एक वक्त था जब विश्वविद्यालय कैम्पस में पढ़ना गौरव माना जाता था वजह साफ थी, हम जिनकी किताबों को पढ़ते और रटते थे वही यहां साक्षात पढ़ाने के लिए मौजूद रहते थे। कुलपति को विश्वविद्यालय के विकास के लिए जो कुछ करना होता था वह उसके नाम की वजह से ही हो जाता था। सरकारें उनकी बात को इन्कार करने के पहले हजार बार सोचती थीं कई दफा तो उनके वक्तव्यों में जो बात आ जाती उसे कागज पर आने से पहले ही सरकार मंजूर कर देती थी।
अब वह जमाना गुजर गया जब कुलपति के कक्ष के सामने से गुजरने में ही हाथ-पैर फूल जाते थे। गरिमा, सम्मान, गौरव की ये प्रतिमूर्तियां अब विश्वविद्यालयों से गायब हो चुकी हैं। हालात ये हैं कि कुलपति के कक्ष के बाहर ही पान की पीक उगलने में भी संकोच नहीं होता है। जब देखो तब छात्र, छात्र हितों के लिए कुलपति कक्ष का दरवाजा तोड़ देते हैं। कुलपति को ऐसी सुरक्षा में रखना पड़ता है जैसे वह ऐसा नेता हो जिसकी जान खतरे में हो।
चिन्ता का विषय यह है कि विश्वविद्यालयों को सीधे सरकारों ने अपने नियंत्रण में लेकर इन पर अपनी राजनीतिक आकांक्षाओं को थोपने का प्रयास किया। राजनीतिक दलों को विश्वविद्यालयों के शैक्षणिक माहौल से कोई लेना देना नहीं वह सिर्फ यहां हो रहे विकास कार्यों पर निगाह लगाए हुए हैं विश्वविद्यालयों में होने वाली हर खरीदी में राजनीतिक दल के नेताओं का दखल है।
परम्परा से कुलपति का पद समाज में श्रेष्ठतम माना जाता रहा है। व्यवस्था उसके ज्ञान तथा विद्वतापूर्ण योगदान के कारण सदैव नतमस्तक रही है। डॉ. राधाकृष्णन, सर रामास्वामी मुदलियार, आशुतोष मुखर्जी, पं. मदन मोहन मालवीय, गंगानाथ झा, डॉ. अमरनाथ झा, डॉ. जाकिर हुसैन जैसे कई विख्यात नाम याद आते हैं। इन नामों को सुनकर ही कुलपति की गरिमा, प्रतिष्ठा का पक्ष उभरकर सामने आ जाता है। दूसरी तरफ कुलपति की चिन्ता सिर्फ छात्रों की शिक्षा और उन्हें नए तौर-तरीकों से परिचित कराना ही होता था, वह विश्वविद्यालय के हर संकाय में देश के नामचीन विद्वानों को शामिल करने में जुटे रहते थे। एक वक्त था जब विश्वविद्यालय कैम्पस में पढ़ना गौरव माना जाता था वजह साफ थी, हम जिनकी किताबों को पढ़ते और रटते थे वही यहां साक्षात पढ़ाने के लिए मौजूद रहते थे। कुलपति को विश्वविद्यालय के विकास के लिए जो कुछ करना होता था वह उसके नाम की वजह से ही हो जाता था। सरकारें उनकी बात को इन्कार करने के पहले हजार बार सोचती थीं कई दफा तो उनके वक्तव्यों में जो बात आ जाती उसे कागज पर आने से पहले ही सरकार मंजूर कर देती थी।
