हिंदी के अमर कथाकार मुंशी प्रेमचंद ने मुफलिसी और बीमारी में गुजारे थे अंतिम दिन
संघर्षशील भारतीय गांवों के अमर चितेरे मुंशी प्रेमचंद की 138वीं जयंती पर विशेष..
शतरंज के खिलाड़ी, पूस की रात, बूढ़ी काकी, बड़े भाईसाहब, बड़े घर की बेटी, कफन, नमक का दरोगा, गबन, गोदान, कर्मभूमि, निर्मला, प्रेमाश्रम, रंगभूमि आदि नाम हैं हिंदी के अमर कथाकार मुंशी प्रेमचंद की कहानियों और उपन्यासों के, जिन्हें पढ़ते हुआ आज तीसरी पीढ़ी उम्रदराज हो रही है। संघर्षशील भारतीय गांवों के अमर चितेरे मुंशी प्रेमचंद की आज 138वीं जयंती है।
आज से लगभग चौदह साल पहले बेंगलुरु के बिशप कॉटन गर्ल्स कॉलेज में बारहवीं की हिंदी के क्लास में एक सवाल उठा कि जब विलियम शेक्सपीयर के घर को म्यूजियम में बदला जा सकता है, तो भारत का शेक्सपीयर कहे जानेवाले प्रेमचंद के घर को क्यों नहीं?
बनारस शहर से आजमगढ़ मार्ग पर जाने पर लगभग सात किलोमीटर दूर लमही नाम का एक छोटा-सा गांव है। इस छोटे-से गांव ने हिंदी साहित्य जगत को समृद्ध करने वाला एक अनमोल रत्न देश को दिया मुंशी प्रेमचंद। मुंशीजी का वास्तविक नाम धनपत राय था। उनके चाचा उन्हें नवाब कहा करते थे। प्रेमचंद्र ने लगभग तीन कहानियां और चौदह बड़े उपन्यास लिखे। लमही गांव में उनका जन्म 31 जुलाई 1880 में हुआ था। प्रेमचन्द के दादाजी गुरु सहाय सराय पटवारी और पिता अजायब राय डाकखाने में क्लर्क थे। अपनी मां आनंदी देवी से प्रेरित होकर ही ‘बड़े घर की बेटी‘ कहानी में ‘आनंदी‘ नाम का पात्र रचा था। जब वह मासूम थे, तभी मां चल बसीं। वह अपने माता-पिता की चौथी सन्तान थे। उनसे पहले अजायब राय के घर में तीन बेटियां हुई थीं, जिनमें से दो बचपन में ही मर गईं, जबकि सुग्गी जीवित रहीं।
वह जब छह वर्ष के थे, उन्हें लालगंज गांव के एक मौलवी के घर फारसी और उर्दू पढ़ने भेज दिया गया। उनको सबसे ज्यादा प्यार अपनी बड़ी बहन से मिला। जब बहन भी विदा होकर ससुराल चली गईं, वह अकेले हो गए। सूने घर में उन्होंने खुद को कहानियां पढ़ने में व्यस्त कर लिया। पंद्रह साल की उम्र में ही उनका विवाह कर दिया गया। कुछ समय बाद ही पत्नी का देहांत हो गया। इसके बाद प्रेमचंद्र बनारस के निकट चुनार के एक स्कूल में शिक्षक की नौकरी करने लगे, साथ ही बीए की पढ़ाई भी। बाद में उन्होंने एक बाल विधवा शिवरानी देवी से विवाह किया, जिन्होंने प्रेमचंद की जीवनी लिखी है। प्रेमचंद को सर्वप्रथम बंगाल के विख्यात उपन्यासकार शरतचंद्र चट्टोपाध्याय ने 'उपन्यास सम्राट' के नाम से संबोधित किया था। सन् 1936 में प्रेमचन्द बीमार रहने लगे। उसी दौरान उन्होंने प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना में सहयोग दिया। आर्थिक तंगी में इलाज ठीक से न कराए जाने के कारण 8 अक्टूबर 1936 को उनका देहांत हो गया।
