझ में नहीं आया कि खून से सने पुराने कपड़ों के ये टुकड़े किस काम के हैं, लेकिन उन्हें याद आया कि उनके घर के पिछवाड़े में जो स्नान-घर था वहां भी उनकी बहनें इसी तरह के कपड़े छोड़ा करती थीं। अब मुरुगानन्थम को पता चल गया कि मासिक धर्म के समय उनकी पत्नी भी इन्हीं पुराने कपड़ों का इस्तेमाल कर रही हैं। मुरुगानन्थम को अहसास हो गया कि उनकी पत्नी मासिक धर्म के समय ऐसी गंदी और मैली चीज़ों का इस्तेमाल कर रही हैं, जिससे उनके स्वास्थ्य को नुकसान पहुँच सकता है। चूँकि मुरुगानन्थम अपनी पत्नी से बहुत प्यार करते थे और उनका मन जीतना चाहते थे, उन्होंने पत्नी को अच्छी और साफ़ चीज़ इस्तेमाल करने की सलाह दी। मुरुगानन्थम कहते हैं,
“मैं उस समय उस प्रोडक्ट का नाम भी नहीं जानता था। मुझे उस समय ये पता भी नहीं था कि लोग उसे सेनेटरी पैड कहते हैं। मैं उसके बारे में थोड़ा बहुत जानता था इसी वजह से नाम लिए बिना मैंने अपनी पत्नी से उसका इस्तेमाल करने की सलाह दी।”
इस सलाह पर पत्नी शांति ने जो बात कही उसे सुनकर मुरुगानन्थम सन्न रह गए। पत्नी ने कहा - अगर मैं और आपकी बहनें उस चीज़ का इस्तेमाल करेंगी जिसकी बात आप कह रहे हैं तो घर में दूध आना बंद हो जाएगा। मुरुगानन्थम को ये बात बिलकुल समझ में आयी। वे इस सोच में डूब गए कि आखिर मासिक धर्म के समय इस्तेमाल की जाने वाली उस चीज़ का दूध से क्या सम्बन्ध है।
इसी बीच मुरुगानन्थम को ऐसा लगा कि वो चीज़ अगर ख़रीदकर अपनी पत्नी को देंगे तो वे बहुत खुश होंगी। इसी मकसद से मुरुगानन्थम वो चीज़ खरीदने निकल पड़े। उन्होंने साइकिल ली और सात किलोमीटर दूर शहर जाकर एक मेडिकल शॉप पर रुके। उन्होंने मेडिकल शॉप में खड़ी एक औरत से वो चीज़ देने को कहा। जिस अंदाज़ में और जिस तरह वो चीज़ उन्हें दी उसे देखकर मुरुगानन्थम दंग रह गए। मुरुगानन्थम बताते हैं, “उस मेडिकल शॉप में महिला ने धीरे से उस चीज़ को उठाया और अखबार के पन्नों में उसे लपेटा और बहुत ही शर्माते हुए जल्दी से मेरे हाथों में उसे थमा दिया। उसने मुझे वो चीज़ ऐसे दी थे जैसे कोई बैन्ड आइटम है या फिर स्मगलिंग की कोई चीज़।”
मेडिकल शॉप वाली उस महिला के हाव-भाव ने मुरुगानन्थम की हैरानी और भी बढ़ा दी। उन्हें ये एहसास हुआ कि आम तौर पर महिलाएँ ही ये चीज़ ख़रीदती हैं और किसी पुरुष के इसे ख़रीदने से लोग हैरान और परेशान होते हैं। अपनी जिज्ञासा को दूर करने ने लिए मुरुगानन्थम ने अख़बार के पन्नों में उस चीज़ को निकला और ये समझने की कोशिश की कि आखिर ये है क्या? सेनेटरी पैड देखकर मुरुगानन्थम को एक अजीब-सी अनुभूति हुई। मुरुगानन्थम ने सेनेटरी पैड को खोला और ये भी जानने में जुट गए कि ये कैसे बनाई जाती है।
मुरुगानन्थम कहते हैं, “ सफ़ेद और मुलायम चीज़ को देखकर मुझे पता चल गया कि वो रुई है। मैं वेल्डिंग का काम करता था इसी वजह से कोई भी वस्तु को हाथ में लेकर उसके वजन का अंदाज़ा लगा सकता था। जैसे ही मैंने सेनेटरी पैड हो हाथ में लिया मुझे अंदाजा हो गया कि उसका वजन दस ग्राम है। 1990 में 10 ग्राम रुई 10 पैसे में मिलती थी। मुझे इस बात पर बहुत ताज्जुब हुआ कि 10 पैसे वाली रुई को 6 रुपये में बेचा जा रहा। मैं भी कारोबार करता था, लेकिन इस तरह का मार्जिन मैंने कभी नहीं देखा था।”
इस ‘मार्जिन’ ने मुरुगानन्थम के दिमाग में कई सवाल खड़े किये, कई विचारों को जन्म दिया। एक विचार ये भी आया कि ख़ुद ही सेनेटरी पैड बनाकर क्यों न पत्नी को गिफ्ट के रूप में दिया जाय । मुरुगानन्थम को इसके दो फायदे नज़र आये – पहल, पत्नी खुश होगी और दूसरा, सस्ते में एक बेहद ज़रूरी और फ़ायदेमंद चीज़ मिल जाएगी।