लेकिन अब वह जमाना गुजर गया जब कुलपति के कक्ष के सामने से गुजरने में ही हाथ-पैर फूल जाते थे। गरिमा, सम्मान, गौरव की ये प्रतिमूर्तियां अब विश्वविद्यालयों से गायब हो चुकी हैं। हालात ये हैं कि कुलपति के कक्ष के बाहर ही पान की पीक उगलने में भी संकोच नहीं होता है। जब देखो तब छात्र, छात्र हितों के लिए कुलपति कक्ष का दरवाजा तोड़ देते हैं। कुलपति को ऐसी सुरक्षा में रखना पड़ता है जैसे वह ऐसा नेता हो जिसकी जान खतरे में हो। आज विश्वविद्यालयों की संख्या भले ही बढ़ गई हो लेकिन कुलपतियों के स्तर में भारी गिरावट आयी है जो चिन्ता का विषय है। इन दिनों एक प्रचलन और बढ़ गया है कि शिक्षाविद नहीं बल्कि राजनीतिक दलों के हितों को साधने वाले प्रोफेसरों को कुलपति बनने में तरजीह दी जाती है। यही कारण है कि कुलपतियों की भूमिका को लेकर भी समय-समय पर सवाल उठते रहे हैं। कुछ ही समय पहले की बात है जब बिहार में नौ कुलपतियों की नियुक्ति को रद्द कर दिया गया। इसी तरह से झारखण्ड में एक कुलपति को अयोग्य नियुक्ति करने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था। इसी तरह पंजाब में भी एक विश्वविद्यालय के कुलपति को संस्थान की जमीन निजी बिल्डर को बेच देने का आरोप लगा था।
दरअसल बीते दो दशकों में सरकारों ने विश्वविद्यालयों पर अपना कब्जा जमाने की जो कुत्सित राजनीति की उसका दुखद परिणाम सामने आने लगे हैं। कुलपति नाम का पद विश्वविद्यालय के बड़े बाबू या फिर लेखापाल से ऊंचा नहीं रहा। वह सिर्फ विश्वविद्यालय के फायनेन्स के मामले ही निपटाने में जुटे रहते हैं। इसकी वजह से विश्वविद्यालयों में आर्थिक गड़बडिय़ां सामने आने लगीं। सरकारों ने भी अपने मनमाफिक व्यक्ति को कुलपति बनाकर विश्वविद्यालयों में बैठाने का चलन शुरू कर दिया और फिर कुलाधिपति भी अपने निर्णय को सरकारों के अनुकूल बनाते रहे। कहने को है कि कुलपति के चयन में कुलाधिपति ही सर्वेसर्वा है। यह बात स्वीकार नहीं होती। वर्तमान में प्रदेश के विश्वविद्यालयों में जो कुलपति हैं उनमें अधिकतर पर जांच का डण्डा चल रहा है। अधिकतर कुलपति आर्थिक घोटालों में फंसे हुए हैं कुछेक पर गम्भीर आरोप भी हैं जिससे इस पद की गरिमा खंडित हुई है।
अभी कुछ माह पूर्व ही समाजवादी सरकार में डॉ. राम मनोहर लोहिया अवध विश्वविद्यालय फैजाबाद के कुलपति रहे प्रो. जीसी जायसवाल के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपों ने पुनः एक बहस को जन्म दे दिया । विश्वविद्यालय कोर्ट के सदस्यों ने उन पर भ्रष्टाचार के गम्भीर आरोप लगाये। राजभवन को भेजी गयी तमाम शिकायतों पर कार्रवाई न होने के बाद शिक्षक और छात्र सड़कों पर उतरे । कुलपति पर आरोप लगाते हुए संघर्ष समिति सदस्यों ने कहा कि कुलपति ने राज्यपाल एवं माननीय उच्च न्यायालय के आदेशों के बावजूद कोर्ट का गठन ही नहीं होने दिया और मनमाने ढंग से सरकारी धन का बन्दर बांट किया है।
विश्वविद्यालय का वार्षिक बजट लगभग 500 करोड़ रुपये का होता है। आरोप है कि कुलपति ने विगत ढाई वर्षों में लगभग 1500 करोड़ रुपये मनमाने ढंग से खर्च कर दिये । विश्वविद्यालय की परीक्षाओं हेतु उत्तर पुस्तिकाओं की आपूर्ति से लेकर सी.पी.एम.टी. 2016 हेतु कुलपति द्वारा अपने उद्देश्यों की पूर्ति हेतु अपने नाम एकल खाता खुलवाकर गम्भीर अनियमितता करने के कथित आरोप लगे हैं। दीगर है उस खाते में विश्वविद्यालय के खाते से 15 करोड़ रुपये स्थानान्तरित किए गये और फिर पावर ऑफ अटार्नी के माध्यम से एक शिक्षक के हस्ताक्षर से 03 करोड़ रुपये निकाल कर खर्च कर दिये गये। इस मामले के खुलासे के लिए सी.