आज से लगभग चौदह साल पहले बेंगलुरु के बिशप कॉटन गर्ल्स कॉलेज में बारहवीं की हिंदी के क्लास में एक सवाल उठा कि जब विलियम शेक्सपीयर के घर को म्यूजियम में बदला जा सकता है, तो भारत का शेक्सपीयर कहे जानेवाले प्रेमचंद के घर को क्यों नहीं? मूल रूप से बिहार के गांव फुल्का के प्रो विनय कुमार यादव उस समय इस कॉलेज में हिंदी विभागाध्यक्ष थे। वह उस दिन क्लास में डॉ चंद्रिका प्रसाद लिखित ‘लमही: मुंशी प्रेमचंद का गांव’ अध्याय छात्राओं को पढ़ा रहे थे। उसी दिन प्रोफेसर विनय कुमार और उनकी छात्राओं ने प्रण लिया कि वे लमही में स्थित मुंशी प्रेमंचद के घर की मरम्मत करवा कर उसे संग्रहालय में तब्दील कराएंगे। उसके बाद विनय कुमार ने छात्राओं के साथ बेंगलुरु के अलग-अलग कॉलेजों का दौरा कर एक लाख से अधिक छात्रों का हस्ताक्षर हासिल किया।
उन्हें कर्नाटक महिला हिंदी सेवा समिति, मैसूर हिंदी प्रचार परिषद, सिद्धार्थ सांस्कृतिक समिति, आदर्श विद्या केंद्र, शेषाद्रीपुरम कॉलेज और बेंगलुरु विश्वविद्यालय आदि का भी समर्थन मिला। इसके बाद उन्होंने उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव के नाम एक पत्र एक लाख हस्ताक्षर की प्रति के साथ भेजा, जिसमें ‘कलम का सिपाही’ कहे जानेवाले प्रेमचंद के लमही स्थित घर की जजर्र स्थिति का जिक्र करते हुए उसकी मरम्मत करा कर उसे संग्रहालय में बदलने की अपील की गयी। साथ ही वहां एक पुस्तकालय बनाने की भी मांग की गयी, जिसमें देश-दुनिया से आनेवाले पर्यटकों के पढ़ने के लिए प्रेमचंद का संपूर्ण साहित्य उपलब्ध हो। बताते हैं कि शुरुआत में विनय कुमार की मुलाकात मुलायम सिंह से नहीं हो पायी, लेकिन उनके पत्र के आधार पर वर्ष 2006 में मुख्यमंत्री ने उनको इस संबंध में आयोजित बैठक में भाग लेने के लिए लखनऊ आमंत्रित किया और उनकी मांग जल्द पूरा करने का आश्वासन दिया। इसके बाद मुलायम सिंह की सरकार बदल गई। प्रोजेक्ट अरसे तक धरा रह गया। फिर भी विनय कुमार ने हार नहीं मानी। दोबारा जब समाजवादी पार्टी की सरकार बनी, तो किसी कार्यवश बेंगलुरु पहुंचे मुख्यमंत्री अखिलेश यादव से उन्होंने मुलाकात कर प्रोजेक्ट की याद दिलायी। अंतत: उनकी मेहनत रंग लायी। सपना साकार हो गया।
मुंशी प्रेमचंद का गांव लमही अब ई-विलेज बन चुका है। इस गांव की हर जानकारी अब एक क्लिक पर मिलती है। कुछ साल पहले यह तोहफा मुंशी जी को श्रद्धांजलि के रूप में सरकार ने दिया है। करीब ढाई हजार की आबादी वाला यह गांव खुले में शौच से मुक्त हो चुका है। यह केवल सरकारी प्रयास से ही नहीं बल्कि गांव के युवाओं, महिलाओं की जागरूकता के चलते भी हुआ। पक्की सड़क, बिजली से रोशन गांव, घर-घर शौचालय, डोर टू डोर कूड़ा कलेक्शन, घर-घर पानी की आपूर्ति, स्वच्छता के मामले में यह गांव किसी मॉडल कॉलोनी से कम नहीं। यही कारण है कि इस गांव के आसपास कालोनियां विकसित होने लगी हैं और करोड़ों के मकान गांव की आधुनिकता की कहानी बयां कर रहे हैं।