इसी विचार को मूर्त रूप देने के लिए मुरुगानन्थम ने सबसे अच्छे किस्म की रुई खरीदी और उसे रेक्टैंग्युलर शेप में काटा और अच्छे से कसकर एक पैड बनाया। आठ इंच लम्बे इस रेक्टैंग्युलर पैड को बनाकर मुरुगानन्थम बहुत ही खुश हुए। मुरुगानन्थम को लगा कि उन्होंने बहुत बड़ी कामयाबी हासिल कर ली है और सिर्फ दो दिन में सस्ता सेनेटरी पैड बना लिया। बेहद खुश और उत्साहित मुरुगानन्थम को लगा कि उनकी पत्नी सेनेटरी पैड देखकर बहुत खुश होंगी और उन्हें शाबाशी देंगी । मुरुगानन्थम को ये भी भरोसा था कि सेनेटरी पैड की वजह से वे अपनी पत्नी का दिल हमेशा पैड को अपनी पत्नी को दिया और उसे इस्तेमाल कर अपनी फीडबैक देने को कहा। मुरुगानन्थम को लग रहा था कि एक-दो दिन में उन्हें ये फीडबैक मिल जाएगा, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। दिन बीत रहे थे, फीडबैक नहीं मिल रहा था। जैसे-जैसे समय बीतता गया वैसे-वैसे मुरुगानन्थम का कौतूहल बढ़ता गया, बेचैनी बढ़ने लगी। उनसे सहा नहीं गया और उन्होंने अपनी पत्नी से इस बारे में पूछ लिया। पत्नी ने मुरुगानन्थम को फीडबैक के लिए कुछ और दिन का इंतज़ार करने को कहा और बताया कि हर दूसरे या चौथे दिन रजोधर्म नहीं होता। पत्नी से मुरुगानन्थम को कुछ नयी बातों का पता चला। पहली बार उन्हें ये भी मालूम हुआ कि रजोधर्म हर दूसरे या चौथे दिन नहीं होता। बावजूद इस जानकारी के मुरुगानन्थम को और भी कई बातें नहीं पता थीं, उनकी जानकारी अब भी अधूरी थी।
मुरुगानन्थम के लिए अपने बनाये सेनेटरी पैड के बारे में पत्नी से प्रतिक्रिया जानने के लिए इंतज़ार करना मुश्किल हो रहा था। उनमें एक अजीब-सा कौतूहल था, अजीब से बेचैनी थी। पत्नी की प्रतिक्रिया जानने की इच्छा दिन बदिन बढ़ती चली जा रही थी। इसी बीच उन्होंने गाँव की दूसरी औरतों के बारे में भी पता लगाया। ये जानकर उनके होश उड़ गए कि गाँव की ज्यादातर महिलाएं मासिक धर्म के दौरान कपड़ों, रेत, राख , पेड़ के पत्तों जैसी चीज़ों का इस्तेमाल करती हैं। मासिक धर्म में इन सारी चीज़ों से सेहत बिगड़ सकती थी और बीमारियों का भी खतरा होता है।
मासिक धर्म कब होता है ये पता लगाने के लिए मुरुगानन्थम गाँव में देवी के मंदिर भी जाने लगे, जहाँ महिलाएं ज्यादा आया-जाया करती थीं। एक शुक्रवार के दिन मुरुगानन्थम ने देखा कि कई महिलाएं मंदिर के बाहर ही खड़ी हैं और अंदर नहीं जा रही हैं। मुरुगानन्थम जानते थे कि रजोधर्म के समय महिलाएँ मंदिर के भीतर प्रवेश नहीं करतीं, इसी जानकारी के आधार पर मुरुगानन्थम इस नतीजे पर पहुंचे थे कि शुक्रवार को रजोधर्म होता है। जब मुरुगानन्थम ने ‘शुक्रवार’ वाली बात अपनी पत्नी से कही और प्रतिक्रिया देने को कहा तब फिर पत्नी और भी नाराज़ हुईं और गुस्से में मुरुगानन्थम को बताया कि रजोधर्म मासिक होता है ना कि किसी शुक्रवार को।
धीरे-धीरे ही मुरुगानन्थम मासिक धर्म के बारे में जानने लगे थे। जैसे-जैसे उन्हें जानकारियाँ मिल रही थीं उनकी जिज्ञासा भी लगातार बढ़ती चली जा रही थी। इसी दौरान कुछ दिनों बाद मुरुगानन्थम को उनकी पत्नी ने जब सेनेटरी पैड का इस्तेमाल करने के बाद प्रतिक्रिया दी तब वे बहुत उदास और निराश हुए। प्रतिक्रिया उनकी उम्मीदों के बिलकुल उलट थी। पत्नी ने मुरुगानन्थम से कहा- ‘सेनेटरी पैड बहुत ही बुरी और खतरनाक है। इससे अच्छे तो कपड़े के टुकड़े हैं।’ पत्नी ने साफ़ कह दिया था कि वो दुबारा इस तरह की चीज़ों को इस्तेमाल नहीं करेंगी। ये प्रतिक्रिया मुरुगानन्थम के लिए एक बहुत बड़ा झटका थी। उन्हें लगा था कि उन्होंने सस्ती सेनेटरी नैपकिन बना ली है और ये इस नए आविष्कार से वे अपनी पत्नी के दिल पर हमेशा के लिया राज करेंगे। इस झटके से उभरने ने मुरुगानन्थम को कुछ समय लगा, लेकिन जैसे ही वे इस झटके से उभरे उन्होंने ठान ली कि वे अपना प्रयोग जारी रखेंगे और किसी न तरह सेनेटरी पैड बना की लेंगे।
मुरुगानन्थम ने इस बार नए सिरे से काम करना शुरू किया। उन्होंने रुई की अलग-अलग किस्मों का इस्तेमाल करना शुरू किया। अलग-अलग तरीके से पैड बनाये, लेकिन उनके सामने एक बहुत बड़ी मुसीबत और चुनौती ये थी कि उसका इस्तेमाल कर प्रतिक्रिया देने वाली कोई नहीं थी। पत्नी ने पैड का इस्तेमाल करने और प्रयोग का हिस्सा बनने से साफ़ इनकार कर दिया था। चूँकि मुरुगानन्थम को डर था कि अगर दूसरी महिलाओं से वे इस प्रयोग का हिस्सा बनने को कहेंगे तो वे उनका बहुत बुरा हाल करेंगी। वो दौर ही कुछ ऐसा था, जहाँ पुरुष मासिक धर्म के बारे में किसी से कुछ नहीं कहते थे।