पी.एम.टी. 2016 के लेखा की सघन जांच की मांग की गई है। आरोप तो यह भी है कि परीक्षाओं के दौरान परीक्षा केन्द्रों को निरस्त कर पुन: बहाली कर करोड़ों रुपये का खेल करने का खुलासा किया गया है। परीक्षा के दौरान नकल के नाम पर पहले तो परीक्षा केन्द्र निरस्त किये गये। जब उन केन्द्रों से मनोवांछित धन उगाही हो गयी तो रातों-रात उनके केन्द्र बहाल कर दिए गये और यही नहीं और भी केन्द्रोंं को उनसे सम्बद्ध कर दिया गया।
उत्तर प्रदेश में कुलपतियों पर भ्रष्टाचार के आरोप लगना कोई नई बात नहीं है। लखनऊ विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति डॉ. मनोज मिश्रा पर बीएड प्रवेश परीक्षा में 11 करोड़ के घोटोले, नियुक्तियों में धांधली, मूल्यांकन में भारी अनियमितताओं व महाविद्यालयों को फर्जी मान्यता देने का आरोप लगा था। उत्तर प्रदेश के वी.वी.डी. विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ. ए.के. मित्तल पर उत्तर पुस्तिका प्रिंटिंग में पांच करोड़ व सत्र 2008-09 में नामांकन एवं परीक्षा शुल्क में 1.25 करोड़ के घोटालों का आरोप था। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के कुलपति रहे प्रो. पी.के. अब्दुल अजीज पर वित्तीय अनियमितताओं के चलते सीबीआई की जांच चल रही है। अजीज पर आरोप है कि पूर्व छात्र परिषद के नाम पर अरब देशों से करोड़ों रुपयों की उगाही की है।
गोरखपुर विश्वविद्यालय के कुलपति रहे प्रो. अरूण कुमार पर बीएड में धांधली का आरोप सिद्ध हुआ जिसके बाद उन्हें राज्यपाल ने बर्खास्त कर दिया। उत्तर प्रदेश स्थित पूर्वांचल विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति प्रो. एन.सी. गौतम पर भी बीएड में धांधली और नियुक्तियों में अनियमितताओं का आरोप है। ऐसे अनेक उदाहरण हैं जब कुलपतियों ने अपनी गरिमा को गिरवी रख कर मर्यादा के प्रतिकूल आचरण करते हुए पद को ही कलंकित कर दिया।
चिन्ता का विषय यह है कि विश्वविद्यालयों को सीधे सरकारों ने अपने नियंत्रण में लेकर इन पर अपनी राजनीतिक आकांक्षाओं को थोपने का प्रयास किया। राजनीतिक दलों को विश्वविद्यालयों के शैक्षणिक माहौल से कोई लेना देना नहीं वह सिर्फ यहां हो रहे विकास कार्यों पर निगाह लगाए हुए हैं विश्वविद्यालयों में होने वाली हर खरीदी में राजनीतिक दल के नेताओं का दखल है। कुल मिलाकर कुलपति किसी कम्पनी के फायनेंस या फिर हेड कैशियर की भूमिका में है वह चेकों पर साइन करने और टेण्डरों की बोली लगवाने में अपना समय अधिक खपाता है। राष्ट्रीय ज्ञान आयोग और यशपाल कमेटी दोनों ने कहा था कि कोई भी व्यक्ति किसी भी विश्वविद्यालय का कुलपति बनने के योय नहीं समझा जाएगा जब तक वह इस पद के मानक पर खरा नहीं उतरता।