मुंशी प्रेमचंद इस गांव को देखने के लिए देश ही नहीं बल्कि विदेशों से भी लोग आते हैं। लमही के पास गोइठहां गांव के सुरेशचन्द्र दुबे को प्रेमचंद के साहित्य ने इतना प्रेरित किया कि वह इसके प्रसार में जुट गए। उन्होंने एक लाइब्रेरी बना रखी है। रोजाना देशी-विदेशी सैलानी व स्कूली छात्र इस गांव को देखने एवं प्रेमचंद की पुस्तकों का अध्ययन करते आते हैं। प्रेमचंद की अमर कहानी 'दो बैलों की जोड़ी' अब इस गांव में नहीं दिखती। समय के साथ लोग भी बदल गये। गांव आधुनिकता की राह पर निकल पड़ा। अब ना यहां किसी के घर बैल हैं, न ही बैलों के बारे में कोई बात करना चाहता है। मुंशी प्रेमचंद के घर के ठीक सामने आलीशान मुंशी प्रेमचंद मेमोरियल रिसर्च सेंटर है।
मुंशी प्रेमचंद ने ‘रामलीला’ की रचना बनारस के बर्फखाना रोड पर स्थित बर्डघाट की रामलीला के पात्रों की दयनीय स्थिति को ध्यान में रखकर लिखी थी। ‘बूढ़ी काकी’ मोहल्ले में बर्तन मांजने वाली एक बूढी महिला की कहनी है। गोदान में अंग्रेजी हुकूमत में देश के किसानों के दर्द की तस्वीर है, जिसका किरदार भी गोरखपुर के इर्दगिर्द ही घूमता है। प्रेमचंद की चर्चित कहानियां हैं-मंत्र, नशा, शतरंज के खिलाड़ी, पूस की रात, आत्माराम, बूढ़ी काकी, बड़े भाईसाहब, बड़े घर की बेटी, कफन, उधार की घड़ी, नमक का दरोगा, पंच फूल, प्रेम पूर्णिमा, जुर्माना आदि।
उनके उपन्यास हैं- गबन, बाजार-ए-हुस्न (उर्दू में), सेवा सदन, गोदान, कर्मभूमि, कायाकल्प, मनोरमा, निर्मला, प्रतिज्ञा, प्रेमाश्रम, रंगभूमि, वरदान, प्रेमा और मंगल-सूत्र (अपूर्ण)। प्रेमचंद्र के रचे साहित्य का लगभग सभी प्रमुख भाषाओं में अनुवाद हो चुका है, विदेशी भाषाओं में भी। सत्यजित राय ने उनकी दो कहानियों पर यादगार फिल्में बनाईं हैं। सन 1977 में 'शतरंज के खिलाड़ी' और 1981 में 'सद्गति'। के. सुब्रमण्यम ने 1938 में 'सेवासदन' उपन्यास पर फिल्म बनाई, जिसमें सुब्बालक्ष्मी ने मुख्य भूमिका निभाई है। सन् 1977 में मृणाल सेन ने प्रेमचंद की कहानी 'कफन' पर आधारित 'ओका ऊरी कथा' नाम से एक तेलुगू फिल्म बनाई, जिसको सर्वश्रेष्ठ तेलुगू फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला। वर्ष 1963 में 'गोदान' और 1966 में 'गबन' उपन्यास पर लोकप्रिय फिल्में बनीं। 1980 में उनके उपन्यास पर बना टीवी धारावाहिक 'निर्मला' भी खूब सराहा गया।
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