बहुत सोचने के बाद मुरुगानन्थम ने एक और बड़ा फैसला लिया। फैसला था अपनी छोटी बहनों को प्रयोग का हिस्सा बनाने का। किसी तरह मुरुगानन्थम अपनी बहनों को मनाने में कामयाब हो गए और फिर से प्रयोग शुरू हुआ। मुरुगानन्थम बताते है, “मैं और कुछ कर भी नहीं सकता था। अपनी पत्नी के बाद मैंने बहनों को पीड़िता बनाया था। मुझे लगा कि वे ही मेरी मदद कर सकती हैं।” लेकिन मुरुगानन्थम को उनकी बहनों से भी कोई मदद नहीं मिली। बहनों ने मुरुगानन्थम के बनाये सेनेटरी पैड्स का इस्तेमाल तो किया लेकिन वे शर्म के मारे अपनी प्रतिक्रिया नहीं दे पातीं।
उन दिनों की यादें ताज़ा करते हए मुरुगानन्थम ने कहा, “ वे बहुत शर्माती थीं। मेरी तरफ सीधे देखती भी नहीं थीं। दीवार की तरह मूंह किये हुए कुछ- कुछ कहती थीं । मणिरत्नम की फिल्मों की कुछ दृश्यों की तरह वे कई मिनटों बाद एक या दो शब्द कहती थीं। उन एक-दो शब्दों से मेरे लिए ये समझना बहुत मुश्किल था कि मेरा प्रोडक्ट सही काम कर रहा या नहीं। और तो और, मेरे घर में हर कमरे में देवी-देवताओं के चित्र थे। शिव, गणेश जैसे देवताओं के चित्रों के सामने मासिक धर्म के बारे में कुछ कहने को मेरी बहनें बहुत बुरा मानती थीं। एक दिन वे दोनों भी तंग आ गयीं और मुझे धमकी दी कि अगर मैंने उनपर ये प्रयोग बंद नहीं किये तो वे ये बात माँ को बता देंगी। मैंने माँ के डर से बहनों पर अपने प्रयोग बंद कर दिए।”
पत्नी और बहनों के साफ़ मना कर देने के बाद भी मुरुगानन्थम ने प्रयोग करने का इरादा नहीं छोड़ा। उन पर एक तरह का जुनून सवार हो गया था। किसी भी सूरतेहाल सस्ते और फ़ायदेमंद देशी सेनेटरी पैड बनने की उन्होंने ठान ली थी। उन दिनों दो बहुराष्ट्रीय विदेशी कंपनियों के बनाये सेनेटरी पैड ही भारत में बिकते थे और वे मानते थे कि इन कंपनियों के पैड काफी महंगे है और ग़रीब महिलाएँ इन्हें ख़रीदकर इस्तेमाल नहीं कर सकतीं। उन्हें ये बात भी बहुत खल रही थी कि वे अपनी पत्नी को इम्प्रेस नहीं कर पा रहे हैं। सेनेटरी पैड बनाना अब उनके लिए इस वजह से भी ज़रूरी लगने लगा, क्योंकि उन्हें इस बात का शक था कि अगर कामयाब नहीं हुए तो पत्नी उन्हें पागल और नालायक़ समझेगी।
सोच में डूबे मुरुगानन्थम को मेडिकल कॉलेज की लड़कियों में उम्मीद की किरण नज़र आयी। उन्हें लगा कि मेडिकल कॉलेज की लड़कियाँ साहसी होती हैं और उन्हें मानव शरीर की बातें करने में शर्म भी नहीं आती। इसी सोच-विचार के साथ मुरुगानन्थम कोयम्बतूर मेडिकल कॉलेज की लड़कियों के पास गए और उनसे उनके सेनेटरी पैड वाले प्रयोग का हिस्सा बनने की गुज़ारिश ही। इस गुज़ारिश पर लड़कियों की जो प्रतिक्रिया मिली उससे भी उनके होश उड़ गए। लड़कियाँ सेनेटरी पैड की बात सुनते ही शर्माकर भाग गयीं।
मुरुगानन्थम कहते हैं, “मुझे लगा मेडिकल कॉलेज की इन पढ़ी-लिखी लड़कियों से तो अनपढ़ लड़कियाँ ही बेहतर हैं। मुझे उनकी प्रतिक्रिया से बहुत निराशा हुई। मैं उन लड़कियों की भलाई के लिए काम कर रहा था और वो लड़कियाँ इस बात को समझ ही नहीं पा रही थीं। मेरे पास प्रयोग करने के लिए अब एक भी लड़की या महिला नहीं थी।”
यहाँ पर मुरुगानन्थम उन बाबाओं पर तंज़ कसने से भी नहीं चुके जो हमेशा लड़कियों से घिरे रहते हैं। मुरुगानन्थम के कहा, “मेरी समझ में नहीं आता कि बाबाओं के पास इतनी लड़कियाँ कहाँ से आती हैं ? आखिर बाबाओं में ऐसा क्यों होता है जो इतनी लड़कियाँ उनके पास होती हैं ? बाबाओं को लड़कियों से क्या काम है और लड़कियों को बाबाओं से क्या काम है? ये बात मैं अभी तक नहीं समझ पाया। मैं एक अच्छा काम करना चाह रहा था और मेरे पास एक भी लड़की आने को तैयार नहीं थी।”
मुरुगानन्थम की मानसिकता शुरू से ही आम लोगों से अलग थी। वे उन लोगों में से नहीं हैं जो आसानी से हार मान लेते हैं। मुरुगानन्थम ने ठान ली कि जब तक वे महिलाओं के लिए सस्ती, टिकाऊ और स्वास्थ्य के लिए लाभकारी सेनिटरी नैपकिन नहीं बना लेंगे, तब तक वे चैन से नहीं बैठेंगे।