इन दिनों एक नया ट्रेण्ड चल गया है कि कुलपति के पद के लिए रिटायर्ड सैन्य अधिकारियों तथा भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारियों को तरजीह दी जाने लगी है। एक अध्ययन के मुताबिक भारत सरकार के अधीन आने वाले विश्वविद्यालयों में से एक तिहाई कुलपतियों के पास पीएचडी की डिग्री नहीं है। साल 1964 में कोठारी आयोग ने सिफारिश की थी कि सामान्य तौर पर कुलपति एक जाना माना शिक्षाविद या प्रतिष्ठित अध्येता होगा। अगर कहीं अपवाद की जरूरत पड़ती भी है तो इस मौके का इस्तमाल उन लोगों को पद बांटने के लिए नहीं करना चाहिए।
जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति बीबी भट्टाचार्य का मानना है कि कमतर दर्जे के कुलपति की नियुक्ति का सबसे बड़ा नुकसान यह होता है कि उसका आत्मविश्वास नहीं के बराबर होता है। इसलिए वह अपने से कम काबिल प्रोफेसरों की नियुक्ति करता है जो कि शिक्षा के लिए बड़ा खतरा है। स्थिति इतनी नाजुक है कि कुलपति शिक्षा के स्तर को बढ़ाने के लिए उत्सुक नहीं है बल्कि कर्मचारी नेताओं के दबाव में नियुक्तियां कर अपनी कुर्सी बचाने में जुटे हुए हैं।
कुलाधिपति भी विश्वविद्यालयों के गिरते शैक्षणिक स्तर को लेकर कई बार सार्वजनिक मंचो पर अपनी पीड़ा को उजागर कर चुके हैं। कुलाधिपति के सामने कुलपतियों के भ्रष्टाचार के अलावा अन्य तरह की दर्जनों शिकायतें लम्बित हैं पर वह कुलपतियों को हटाने का सख्त निर्णय नहीं ले पा रहे हैं। इससे अधिक दुर्भाग्यपूर्ण और क्या होगा कि देश के राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने हाल ही में विश्वविद्यालयों के गिरते शैक्षणिक स्तर पर चिन्ता व्यक्त करते हुये कहा था कि अब विश्वविद्यालय शिक्षा के उच्च संस्थान नहीं रहे। प्रदेश के विश्वविद्यालयों में नौकरी की वेकेन्सी कभी देखने को नहीं मिलती पर हर विश्वविद्यालय में मान्य पदों से अधिक लोग कार्य कर रहे हैं आखिर इन लोगों की नियुक्तियां कैसे हो गईं। इस पर कोई जवाब नहीं मिलता। विश्वविद्यालयों में नियुक्तियों के बारे में आरटीआई के तहत पूछे गए किसी भी सवाल का जवाब सही नहीं मिलता, सब कुछ गोल मोल होता है। विश्वविद्यालयों में कर्मचारी नेताओं और राजनीतिक दलों के लोगों के रिश्तेदारों को नौकरियों पर किस नियम कानून, प्रक्रिया के तहत रखा गया, इसका जवाब कई विश्वविद्यालयों ने नहीं दिया।
खैर यह तो नियमों की बात है और नियम क्या हैं हम भी जानते हैं पर सरकारी तन्त्र से सच के पन्नों को हासिल कर पाना अब भी मुश्किल है। मूल विषय पर लौटें तो मीडिया में एक शब्द का प्रयोग होता है वह है तलब। यह शब्द खासतौर से अपराध का बोध कराता है पर अब खबरें लिखी जाती हैं कुलाधिपति ने अमुक कुलपति को राजभवन तलब किया। इसके बाद यह भी खबर होती है कि कुलाधिपति ने अमुक कुलपति को जमकर फटकारा। कुलपति और कुलाधिपति के बीच हुई चर्चा में सीधे कोई शामिल नहीं हुआ पर जिस तरह की शब्दावली का प्रयोग होने लगा है उससे यह स्पष्ट है कि इस पद की गरिमा पर कीचड़ फेंक दिया गया है। माने या न माने कुलपति का पद भी अब बिकाऊ हो गया है