सेनेटरी पैड बनाने का फैसला उन पर कुछ तरह हावी था कि उन्होंने कोई कोर कसर बाकी नहीं छोड़ी। देशी सेनेटरी पैड बनने की ज़िद ऐसी थी कि दिन-रात वे इसी के बारे में सोचते। न दिन में सुकून राहत, न रात को चैन। ऐसी ही हालत में मुरुगानन्थम ने एक बड़ा फैसला लिया। इस बार का फैसला पिछले फ़ैसलों से भी बड़ा था। फैसला सिर्फ बड़ा ही नहीं बल्कि बड़ा ही अजीबोगरीब भी था । शायद ही पहले ऐसा किसी ने सोचा भी होगा।
मुरुगानन्थम ने फैसला किया कि वे खुद अपने बनाये सेनिटरी पैड का इस्तेमाल करेंगे और ये जानेंगे-समझेंगे कि वे कारगर और उपयोगी है या नहीं, लेकिन ये काम आसान नहीं था। पुरुष होने की वजह से उन्हें मासिक धर्म हो नहीं सकता था, लेकिन उन्होंने इसके लिए भी सोच लिया और नए प्रयोग किये। मुरुगानन्थम ने अपने शरीर से रक्त स्राव के लिए कृत्रिम यानी बनावटी गर्भाशय बनाया। फुटबॉल के ट्यूब ब्लैडर से उन्होंने ये कृतिम गर्भाशय बनाया और रक्तश्राव के लिए उसमें छेद किये। और तो और, खून असली हो इसके लिए उन्होंने एक कसाई से बात कर बकरी का खून लिया और इस्तेमाल करना शुरू किया। बकरी काटने से पहले कसाई मुरुगानन्थम को बुला लेता और मुरुगानन्थम ताज़े खून से अपने प्रयोग करते। खून से भरे छेदों वाले फुटबॉल ब्लैडर से बने कृत्रिम गर्भाशय पर अपने बनाये सेनेटरी पैड को पहनकर खुद मुरुगानन्थम इधर-उधर घूमने लगे। अपने बनाये सेनेटरी पैड पहनकर कभी धीरे-धीरे चलते तो कभी दौड़ते। उन्होंने पैड पहनकर लड़कियों की तरह साइकिल भी चलायी।
ऐसा करते हुए मुरुगानन्थम जानना चाहते थे कि उनकी बनाये सेनेटरी पैड खून को सोक पाते हैं या नहीं और अगर सोक सकते हैं, तो कितने समय में सोक सकते हैं । नौ-दस दिनों तक मुरुगानन्थम ने महिलाओं को होने वाली परेशानी का अनुभव किया । उन्हें पीड़ा इस बात की भी थी कि उनका प्रयोग कामयाब नहीं हुआ है । रुई खून सोक नहीं रही थी, ऊपर से पैड से गंदी बदबू आने लगी थी । मुरुगानन्थम थोड़ा निराश तो हुए लेकिन हिम्मत नहीं हारी । चुनौती को पार लगाने की कोशिश में उन्होंने एक नया फैसला लिया । फैसला था फिर से लड़कियों के पास जाने का । मुरुगानन्थम एक बार फिर अपने नए दौर के प्रयोग के लिए लड़कियों की तलाश में जुट गए। दिमाग इधर-उधर दौड़ाने ने बाद मुरुगानन्थम की उम्मीदें एक बार फिर मेडिकल कॉलेज की लड़कियों पर आ टिकीं ।
मुरुगानन्थम ने प्रयोग और अपने मिशन को कामयाब बनाने के लिए नयी तरकीब अपनाई थी। मुरुगानन्थम ने मेडिकल कॉलेज की लड़कियों से इस्तेमाल किये हुए सेनेटरी पैड भी लेने शुरू किये । वे इस्तेमाल किये हुए ब्रांडेड सेनेटरी पैड्स से ये पता लगाते कि वे खून कैसे सोकते हैं। वे इन ब्रांडेड सेनेटरी पैड्स की तुलना अपने बनाये पैड्स से करने लगे। नयी तरकीब के तहत ही मुरुगानन्थम ने मेडिकल कॉलेज की कुछ लड़कियों को चुना और उन्हें सेनेटरी पैड के साथ एक फीडबैक फॉर्म दिया। लड़कियों को ये तरीका अच्छा लगा, लेकिन नतीजे से मुरुगानन्थम खुश और संतुष्ट नहीं हुए। एक दिन जब मुरुगानन्थम फीडबैक फॉर्म वापस लेने कॉलेज पहुंचे तब उन्होंने देखा कि कुछ लड़कियाँ अनमने ढ़ंग से फॉर्म भर रही हैं। उन्हें एहसास हो गया कि लड़कियों का फीडबैक सही नहीं होगा।
मुरुगानन्थम ने फिर नए सिरे से फीडबैक लेने की कोशिश शुरू की, लेकिन इस दौरान एक बहुत बड़ी घटना हो गयी। मुरुगानन्थम की पत्नी उनके नाराज़ हो गयीं और घर छोड़कर मायके चली गयी। मुरुगानन्थम ने बताया,
“एक दिन मैं घर में भोजन कर रहा था। मेरी पत्नी मेरे पास आयीं और कहा मैं कुछ कहना चाहती हूँ। मैंने कहा कहो। उसने कहा कि मैं मेडिकल कॉलेज की लड़कियों के पीछे घूम-फिर रहा हूँ। उसके इतने कहते ही मैं समझ गया कि वो आगे क्या कहना चाहती है । मैंने उसे भरोसा दिलाने के लिए कहा कि मेडिकल कॉलेज की गेट खराब हो गयी हैं और मैं उसे ठीक करने वहां आ-जा रहा हूँ, लेकिन मेरी पत्नी को मेरे बात पर यकीन नहीं हुआ और वो फूट-फूट-फूटकर रोने लगी।”
इस घटना के बाद पत्नी मुरुगानन्थम को छोड़कर अपने मायके चली गयीं। इतना ही नहीं मायके जाने के बाद पत्नी ने मुरुगानन्थम को तलाक का नोटिस भी भेज दिया। मुरुगानन्थम कहते हैं, “पत्नी के मायके जाने से मुझे फायदा ही हुआ। मैं अपने प्रयोग में ज्यादा समय दे पाया। मेरा काम तेज़ी से होने लगा था।” इसी दौरान उन्हें एक बहुत बड़ी बात का पता चला। वो जान गए कि विदेशी कम्पनियाँ सेनेटरी पैड में उस रुई का इस्तेमाल नहीं करतीं, जिसका इस्तेमाल वे कर रहे हैं।
इससे पहले किये तरह-तरह के प्रयोगों के बावजूद वे ये नहीं जान पाए थे कि अंतर्राष्ट्रीय कंपनियां आखिर सेनेटरी पैड बनाने में किस तरह की रुई का इस्तेमाल करती हैं। नयी और बड़ी जानकारी मिलने के बाद मुरुगानन्थम ने सैनेटरी पैड बनाने वाली कंपनियों को चिट्ठियाँ लिखनी शुरू की। सवाल था कि किस वस्तु का इस्तेमाल कर ये पैड बनाये जाते हैं। मुरुगानन्थम को एक भी चिट्टी का जवाब नहीं मिला, लेकिन कड़ी मेहनत, शोध-अनुसंधान और काफी जोड़-तोड़ के बाद मुरुगानन्थम ये जानने में कामयाब हुए कि सेनेटरी पैड बनाने में सैलूलोज़ फाइबर का इस्तेमाल होता है। मुरुगानन्थम ने बहुराष्ट्रीय कंपनियों के सेनेटरी पैड आईआईटी की अलग-अलग प्रयोगशालाओं को भेजे थे और सवाल पूछा था कि इनकी तैयारी में किस चीज़ का इस्तेमाल होता है । इस बार उन्हें जवाब मिल गया । उन्हें पता चला कि सेनेटरी पैड बनाने में सैलूलोज़ फाइबर का इस्तेमाल होता है। ये सैलूलोज़ फाइबर पाइन बार्क वुड पल्प से निकाला जाता है।
इस जानकारी ने मुरुगानन्थम में नए उत्साह का संचार किया। उनके मन में नयी उम्मीद जगी। विश्वास पक्का हो गया कि वे मंज़िल पर पहुँच चुके हैं, लेकिन इसी दौरान एक और बड़ी घटना हुई, जिसकी वजह से उनकी माँ भी उनका साथ छोड़कर चली गयीं। माँ के जाने के बाद मुरुगानन्थम की मुसीबतें भी बढ़ीं। हालात इतने बिगड़े की मुरुगानन्थम को अपनी जान बचाने के लिए गाँव छोड़ना पड़ा।
हुआ यूँ था कि एक रविवार के दिन मुरुगानन्थम मेडिकल कॉलेज की लड़कियों के इस्तेमाल किये हुए सेनेटरी पैड्स के साथ काम कर रहे थे। हाथ में चाक़ू था और आसपास लाल रंग पड़ा था। दूर से तो माँ को लगा कि रविवार का दिन है और लज़ीज़ पकवान के लिए उनका बेटा ‘मुरुगा’ मुर्गी काट रहा है। जब माँ करीब पहुँची तो उन्होंने हकीकत जानी। मुरुगानन्थम खून से सनी कई सारे सेनेटरी पैड्स के साथ काम कर रहे थे। ये देखकर माँ का दिमाग चकरा गया। उन्हें ये समझ में नहीं आया कि उनका बेटा आखिर क्यों औरतों की सेनेटरी पैड पर काम कर रहा है। माँ को लगा कि ‘मुरुगा’ पर कोई ‘भूत’ सवार हो गया है और किसी के जादू-टोने की वजह से वो पागल हो गया है। अपने बेटे को पागल करार देते हुए मुरुगानन्थम की माँ भी उनका साथ और घर छोड़कर चली गयीं।
माँ के घर छोड़कर जाने के बाद गांववाले भी मुरुगानन्थम के खिलाफ हो गए। गांववाले मौके की ही ताक मैं बैठे थे और जैसे ही माँ भी मुरुगानन्थम को पागल कहकर चली गयी; गांववालों को यही सही मौका लगा। कई गांववालों को शक था कि मुरुगानन्थम के कई महिलाओं से नाजायज़ सम्बन्ध हैं। लोग अकसर मुरुगानन्थम को महिलाओं के पीछे या उनके साथ घूमता देखते थे। और तो और, मुरुगानन्थम के काम के तरीके भी दूसरों से अलग थे। कई लोगों ने मुरुगानन्थम को भरी दुपहरी में तालाब के पास खून से सने कपड़े साफ़ करते देखा था। इसे देखकर कुछ लोगों को ये शक हो गया था कि कई महिलाओं से सम्बन्ध होने की वजह से मुरुगानन्थम को लैंगिक बीमारी हो गयी है। गाँववालों को भी मुरुगानन्थम के काम आम आदमियों के काम जैसे नहीं लगते थे। उन्हें मुरुगानन्थम के सारे काम ग़लत ‘हरकतें’ लगतीं, ऐसी हरकतें जो अजीब, बेहूदी और गंदी हैं। इन्हीं सब शक और शिकायतों के बीच गाँव की पंचायत बुलाई गयी। सभी ने मुरुगानन्थम के खिलाफ़ ही बातें कहीं। पंचायत ने फैसला सुनाया। फैसला था मुरुगानन्थम पर जो ‘भूत’ सवार है उसे भगाने के लिए उन्हें जंजीरों से बांधकर नीम के पेड़ पर उल्टा लटकाया जाय और अगर भूत नहीं भागा तो मुरुगानन्थम को गाँव से बहिष्कृत किया जाय। जैसे ही मुरुगानन्थम को पंचायत के इस फैसले का पता चला वे खुद ही गाँव छोड़कर चले गया। उस खौफ़नाक घटना की याद करते हुए मुरुगानन्थम ने कहा, “ सुप्रीम कोर्ट का फैसला बदल सकता है, लेकिन मेरे गाँव की खाप पंचायत का फैसला नहीं बदल सकता। मैं रातों-रात गाँव छोड़कर चला गया।”