ऐसे में विश्वविद्यालयों के शैक्षणिक विकास पर चर्चा करना बेमानी है। इधर प्राइवेट विश्वविद्यालयों को मंजूरी दिये जाने के बाद से तो अब कुलपति नाम का पद सम्भवत: डायरेक्टर बनकर रह जाएगा। मतलब यह कि सरकारों ने विश्वविद्यालयों को सिर्फ अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा के लिये इस्तेमाल किया और स्वार्थ पूर्ति का साधन बनाया। सरकारों के इस रवैये ने कुलपतियों को भ्रष्टाचार का रास्ता दिखा दिया और वह इसमें रम गये हैं।
बड़ा प्रश्न यह है कि इस स्थिति से कैसे उबरा जाए। समाधान कठिन है, लेकिन कुछ बदलाव तो शुरू किए जा सकते हैं। पहला, कुलपति पद की गरिमा को बरकरार रखने के लिए विशिष्ट एवं लब्ध प्रतिष्ठित व्यक्ति को ही इस पद पर बिठाना चाहिए। बहुत पहले इस बात को एक नहीं, बल्कि तीन बार राष्ट्रीय स्तर पर स्थापित कमीशनों और समितियों ने उसकी पूरी प्रक्रिया निर्धारित कर दी थी। राधाकृष्णन कमीशन (1948:422), कोठारी कमीशन (1964: 66: 334-35), रामलाल पारीख कमेटी (1993:15-7) ने इस पद के चयन एवं महत्ता पर विस्तार से प्रकाश डाला है। विश्वविद्यालय के संविधान के अनुसार कुलपति मुख्य अकादमिक तथा कार्यकारिणी का अध्यक्ष होता है।
यह कार्यकारिणी एवं अकादमिक क्षेत्र के बीच सेतु का कार्य करता है। इन कमीशनों ने इस पद के महत्व एवं विकास की गुणवत्ता कायम रखने की आवश्यकता बतायी थी। विश्वविद्यालय के कुलपतियों की योग्यता पर गजेन्द्र गड़कर कमेटी (1971:60) ने प्रकाश डालते हुए कहा कि कुलपति अकादमिक क्षेत्र का विशिष्ट योग्यता वाला विद्वान होना चाहिए। उसमें स्पष्ट दूरदर्शिता, दक्ष नेतृत्व के गुण, प्रबन्धन की क्षमता एवं निर्णय लेने की योग्यता होनी चाहिए। इन सभी की राय यही है कि इस पर योग्य विद्वान को बिठाना चाहिए। दूसरा प्रश्न, कुलपति की चयन प्रक्रिया का है। यह पक्ष कहीं अधिक महत्वपूर्ण है। यह प्रक्रिया निष्पक्ष एवं पारदर्शी होनी चाहिए।
चयन समिति में जैसा कि महाराष्ट्र विश्वविद्यालय एक्ट, 1994 में निर्धारित किया गया है, इसमें पांच सदस्य होने चाहिए: 1. विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा नामित, 2. एक सदस्य चांसलर द्वारा नामित, 3. उच्च शिक्षा सचिव, 4. एक मैनेजमेन्ट काउन्सिल का सदस्य, 5. अकादमिक काउन्सिल द्वारा नामित व्यक्ति। इन नामित सदस्यों में से कोई किसी विश्वविद्यालय या कॉलेजों से सम्बन्धित न हो। आवश्यक है कि विश्वविद्यालयों को राजनीति, जातिवाद या क्षेत्रवाद जैसी संकीर्णताओं से बिलकुल अलग रखा जाए। विश्वविद्यालयों को पूर्णतया स्वायत्त बनाना समय की जरुरत है। इन्हें वित्तीय सम्बल दिया जाना चाहिए। सरकारी हस्तक्षेप से बिलकुल मुक्त रखना चाहिए। तब कुलपतियों की गिरती साख पर विराम लगेगा और एक बार फिर अतीत का गौरव वर्तमान का चेहरा बनेगा। सम्भव है कि तब विश्व के शीर्ष 200 विश्वविद्यालयों में भारतीय विश्वविद्यालयों का भी शुमार हो।
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