इस घटना के बाद भी मुरुगानन्थम ने देशी सेनेटरी पैड बनाने के अपने काम को नहीं रोका। वे जान चुके थे कि सेनेटरी पैड बनाने में विदेशी कम्पनियाँ किन-किन चीज़ों का इस्तेमाल करती थीं। मुरुगानन्थम ने अब अपना सारा ध्यान उस मशीन पर लगाया जो ये सेनेटरी पैड बना सकती थी। मुरुगानन्थम ने सेनेटरी पैड बनाने वाली मशीन के बारे में जानकारी हासिल करने की कोशिश शुरू की। और इस कोशिश के दौरान जो जानकारी मिली उससे वे दंग रह गए। सबसे सस्ती मशीन की कीमत 3.5 करोड़ रुपये थी। इस जानकारी को हासिल करने के बाद मुरुगानन्थम ने एक और बड़ा फैसला किया। इस बार उनका फैसला था सेनेटरी पैड बनाने वाली मशीन खुद ही बनाना।
फैसला जितना बड़ा था काम भी उतना ही बड़ा था। परिस्थितियाँ भी अनुकूल नहीं थीं। न माँ साथ थी, न पत्नी। घर-परिवार कुछ नहीं था। साथ देने वाला भी कोई नहीं था। पुराने दोस्त और साथी भी पागल समझने लगे थे। मुश्किलों भरे दिन थे, चुनौतियाँ बाहें पसारे सामने खड़ी थीं, लेकिन, हार न मानने का ज़ज्बा बरकरार था, सस्ती लेकिन गुणवत्ता युक्त सेनेटरी पैड बनाकर ग़रीब महिलाओं की मदद करने का जुनून सवार था। मुरुगानन्थम ने कोशिशें जारी रखीं।
अपने जीवन के सबसे मुश्किल दिनों की यादें भी मुरुगानन्थम ने हमारे साथ साझा कीं। मुरुगानन्थम ने बताया, “ हालत बहुत खराब थी। रुपयों की भी तंगी थी। मुझे 10 / 12 के कमरे में रहने को मजबूर होना पड़ा था। इस छोटे से कमरे में मैं अकेला नहीं, बल्कि पांच लोगों से साथ रहता था। बाकी लोग हम्माल थे। सभी उस कमरे में एक साथ ठीक तरह से सो भी नहीं पाते थे। मुझे एक भी दिन ऐसा याद नहीं है, जब मैं ज़मीन पर सीधे सोया हूँ। मैं हमेशा दीवार से ही टेका लेकर सोता था , यही वजह थी कि आगे चलकर मुझे वर्टिगो बीमारी भी हुई।”
अच्छा ख़ासा कारोबार था, घर-परिवार का साथ था, गाँव और रिश्तेदारों में काफी इज्ज़त थी, लेकिन एक ज़िद और जुनून की वजह से सब छूट गए थे। हम्मालों के साथ रहते हुए ही मुरुगानन्थम ने सेनेटरी पैड की मशीन बनाने का काम शुरू किया। उन्होंने मशीन के लिए लोहा और दूसरे उपकरण जुटाने के लिए भी खूब मेहनत की। वे हफ्ते में दो-तीन दिन-रात एक कर वेल्डिंग का काम करते और इससे जो आमदनी होती उसी को वे सेनेटरी पैड बनाने वाली मशीन के काम में लगाते। रात-दिन मेहनत करनी पड़ती, काम में इतने मसरूफ़ रहते कि उन्हें दाढ़ी बनाने की फ़ुर्सत भी नहीं मिलती।
मुरुगानन्थम हर दिन लोहे के छोटे-बड़े टुकड़ों को जोड़ते-तोड़ते। वेल्डिंग का काम अच्छी तरह से जानते थे इसी वजह से भरोसा था कि वे मशीन बना लेंगे। आखिरकार उनकी मेहनत और लगन रंग लाई। करीब आठ सालों की जद्दोजहद के बाद वे सस्ती, गुणवत्ता वाली और फ़ायदेमंद सेनेटरी पैड और इन पेड़ों को बनाने वाली मशीन बनाने में कामयाब हो गए। मुरुगानन्थम सिर्फ 65 हज़ार रुपये की लागत में ये मशीन बनवाने में सफल रहे थे।
मुरुगानन्थम कहते हैं, “ मैंने ‘ट्रायल एंड एरर’ पद्धति अपनाई थी । मशीन बनाता, सही मशीन नहीं होती तो उसे तोड़ देता और फिर नयी मशीन बनाने में लग जाता। इसी तरह कई बार बनाने फिर तोड़ने के बाद मुझे कामयाबी मिली।”
उनकी ज़िंदगी में उस समय एक बड़ा मोड़ आया जब उन्हें आईआईटी-मद्रास जाने का मौका मिला। मुरुगानन्थम ने आईआईटी-मद्रास की ‘इनोवेशन फॉर द बेटर्मन्ट ऑफ़ सोसाइटी’ नाम के काम्पिटिशन में हिस्सा लिया । मुरुगानन्थम की कहानी को सुनकर और उनके आविष्कार के बारे में जानकर आईआईटी के वैज्ञानिक और दूसरे लोग काफी प्रभावित हुए । लेकिन आईआईटी-मद्रास में एक बात मुरुगानन्थम को बहुत बुरी लगी। कुछ लोग उनसे अंग्रेज़ी में सवाल पूछ रहे थे। मुरुगानन्थम उन सवालों का जवाब तो जानते थे, लेकिन उन्हें अंग्रेज़ी नहीं आती थी और वे बहुत ही अटपटा महसूस कर रहे थे लेकिन, उनके काम और आविष्कार की बहुत ही सराहना हुई। मुरुगानन्थम को ‘इन्नोवेशन्स अवार्ड’ तत्कालीन राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल के हाथों से प्रदान किया गया।
ख़ास बात ये भी है कि मुरुगानन्थम को ‘रिसर्च एंड डेवलपमेंट’ नाम से चिढ़ है। वे कहते है, “कोई भी प्रयोग ‘ट्रायल एंड एरर’ से ही कामयाब हो सकता है और कुछ लोगों ने ‘ट्रायल एंड एरर’ से बचने और अपनी सहुलियत के लिए ‘रिसर्च एंड डेवलपमेंट’ शब्दों का इजाद किया है।” ‘ट्रायल एंड एरर’ से मुरुगानन्थम को मिली कामयाबी कोई मामूली कामयाबी नहीं थी। एक बहुत बड़ी और ऐतिहासिक जीत थी । इस जीत और कामयाबी के बाद मुरुगानन्थम बस आगे ही बढ़ते चले गए। उन्होंने अपने मिशन का विस्तार किया और उसे नए आयाम दिए।
इस अवार्ड के बाद मुरुगानन्थम को खूब ख्याति मिली। मीडिया में भी उनके बारे में अच्छी-अच्छी ख़बरें आने लगी। उनकी कामयाबी की कहानी को बीबीसी, सीएनएन, अल ज़जीरा ने भी दुनिया-भर में सुनाया और दिखाया। किसी ने उन्हें ‘औरतों की सेनेटरी पैड पहनने वाला पहला मर्द’ कहा तो किसी ने ‘महिलाओं के लिए काम करने वाला पुरुष क्रांतिकारी’ कहा। देश और दुनिया की गरीब लड़कियों और औरतों को आसानी से वाजिब कीमत पर सेनेटरी पैड मिल सकें इस मकसद ने मुरुगानन्थम ने ‘जयश्री इंडस्ट्रीस’ की स्थापना की। ‘जयश्री इंडस्ट्रीस’के ज़रिये मुरुगानन्थम ने सस्ती सेनेटरी पैड बनाने वाली मशीन तैयार करना शुरू किया।
मुरुगानन्थम ने जब खुद सेनेटरी पैड बनाकर बेचने शुरू किये तब भी उनके लिए अनुभव अच्छे नहीं रहे । उन्होंने ‘कोवई’ नाम से सेनेटरी पैड को बाज़ार में लाया था, लेकिन, खराब मार्केटिंग और डिस्ट्रीब्यूशन की वजह से वे बाज़ार में अपनी पैठ बनाने में कामयाब नहीं हुए। लोगों से सस्ती सेनेटरी पैड पर भरोसा नहीं किया। उन दिनों लोगों को लगा कि सस्ता है इसी वजह से क्वालिटी खराब होगी, जबकि बिलकुल ऐसा नहीं था। काफी सारा माल उन्हीं के पास रह गया। उन्हें काफी नुकसान हुआ। मुरुगानन्थम ने अपना सारा बचा माल अपनी पत्नी को इस्तेमाल के लिए दे दिया । ऐसा करने का उन्हें बहुत फायदा हुआ । उन्हें उनके कारोबार का नया मॉडल मिल गया।
हुआ यूँ था की जब मुरुगानन्थम ने सारे बचे सेनेटरी पैड अपनी पत्नी को दे दिए थे जब वो उन्हें अपनी सखी-सहेलियों और दूसरी महिलाओं को बेचने लगी थीं । मुरुगानन्थम जब घर पर नहीं होते, तब महिलाएं घर आती थीं और उनकी पत्नी से ये सस्ती सेनेटरी पैड खरीद कर ले जातीं । इस बात ने मुरुगानन्थम को नया फार्मूला दिया । इसी फ़ॉर्मूले के आधार पर मुरुगानन्थम ने सेनेटरी पैड बेचने का नया मॉडल बनाया। मॉडल था – वे अपनी मशीनें सिर्फ महिलाओं को बेचेंगे और ये महिलाएं सेनेटरी पैड बनाकर अपने आस-पड़ोस की महिलाओं को बेचेंगी।
बड़ी बात ये भी है कि मुरुगानन्थम अपनी कंपनी में बनाई गयी मशीनों को सिर्फ महिलाओं के विकास और कल्याण के लिए काम कर रही गैर-सरकारी संस्थाओं, स्वयंसेवी संस्थाओं और उद्यमी महिलाओं को ही बेचते हैं। उनका मसकद इन मशीनों से ज़रिये मुनाफा कमाना या फिर करोड़ों का कारोबार करना नहीं है, बल्कि ज्यादा से ज्यादा महिलाओं तक सेनेटरी पैड पहुँचाना की उनका लक्ष्य है।
मुरुगानन्थम के कारख़ानों में बन रही मशीनों की वजह से देश-भर में सस्ते सेनेटरी नैपकिन बनने और खूब बिकने लगे। महिलाओं और लड़कियों के लिए सेनेटरी पैड ख़रीदना आसान हो गया। मुरुगानन्थम के सस्ते सेनेटरी पैड और उन्हें बनाने वाली मशीनों की वजह से कई महिला कार्यकर्ताओं को भारत की लड़कियों और अन्य महिलाओं में मासिक धर्म के बारे में जागरूकता लाने में मदद मिली। देश-भर में कई लड़कियाँ और महिलाएं अब मासिक धर्म के दौरान इन्हीं सस्ती पैड्स का इस्तेमाल कर बीमारियों और दूसरी समस्याओं से दूर रह रही हैं।
ये मुरुगानन्थम की मेहनत, कोशिश और संघर्ष का ही नतीजा है कि भारत में एक नयी क्रांति आयी और इससे महिलाओं और लड़कियों को काफी लाभ मिला। मुरुगानन्थम की वजह से ये क्रांति भारत के बाहर भी फ़ायदेमंद साबित हुई। दुनिया के कई देशों में इस क्रांति का असर फैला और अब भी फ़ैल रहा है। इस विश्वव्यापी नयी सामजिक क्रांति से दुनिया-भर में करोड़ों महिलाओं का जीवन बदला, उन्हें फायदा पहुंचा। इस क्रांति की वजह से महिलाओं को कई बीमारियों के छुटकारा मिला। महिलाओं का स्वास्थ सुधरा और उनकी ताकत बढ़ी। ग़रीब लड़कियाँ और औरतें भी सेनेटरी पैड ख़रीदकर उनका इस्तेमाल करने लगीं।
अगर देश की बात की जाय तो भारत के सभी 29 राज्यों और 7 केंद्र शासित प्रदेश में मुरुगानन्थम के कारखानों में बनी मशीनें से महिलाएं सेनेटरी पैड बनाकर महिलाओं में बेच रही हैं। भारत के अलावा दुनिया के 19 देशों में भी मुरुगानन्थम की मशीनें सेनेटरी पैड बना रही हैं। इसी नायाब और ऐतिहासिक क्रांति की वजह से मुरुगानन्थम की गिनती अब देश ही नहीं बल्कि दुनिया के सबसे बड़े सामाजिक कार्यकर्ता और सामाजिक उद्यमियों में होने लगी है। मुरुगानन्थम अब सिर्फ एक बड़े आविष्कारक ही नहीं , बल्कि एक सफल उद्यमी, समाज-सेवी, मार्ग-प्रदर्शक, आदर्श और क्रांतिकारी व्यक्तित्व हैं।
देश और दुनिया के सरकारी और शिक्षा बड़े-बड़े संस्थान अब मुरुगानन्थम के विचार सुनने उन्हें अपने यहाँ ससम्मान बुला रहे हैं। भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान और भारतीय प्रबंधन संस्थान यानी आईआईटी और आईआईएम में उनका आना-जाना और युवा छात्रों और भावी उद्यमियों को अपने विचारों से प्रेरित करना आम बात हो गयी है। भारत सरकार ने भी मुरुगानन्थम को उनकी कामयाबी और उपलब्धि के लिए देश के चौथे सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘पद्मश्री’ से नवाज़ा ।
मुरुगानन्थम का सपना है कि दुनिया-भर में महिलाएं मासिक-धर्म के समय सुरक्षित सेनेटरी पैड का इस्तेमाल करें । अपने इस सपने को साकार करने के लिए मुरुगानन्थम ने पहले ये सुनिश्चित करने की ठानी है कि भारत १०० फीसदी सेनेटरी पैड का इस्तेमाल करने वाला देश बने । मुरुगानन्थम ने भारत के सबसे बड़े राज्य उत्तरप्रदेश से अपनी मुहीम की शुरुआत की है । वे राज्य सरकार की मदद से ये सुनिश्चित करने की कोशिश में जुटे हैं कि उत्तरप्रदेश भारत में पहला ऐसा राज्य बने जहाँ हर महिला को वाजिब दाम पर सेनेटरी पैड आसानी से मिले और हर महिला सेनेटरी पैड का इस्तेमाल करे । उत्तरप्रदेश में कामयाबी के बाद मुरुगानन्थम भारत के अन्य सभी राज्यों में ये मिशन चलाएंगे । ऐसा भी नहीं है कि दूसरे राज्यों में काम नहीं हो रहा है, मुरुगानन्थम उद्यमी महिलाओं और स्वयंसेवी संस्थाओं की मदद से महिलाओं में सेनेटरी पैड के बारे में जागरूकता लाने की हर मुमकिन कोशिश कर रहे हैं । मुरुगानन्थम का एक और भी बड़ा सपना है । वे चाहते हैं कि सस्ते सेनेटरी पैड बनाने वाली सस्ती मशीनों के ज़रिये वे भारत में कम से कम १० लाख महिलाओं को रोज़गार दिलवाएँ ।
यहाँ ये बताना भी ज़रूरी है कि मुरुगानन्थम की कामयाबी के बाद उनका परिवार उनके साथ वापिस आ गया है। मुरुगानन्थम अपनी पत्नी शांति और एक बेटी प्रीति के साथ तमिलनाडु के कोयम्बतूर शहर में रह रहे हैं। जिन प्रयोगों को गंदी हरकतें बताते हुए उनकी पत्नी उन्हें छोड़ कर चली गयी थी, अब उन्हीं प्रयोगों और अपने पति की कामयाबी पर फक्र महसूस करती हैं। माँ भी अब मुरुगानन्थम की कामयाबी से बहुत खुश हैं। वे कहती और मानती हैं कि सिर्फ दसवीं तक पढ़कर उनके लाडले बेटे ‘मुरुगा’ ने इतना बड़ा काम किया है और अगर ‘मुरुगा’ ज्यादा पढ़ लेता तो और भी बड़ा काम करता। पापनायकनपुडूर गाँव अब गाँव नहीं रहा और एक उप-नगरीय इलाका हो गया है। पनायकनपुडूर के लोग अब अपनी भूल और ग़लती पर पछता रहे हैं।